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जैनहितैषी
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अर्थात्-अपने धर्म और दूसरे धर्मोके विषयमें सद्भावको धारण करनेवाले एक 'राहु' नामके आचार्य थे । वे नागिलवंशके थे । उनके शिष्यका नाम विजय था । विनयके शिष्य . विमलसूरिने यह राघवचरित ( रामचन्द्रका चरित ) अपने पहलेके नारायणबलभद्रके चरितोंको श्रवण करके बनाया । जो लोग मत्सरको छोड़कर भक्तिभावसे सुनते हैं उन्हें सत्पुरुषोंके विमल चरित बोधिके अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चरित्रके कारण होते हैं। ___ ग्रन्थकर्ता इसकी रचनाका मूल और रचना-समय इस प्रकार बतलाते हैं :
एयं वीरजिणेण रामचरियं सिलु महत्थं पुरा, पच्छाखंडलभूइणा उ कहियं सीसाण धम्मासयं । भूओ साहुपरंपराए सयलं लोये ठियं पायडं, एत्ताहे विमलेण सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कयं ॥ १०२॥ पंचेव य वाससया दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता। वीरे सिद्धमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ॥ १०३ ॥ अर्थात्-इस तरह पहले भगवान् महावीरने रामचरित कहा था। उनके बाद इन्द्रभूति गणधरने अपने शिष्योंसे कहा था। फिर यह साधुओंकी परम्पराके द्वारा प्राकृतिक रूपमें इस लोकमें चला आ रहा था,सो अब विमलसूरिने इसे गाथाओंमें बनाया । यह सूत्रसहित है। अर्थात् इसका मूल कथाभाग परम्परागत ज्योंका त्यों है । यह चरित दुःषमकालमें उस समय बना जब महावीरभगवान्को मुक्त हुए ५.३० वर्ष हुए थे।
इससे साफ साफ मालूम होता है कि यह आजसे १९११ वर्ष
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