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जैनहितैषी
इत्यादि गुणोंका कूटकूट कर भर देना है । सारांश उसमें सम्पूर्ण रूपसे सतोगुणी भावोंका विकाश कराना चाहिए जिससे उसके समस्त अच्छे गुण व मानसिक भव्य भाव प्रकाश हो जावें । इस अवस्थामें इस बातका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए कि बालकमें कितनी योग्यता है और उस ही प्रकार क्रम क्रमसे उसे ऊँची शिक्षा देनी चाहिए । जैसे जैसे उसमें नवीन शक्तियोंका प्रादुर्भाव होता जावे उसीके अनुसार शिक्षाका क्रम होना आवश्यक है । ऐसा करनेसे बालकको न मानसिक कष्ट ही होगा और न उसकी मानसिक बाढ़में हानि पहुँचेगी । उसे विचार करनेमें भी सहायता मिलेगी । कारण, बालकमें नवीन अवस्थामें नये नये बि. चार स्वतः पैदा होते हैं । और ज्ञान केवल बाहरी कारणोंसे ही नहीं बरन् इन बाहरी कारणोंका योग पाकर भीतरहीसे उत्पन्न होता है। ज्ञान और बुद्धि एक मात्र स्मरण शक्तिके बढ़नेसे ही नहीं बढ़ती है । तोते सा रटा हुआ ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जबतक बालकमें स्वतः विचारने और निर्णय करनेकी शक्ति बढानेकी शिक्षा न दी जाय तबतक उसे सच्ची शिक्षा नहीं कह सकते। इन सब बातों पर अगर पूर्ण ध्यान दिया जाय तो कोई कारण नहीं कि विद्यार्थीमें देखने, निर्णय करने और स्वतंत्र सोचनेकी शक्ति आप ही आप न स्फुरित हो जाय, उसमें उच्च शिक्षा पानेकी योग्यता न बढे और चरित्रगठनमें सहायता न मिले । __ चरित्रगठनको लोग मामूली बात समझ उस पर ध्यान ही नहीं देते जिसका फल यह होता है कि बालक प्रौढ़ होने पर सारी
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