Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ बच्चोंकी शिक्षा। २११ उम्र दुःख भोगता है । संसाररूपी समुद्रमें केवल चरित्र ही मनुष्यको वांछारूपी लहरोंसे बचा सकता है । दुःखके साथ कहना पड़ता है कि आज कलकी (आधुनिक) शिक्षाका ऐसा प्रवाह बह रहा है कि नीतिशिक्षा व धार्मिकशिक्षाकी अवहेलना की जाती है; बालकोंको केवल मानसिक ( Intellectual ) शिक्षामें निपुण किया जाता है जिसका फल यह हुआ है कि नास्तिकता और असन्तुष्टता जनसमाजमें फैलती जा रही है। मानसिक शिक्षाके शिक्षित केवल विषयाभिलाषी हो दुःख उठाते हैं। जिन नव युवकोंमें खाने, पीने और खुश रहनेकी सुगम चाल व उदंडताका व्यवहार देखा जाता है वह केवल मात्र उनकी नैतिक और धार्मिक शिक्षाकी कमीके कारण है। _दूसरी मुख्य बात जिसकी अवहेलना हमारे स्कूलमास्टर व पंडित लोग प्रायः कर जाते हैं वह यह है कि वे अपने चरित्रको आदर्शरूप नहीं बनाते । बालकोंका स्वभाव नकल करनेका होता है और जैसा वे अपने गुरुजनोंको करते देखते हैं वैसा स्वयं भी करने लगते हैं । अध्यापकोंका चरित्र ऐसी उच्चकोटिका होना चाहिए कि बालक उसे अनुसरण कर सदाचारी बन जावें । इस लिए उन्हें बालकोंके भावोंके जान लेनेके साथ साथ अपना चरित्रबल बढाना चाहिए और इसका सबसे अच्छा उपाय उन्हें स्वयंशिक्षा लेना चाहिए अर्थात् उन्हें ट्रेनिंगस्कूलोंमें पढ़कर खुद योग्य बनना चाहिए । शोकका विषय है कि जैनजातिमें अभी तक ऐसे अध्यापक तैयार करनेकी कोई भी संस्था नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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