Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 14
________________ २०४ जनहितैषी - 1 उसको ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । दूसरे प्रकारका पुद्गल है जो आत्माकी दर्शन शक्तिको दवा रखता है । उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । तीसरे प्रकारका पुद्गल है जो आत्माको संसारके मोहजालमें फँसाकर उसको आत्मानुभव और आत्मिक सुखसे रोकता है। इसके मुख्य दो भेद हैं:- १ दर्शन मोहनीय, २ चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयसे सच्चा श्रद्धान नहीं होता । चारित्र - मोहनीयसे क्रोध, लोभ, मान. माया, हास्य. रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि आदि बुरे भाव पैदा होकर मनुष्यका चारित्र ठीक नहीं होने पाता । चौथे प्रकारका पुगल अंतराय कर्म कहलाता है जिसके कारण आत्मा दानादि नहीं कर सकता अथवा अपनी शक्तिको काम - में नहीं ला सकता । पाँचवें प्रकारका पुद्गल आयु कर्म है जो आत्माको नियत समयतक एक शरीर में रखता है । छट्टे प्रकारका पुद्गल वेदनीय कर्म है जो आत्माको सुख दुःखका कारण होता है । सातवें प्रकारका पुद्गल नाम कर्म है जो आत्माके वास्ते भिन्न भिन्न प्रकारकी शरीरकी आकृति करता है । आठवें प्रकारका पुद्गल गोत्र कर्म है जो आत्माके उच्च नीच कुलमें जन्म लेनेका कारण हे'ता है । इस तरह यह आठ प्रकारका सूक्ष्म पुद्गल है जिसको जैनसिद्धांत में आठ कर्म कहते हैं । इन्हींसे कार्माण शरीर बना हुआ है जो अन्य शरीरों और आत्माकी सम्पूर्ण संसारिक अवस्थाओंका कारण होता है । दूसरा शरीर मनुष्यकी आत्माके साथ तैजस शरीर है जिसके कारण शरीर में तेज और गर्मी रहती है । तीसरा औदारिक शरीर है जिसको हम तुम सब देखते हैं । इस I I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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