Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 47
________________ विविध प्रसंग | २३७ और हिन्दू जड़जीव बन रहे हैं ! कितना बड़ा उलट फेर हो गया ! कालिदासका यह वाक्य याद आता है: ८ नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा कालनेमिक्रमेण । 1 "" ६ कातंत्र व्याकरणका विदेशों में प्रचार | 1 कातंत्र या कलाप संस्कृतका बहुत हो प्रसिद्ध व्याकरण है । यह अपने समयका इतना सरल व्याकरण था कि इसका प्रचार सारे भारतवर्ष में हो गया था । उस समय सारे देशमें इसी व्याकरणका पठन पाठन होता था । इस व्याकरण भारत के बाहर विदेशों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, इसका पता अभी हाल ही लगा है। मंध्यएशिया में पुरातत्त्वसम्बन्धी बड़ी महत्वकी खोजें हो रही हैं । वहाँ जमीनके भीतर से प्राचीन कूचा नामक राज्यका पता लगा है । उसमें जो प्राचीन साहित्य मिला है उससे मालूम हुआ है कि उस समय वहाँ बौद्ध धर्मके अनेक मठ थे और उनमें संस्कृत पढ़ानेके लिए कातंत्रव्याकरणका उपयोग किया जाता था । इससे पाठक समझ सकते हैं कि कातंत्र व्याकरणकी प्रसिद्धि कितनी और कहाँ तक हुई थी । कथासरित्सागर में कातंत्र के सम्बन्धमें एक कथा लिखी है | उससे मालूम होता है कि यह व्याकरण महाराज शालिवाह्न (शक ) के पढ़ाने के लिए उनके मंत्री शर्व - वर्माने बनाया था । जैनोंका विश्वास है कि शर्ववर्मा जैन थे; परन्तु इस विषय में अभीतक कोई संतोषयोग्य निर्णय नहीं हुआ है। 1 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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