Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 46
________________ २३६ जैनहितैषी दनी ( जोधपुर ) हिन्दी चित्रमयजगत् ' में प्रकट करते हैं कि उक्त ग्रन्थमें पृथ्वीकी जिन आठ विदुषी जातियोंके नाम बतलाये हैं, उनमें हिन्दूनातिका नम्बर सबसे पहला है। हिन्दुओंका परिचय देते हुए पण्डितवर साअद कहते हैं कि " हिन्दू परमेश्वरको एक और अद्वितीय मानते हैं और उसीको पूजने तथा आराधना करनेके योग्य जानते हैं । ऐसी ज्ञान और विवेकमयी निष्ठा और आस्थाओंके देखते हुए वे पृथ्वी भरकी अच्छीसे अच्छी जातियोंमें गिने जाने योग्य हैं । इनमें दो प्रकारके लोग हैं । एक ब्राह्मण और दूसरे वे जो ब्राह्मण नहीं ( श्रमण ? ) हैं । ब्राह्मण विद्वान् और ज्ञानविज्ञानवाले हैं । परमेश्वरको कर्त्ता मानते हैं, सृष्टिको अनादि नहीं मानते-और प्रलयको भी सच जानते हैं। उनके धर्ममें जीवहिनाका निषेध है और प्राणिमात्रको दुःख देना महापाप है । जो ब्राह्मण नहीं हैं वे ऋषियोंको अनदि मानते हैं और परमेश्वरको अकर्ता कहते हैं। उनके मतमें कर्म प्रधान है । आगे उक्त विद्वान्ने हिन्दुओंकी सभ्यता, विद्वत्ता, रीतिनीतिकी भूरिभूरि प्रशंसा की है। ब्राह्मणेतर लोगोंसे जान पड़ता है उसका मतलब जैनों या श्रमणोंसे है । क्योंकि जैन ही ईश्वरको अकर्ता और कर्मोंकी प्रधानता माननेवाले हैं । ऋषियों या तीर्थकरोंको वे अनादिकालसे मानते ही हैं । इस विद्वान्ने जो अविद्वान् या मूर्खजातियाँ गिनाई हैं उनमें सबसे पहला नम्बर फिरंगियों या यूरोपवालोंका बतलाया है और उन्हें पशुओंके समान जड़जीव और बहुत ही दुःशील कह। है ! देखिए कालचक्रकी गति ! आज वही यूरोपवाले सभ्यशिरोमणि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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