Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 55
________________ पं० अर्जुनलालजी सेठी बी. ए.। २४३ चक्कर लगाने लगीं। उनका चित्त निरन्तर व्याकुल रहने लगा। अपने आगामी जीवनको कर्तव्यपरायण बनानेके लिए वे प्रतिदिन नई नई मानसिक स्कीमें गढ़ने लगे। उनकी स्वार्थवासनायें बहुत ही दुर्वल थीं, इस लिए वे नहीं चाहते थे कि शिक्षाके प्राप्तिके लिए मैंने जो अश्रान्त परिश्रम किया है और शरीरको अतिशय क्षीण कर डाला है,उसका बदला मैं केवल धन कमाकर और भोगसामग्रियाँ प्राप्त करके लूँ। उनके हृदयपट पर जो बड़े बड़े स्वार्थत्यागी महात्माओंके चरित्र लिखे हुए थे वे उन्हें परोपकारके मार्गका यात्री बनानेके लिए ही प्रेरणा करते थे। यद्यपि नौकरीसे उन्हें बहुत ही घृणा थी; परन्तु अपने पिताके द्वारा बहुत मजबूर किये जाने पर-पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करना अच्छा न समझकर उन्हें लाचार होकर नौकरीके लिए राजी होना पड़ा। पहले वे जयपुरमहाराजकी कोंसिलमें 'एपेंटिस' नियत हुए । इसके बाद उन्हें रेजीडेंसीमें काम मिला और इस कामको उन्होंने दो महीने तक किया। इसी समय इनके पिताका देहान्त हो गया. और तब ये उन्हीं जागीरदारके-जिनके यहाँ इनके पिता नियुक्त थे-प्राइवेट सेक्रेटरी नियुक्त हो गये । इस पदको प्राप्त हुए थोड़ा ही समय व्यतीत हुआ था कि सेठी. जीको मथुराके जैन महाविद्यालयकी उन्नतिका आन्दोलन सुन पड़ा। उनके हृदयकी तलीमें जो शिक्षाप्रचारके भाव जमे हुए थे और जो विचार उन्हें निरन्तर ही चिन्तित बनाये रखते थे अब उनका रोकना कठिन हो गया। इस बीचमें उन्हें जैनधर्म और जैनसमाजकी दुरवस्थाका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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