Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 54
________________ जैनहितैषी - १७८ वैराग्यकी - स्वार्थत्यागकी ही पूजा होती आई है । अतएव अपनी संस्थाओं की सहायता के लिए, उनके प्रति प्रीति उत्पन्न कराने के लिए जब तक स्वार्थत्यागी या उदासीन तैयार न होंगे तब तक उनकी दशा संतोषजनक नहीं हो सकेगी । हम नहीं कह सकते कि उदासीनाश्रमके स्थापकों और संचाल - कोंने ' उदासीन ' का अर्थ क्या निश्चित किया है; परन्तु यदि ये । आश्रम जैनसमाजकी उन्नतिके लिए स्थापित हुए हैं तो ' उदासीन ' का अर्थ स्वार्थत्यागी परोपकारी ही होगा। जो अपनी स्वार्थवासनाओंसे - भोगलालसाओंसे उदासीन हो चुका हैं - अपने सुखकी, आरामकी, मानापमानकी जिसे परवा नहीं रही है, गृहकी संकीर्ण परिधिका उल्लंघन करके जिसके प्रेमकी सीमा सारे विश्वमें व्याप्तहो गई है और इस कारण जो जीवमात्रकी भलाई करनेके लिए तत्पर हो गया है, उसे ही हम उदासीन कहते हैं । ऐसे उदासीन ही जैनसमाजको लाभ पहुँचा सकते हैं और इन्हींके लिए आश्रम - की जरूरत है । ( यहाँ प्रश्न होता है कि ऐसे लोग तो यों ही समाजसेवाका कार्य करेंगे, उनके लिए आश्रमोंकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर यह है कि मनुष्यके विचार सदा स्थिर नहीं रहते हैं । इस समय किसी पुरुषके हृदयमें जो स्वार्थत्यागके विचार उत्पन्न हुए हैं संभव है कि वे थोड़े दिन पीछे न रहें । इस लिए उत्पन्न हुए विचारोंको स्थिर रखने और दृढ बनानेके लिए, विचारोंके अनुसार काम करनेकी योग्यता प्राप्त करानेके लिए और अनेक विचारों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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