Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ मनुष्यकर्तव्य । २०७ जड़ है। यद्यपि भिन्न भिन्न मतावलम्बी इन सिद्धांतोंको भिन्न भिन्न रूपमें प्रगट करते हैं; कोई पुद्गलका नाम माया रख ले, कोई उसको प्रकृतिके नामसे पुकारे; परंतु वास्तवमें धर्मके मूल सिद्धांत ये ही हैं। __ अतएव मनुष्यका कर्तव्य यह है कि इन सिद्धांतोंको स्वयं जाने और इनके अनुसार जहाँ तक होसके अमल करे और केवल अपने जानने पर ही संतोष न करे, किंतु जहाँ तक हो सके दूसरोंको भी इन सिद्धांतोंका ज्ञान करावे । जहाँतक उसकी शक्ति हो उनका संसारमें प्रचार करे । दूसरोंके साथ इस प्रकारका व्यवहार करे कि जिससे स्वयं उसकी आत्मा तथा जिसके साथ व्यवहार करे उसकी आत्मा पुद्गलके धर्मसे दूर हो और आत्माके धर्मकी तरफ़ रुचि करे। दूसरोंको बद्ध करने अथवा हानि पहुँचानेमें, दूसरोंसे झूठ बोलनेमें, दूसरोंका धन या दूसरोंकी स्त्री छीननेमें, सांसारिक वस्तुओंकी तीव्र इच्छा करनेमें, व्यवहार करनेवालेकी आत्मा तथा जिसके साथ व्यवहार किया जाय उसकी आत्मा, दोनोंकी आत्मायें आत्मिक धर्मसे गिरती हैं और पुद्गलकी अधीनतामें अधिक अधिक फँसती हैं। इस लिए इन पाँचों बातोंको पाप बताया गया है और इनको मना किया गया है। अतएव मनुष्यका सबसे पहला और सबसे बड़ा कर्तव्य यही है कि आत्माके धर्मको यथाशक्ति ग्रहण करे और दूसरोंको ग्रहण करावे जिससे आत्मा पुद्गलके असरसे निकलती और शुद्ध होती चली जाय । दयाचन्द्र गोयलीय बी. ए. । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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