Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - Reg. No. B.719. 5555 जैनहितैपी। साहित्य, इतिहास, समाज और धर्मसम्बन्धी लेखोसे विभूषित मासिकपत्र। सम्पादक और प्रकाशक-नाथूराम प्रेमी ग्यारहवाँ। पौष। रा अंक। भाग। श्रीवीर निसंवत् २४४१ विषयसूची। १ विविध प्रसंग २ जयपुर राज्य, अंगरेज सरकार और सेठीजीका मामला ३ लुकमानका कौल (कविता) ४ दान और शीलका रहस्य ५ वैश्य (कविता) ६ उदासीनाश्रम ७ हृदयोद्वार (कविता) ८ सहयोगियोंके विचार -2560525EERSESEGGEET AGOES HONOR urr990 वार्षिक मूल्य उपहार सहित राजा वर्षके प्रारंभसे ग्राहक बनाये जाते है ।। पत्रव्यवहार करनेका पतामैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई।। For Personali & Private Use On : A w w.jainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनहितपीके उपहार-ग्रन्थ अब पूर्वनिश्चित मूल्यमे न मिलेंगे। अब यदि आप मँगावेंगे तो, चार आने ज्यादह देना होंगे। अर्थात अब दो रुपये सात आनेका बी. पी. भेजा जायगा। इससे एक पैसा भी कम नहीं। चिट्ठी लिखते समय यह साफ़ साफ लिखना मत भूल जाइए कि उपहारके दो तरहके ग्रन्थोंमेंसे कौन तरह के ग्रन्थ चाहिए: आत्मोद्धार और कठिनाईमें विद्याभ्यास अथवा धर्मविलास और नेमिचरित । अपना ग्राम, पता, ग्राहक न० आदि साफ़ लिखिए For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी । श्रीमत्परमम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ १ वाँ भाग } पौष, वीर नि० सं० २४४१ । { अंक ३ विविध प्रसंग | १ जैनसाहित्यकी समालोचना । जैन - साहित्यको अन्य साहित्योंकी बराबरीका आसन दिलाने के लिए- संसारकी दृष्टि उसकी ओर आकर्षित करनेके लिए जिस तरह उच्चश्रेणीके जैनसाहित्यको प्रकाशित करनेकी और उसकी आलोनात्मक चर्चा करनेकी आवश्यकता है उसी तरह जो निम्नश्रेणीका रद्दी और दुर्बल साहित्य है उसकी कड़ी समालोचना होनेकी भी ज़रूरत । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि हमारे साहित्यका एक अंश जितना ही उत्कृष्ट मार्मिक और विविधगुणसम्पन्न है उसी तरह उसका एक अंश --विशेष करके वह जो पिछले समय में भट्टारकों TERME For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमाहितैषी mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwww तथा उनके शिष्यों द्वारा निर्मित हुआ है--बहुत ही गिरा हुआ उथला और गुणहीन है । इस बातका उल्लेख हम और भी कई बार कर चुके हैं और ऐसे कुछ ग्रन्थोंकी समालोचना प्रकाशित करनेका उद्योग भी कर रहे हैं। हर्षका विषय है कि इस ओर हमारे एक सहयोगीका भी ध्यान आकर्षित हुआ है । जैनहितेच्छुके ९-१० अंकमें सूरतके - दिगम्बरजैन आफिस' से प्रकाशित हुए ' श्रीपालचरित्र' की २०-२१ पृष्ठकी विस्तृत समालोचना प्रकाशित हुई है। हम सिफारिश करते हैं कि जो सज्जन गुजराती भाषा समझ सकते हों उन्हें उक्त समालोचना अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि जो ग्रन्थ हमारे समाजमें अधिकतासे प्रचलित हैं और धार्मिक भावोंकी जागृति करनेवाले बतलाये जाते हैं उनका साहित्य किस श्रेणीका है और उनसे लोगोंको कैसी शिक्षायें मिलती हैं। समालोचनाके प्रत्येक अंशसे हम सहमत नहीं हैं तो भी हम उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते-वह बहुत अच्छे ढंगसे लिखी गई है। जरूरत है कि इस प्रकारकी समालोचनायें और भी प्रकाशित की जायँ और उनके द्वारा निम्न साहित्यको नीचे गिराकर प्राचीन उत्कृष्ट साहित्यका गौरव और आदर बढ़ाया जावे। - - . २ रामायणके बन्दर कौन थे ? बाल्मीकि रामायणमें रामचन्द्रकी सेनाके हनुमान, जांबवन्त, सुग्रीव आदिको बन्दर, रीछ आदि बतलाया है। सनातनधर्मी भाइयोंका For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १२९ यही विश्वास है कि हनुमान आदि मनुष्य नहीं थे; वे बन्दर रीछ आदि प्राणियोंमेंसे थे । किन्तु यह बात आजकलके विचारशील विद्वानोंको असंभव मालूम होती है । इस विषयमें वे तरह तरहके अनुमान करते हैं । कोई उन्हें अनार्य जातिके मनुष्य, कोई द्रविड़ जातीय मनुष्य और कोई वानरादिके समकक्षी मनुष्य कल्पित करते हैं । इस विषयमें मराठी 'विविधज्ञानविस्तार' में कई लेख निकल चुके हैं । सितम्बरके अंकमें एक महाशयने यह सिद्ध किया है कि वे लेमूरियन जातिके प्राणी थे । जहाँ पर इस समय हिन्दमहासागर है, वहाँ एक समय एक बड़ा भारी भूखण्ड था । वह सण्डा द्वीपसे एशियाके दक्षिण तटको घेरता हुआ आफ्रिकाके पूर्वतट तक विस्तृत था । इस प्राचीन विशाल खण्डको एक विद्वान्ने लेमूरिया नाम दिया है; क्योंकि उसमें बन्दर सरीखे प्राणी रहते थे । लेमूरिया एक प्रकारके मनुष्योंसे मिलते हुए बन्दर थे । इसका प्रतिवाद दिसम्बरके अंकमें श्रीयुक्त चिन्तामणि विनायक वैद्य एम. ए. एल एल. बी. नामक प्रसिद्ध विद्वान्ने किया है । आपने रामचन्द्रका समय ईस्वी सन्से लगभग चार हज़ार वर्ष पहले अनुमान किया है और इसमें मुख्य प्रमाण यह दिया है कि महाभारतके युद्धमें दुर्योधनकी ओरसे लड़नेवाला कोसलाधिपति बृहद्दल नामका राजा रामका वंशज था । पुराणों में और महाभारतमें इसका उल्लेख है । यह रामकी ३.० वीं पीढ़ीमें था । एक पीढ़ीके यदि ३० वर्ष गिने जावें तो महाभारतसे लगभग ९०० या हजार वर्ष पहले रामचन्द्रका समय आता हैं । महाभारतका समय ई० सन् से ३१०१ वर्ष पहले For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनहितैषी - प्रायः सिद्ध हो चुका है और विश्वासके योग्य है । इस हिसाब से ई० सन्के चार हज़ार वर्ष पहले रामचन्द्रकी वानर सेना थी । परन्तु भूगर्भशास्त्रज्ञ विद्वानोंके मतसे उस समय हिन्दुस्तानकी और हिन्दमहासागरकी स्थिति जैसी इस समय है लगभग वैसी ही थीमहासागरके स्थानमें कोई बड़ा भारी भूखण्ड न था और न उस समय लेमूरियन जातिके बन्दरोंका अस्तित्व ही संभव है । अतएव रामायणमें जो वानरोंका वर्णन है वह बिलकुल काल्पनिक है । आगे चलकर वैद्य महाशयने उक्त वानरोंके विषयमें जो अनुमान किया है वह जैनरामायण या पद्मपुराणसे बिलकुल मिलता हुआ है । वे लिखते हैं कि " मैंने रामायणके विषय में एक अँगरेजी ग्रन्थ लिखा है । उसमें मैंने बतलाया है - कि इन हनुमानादिके निशानों पर ध्वजाओं पर - वानरादिके चिन्ह होंगे और उन्हीं चिन्हों के कारण उन्हें वानरादि नाम मिले होंगे। एक जातिकी ध्वजा पर बन्दरका चित्र होगा, दूसरीकी ध्वजापर रीछका, तीसरी पर गीधका और इस कारण उन लोगोंको वानर, रीछ, गृध्र नामसे पुकारते होंगे । निशानों पर जानवरोंके चित्र बनवाने की पद्धति आजकलके सुसभ्य राष्ट्रों में भी जारी है। अँगरेज़ोंके निशान पर सिंह, रशियनोंके निशाने पर रीछ, और जर्मनीके निशान पर गरुड़ है !.... इस तरह ध्वजचिन्होंके कारण जुदाजुदा जातिके लोगों की वानर रीछ आदि संज्ञा पड़ गई होगी और आगे रामायण के लिखनेवालोंको ये संज्ञायें वास्तविक मालूम हुई होंगी - वाल्मीकिजीने उन्हें साक्षात् वानरादि ही समझ लिया होगा । दक्षिण में अब भी For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १३१ बहुतसे वंश और देश जानवरोंके नामोंसे प्रसिद्ध हैं। देशस्थ ब्राह्मणोंके टटू, रेडे ( पाडा या भैंसा ) आदि उपनामों या अटकोंको तो सभी जानते हैं; परन्तु दक्षिणके इतिहासमें माहिषिक और मूषक लोगों तकका पता लगता है। वर्तमान महसूरराज्य माहिषोंका ही वंशज है और महिषपुरका अपभ्रंश होकर महसूर बन गया है।" जैनोंके यहाँ जो राम-रावणकी कथा है उसमें भी यही कहा है कि वानरवंशी वे कहलाते थे जिनकी ध्वनाओंमें तथा मुकुटोंमें वानरका चिन्ह था । वे श्रेष्ठ क्षत्रिय मनुष्य थे; जंगली लोग या बन्दर नहीं थे। जैनरामायणमें यह भी बतलाया है कि वानरवंशियोंके कुलमें वानरका चिन्ह क्यों पसन्द किया गया था । इसके विषयमें एक कथा भी लिखी है । जैनरामायणकी बतलाई हुई यह बात उस समय और भी विशेष महत्त्वकी और माननीय जान पड़ते लगती है जब कि हम उसकी प्राचीनताका विचार करते हैं । इस विषयके उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थों में सबसे प्राचीन कथाग्रन्थ संस्कृत पद्मपुराण है जो कि रविषेणाचार्यका बनाया हुआ है और जो वीर निर्वाण संवत् १२०४ में अर्थात् आजसे लगभग सवा बारह सौ वर्ष पहले बना है। अभीतक लोग इसे ही सबसे पहला रामकथाका जैनग्रन्थ समझते थे; परन्तु अभी हाल ही 'पउमचरिय' नामक प्राकृत ग्रन्थका पता लगा है जो कि उससे बहुत पहले वीर निर्वाण संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६० का बना हुआ है। अर्थात् आजसे लगभग दो हजार वर्ष पहले भी जैनसम्प्रदायके अनुयायियोंका यह विश्वास था कि वानरवंशी लोग बन्दर नहीं किन्तु मनुष्य थे-ध्वजाओंमें For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी वानरका चिन्ह रहनेके कारण वे वानरवंशी कहलाते थे। इसी बातको माननीय वैद्यजीने कहा है। हमें विश्वास है कि वैद्यमहाशयने जैनरामायणकें इस भागका अवलोकन अवश्य किया होगा; क्योंकि आपका जैनोंसे अच्छा परिचय रहा है। यदि न किया हो तो हम आशा करते हैं कि अब अवश्य ही करेंगे और इस विषयको और भी अधिक स्पष्ट रूपमें विद्वानोंके समक्ष उपस्थित. करेंगे। ३ सबसे प्राचीन जैन ग्रन्थ । पुराणोंमें सबसे पुराना जैनपुराण श्रीरविषेणाचार्यका पद्मपुराण समझा जाता है । यह वीर निर्वाण संवत् १२०४ का बना. हुआ है । यथाःद्विशताभ्यधिकेन समा सहस्र समतीते/चतुर्थवर्षसंयुक्ते । जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धे चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥ अब तक इसके पहलेका बना हुआ कोई भी पुराण उपलब्ध नहीं था । हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि भी इसके पीछेके बने हुए हैं। पुष्पदन्त कविके प्राकृतपुराण तो आदिपुराणसे भी पीछेके हैं । जहाँ तक हम जानते हैं अभीतक श्वेताम्बर-सम्प्रदायका भी कोई पुराण ग्रन्थ इससे पहलेका प्राप्त नहीं हुआ है। परन्तु अभी एक नये ग्रन्थका पता लगा है जिसका नाम 'पउमचरिय ' है और पाठक यह जानकर और भी प्रसन्न होंगे कि इस ग्रन्थको भावनगरकी जैनधर्मप्रसारक सभाने छपा कर प्रकाशित भी कर दिया है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग | १३३ । यह ग्रन्थ प्राकृत भाषामें है और इसमें पउमचरिय - ( पद्म चरित). या रामचन्द्रजीका चरित वर्णित है । ग्रन्थ बड़ा है । ११८ उद्देश या अध्यायोंमें विभक्त है । पत्राकार ३३६ पृष्ठों में छपा है । कागज और छपाई बहुत अच्छी है । शुद्धताके विषय में इतना ही कहना काफी होगा कि इसका संशोधन जर्मनीके सुप्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर हर्मन जैकोबीके हाथसे हुआ है । युद्ध शुरू हो जानेके कारण जैकोबी महाश्यकी लिखी हुई भूमिका इसके साथ सम्मिलित नहीं हो सकी है, इस लिए इस ग्रन्थके सम्बन्धकी विशेष ऐतिहासिक और तात्त्विक बातें जाननेके एक अच्छे मार्गसे हम कुछ दूर जा पड़े हैं। तो भी आशा की जाती है कि जब तक जैकोबी महाशयकी भूमिका प्रकाशित नहीं होती है तब तक हमारे देशी विद्वान् ही इस ग्रन्थका अध्ययन मनन करके इसके विषयमें कुछ अधिक प्रकाश डालनेका प्रयत्न करेंगे । इस ग्रन्थके रचयिताका नाम विमलसूरि या विमलाचार्य है । ग्रन्थके अन्तमें वे अपना परिचय इस प्रकार देते हैं: राहू नामायरिओ ससमय परसमयगहियसब्भाओ । विजओ य तस्स सीसो नाइलकुलवंसनंदियरो ॥ ११७ ॥ सीसेण तस्स रइयं राहवचरियं तु सूरिविमलेणं । सोऊणं पुचगए नारायणसीरिचरियाई ॥ ११८ ॥ जेहि सुयं ववगयमच्छरोहिं तब्भत्तिभावियमणेहिं । ताणं विउ बोहिं विमलं चरियं सुपुरिसाणं ॥ ११९ ॥ इइ नाइलवंसदिणयर राहूसूरिपसीसेण महप्पेण पुव्वहरेण विमलायरिएण विरइयं सम्मत्तं पउमचरियं ॥ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३४ जैनहितैषी Ammmmmannana अर्थात्-अपने धर्म और दूसरे धर्मोके विषयमें सद्भावको धारण करनेवाले एक 'राहु' नामके आचार्य थे । वे नागिलवंशके थे । उनके शिष्यका नाम विजय था । विनयके शिष्य . विमलसूरिने यह राघवचरित ( रामचन्द्रका चरित ) अपने पहलेके नारायणबलभद्रके चरितोंको श्रवण करके बनाया । जो लोग मत्सरको छोड़कर भक्तिभावसे सुनते हैं उन्हें सत्पुरुषोंके विमल चरित बोधिके अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चरित्रके कारण होते हैं। ___ ग्रन्थकर्ता इसकी रचनाका मूल और रचना-समय इस प्रकार बतलाते हैं : एयं वीरजिणेण रामचरियं सिलु महत्थं पुरा, पच्छाखंडलभूइणा उ कहियं सीसाण धम्मासयं । भूओ साहुपरंपराए सयलं लोये ठियं पायडं, एत्ताहे विमलेण सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कयं ॥ १०२॥ पंचेव य वाससया दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता। वीरे सिद्धमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ॥ १०३ ॥ अर्थात्-इस तरह पहले भगवान् महावीरने रामचरित कहा था। उनके बाद इन्द्रभूति गणधरने अपने शिष्योंसे कहा था। फिर यह साधुओंकी परम्पराके द्वारा प्राकृतिक रूपमें इस लोकमें चला आ रहा था,सो अब विमलसूरिने इसे गाथाओंमें बनाया । यह सूत्रसहित है। अर्थात् इसका मूल कथाभाग परम्परागत ज्योंका त्यों है । यह चरित दुःषमकालमें उस समय बना जब महावीरभगवान्को मुक्त हुए ५.३० वर्ष हुए थे। इससे साफ साफ मालूम होता है कि यह आजसे १९११ वर्ष For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। पहले अर्थात् विक्रमसंवत् ६० का बना हुआ है और इस कारण यह बात भी कही जा सकती है कि अभी तक केवल पुराण ही नहीं और भी जितने दिगम्बर जैनग्रन्थ उपलब्ध हैं उन सबसे यह प्राचीन है। उमास्वामी, कुन्दकुन्दाचार्य आदिके विषयमें कहा जाता है कि वे विक्रमकी पहली शताब्दिमें हुए हैं, परन्तु इसके लिए अभी तक कोई अच्छा प्रमाण नहीं मिला है, बल्कि साधुपरम्पराका विचार करनेसे वे तीसरी चौथी शताब्दिके लगभगके सिद्ध होते हैं। ऐसी अवस्थामें इसी ग्रन्थको सबसे अधिक प्राचीनता प्राप्त होती है और इसके निर्माणका समय बिलकुल निश्चित हैअनुमानोंके आधार पर इसकी स्थिति नहीं है। - दिगम्बरसम्प्रदायके ग्रन्थोंके अनुसार श्वेताम्बरसंघकी उत्पत्ति विक्रमकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद हुई है और श्वेताम्बर ग्रन्थोंके अनुसार दिगम्बरोंकी उत्पत्ति भी लगभग इसी समयमें हुई है। अर्थात् विक्रमादित्यकी या शक विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें जैनधर्ममें दिगम्बर और श्वेताम्बर दो भेद हो गये हैं। यदि यह सत्र है तो कहना होगा कि यह 'पउमचरिय' उस समयका बना हुआ है जब कि महावीर भगवान्का धर्म भेदोपभेदरहित था; उसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर भेदोंका जन्म नहीं हुआ था। यदि इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतारमें बतलाई हुई मुनिपरम्परा ठीक है तो कहना होगा कि एकादशांगधारी पाँचवें आचार्य कंसाचार्यके समयमें यह ग्रन्थ रचा गया है। श्रीरविषेणाचार्यके पद्मपुराणको सामने रखकर हमने इस ग्रन्थके For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनहितैषी • wwwmmmmmmmmmmmmmmmmwww कुछ अंश मिलाये तो मालूम हुआ कि संस्कृत पद्मपुराण इसको सामने रखकर इसकी छाया पर कुछ विस्तारके साथ बनाया गया है। बहुतसे पद और भाव बिलकुल एकसे मिलते हैं। रचनाक्रम और कथानुसन्धान भी प्रायः एकसा है। इस समय हम इस ग्रन्थका स्वाध्याय कर रहे हैं। आगे चलकर हम इसके विषयमें एक विस्तृत लेख लिखना चाहते हैं। उस समय हम इन दोनोंकी रचनाका अधिक स्पष्टताके साथ मिलान करेंगे और यह भी बतला सकेंगे कि इसमें कोई बात ऐसी है या नहीं जो दिगम्बर या श्वेताम्बर सम्प्रदायकी खास बात हो और जिससे कहा जा सके कि इसके कर्ता किस सम्प्रदायके थे । अभी तक हमने इसका जितना अंश देखा है उसमें कोई बात, ऐसी नहीं मिली। हम आशा करते हैं कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायके विद्वान् इस ग्रन्थका स्वाध्याय करेंगे और इसकी प्राचीनता साम्प्रदायिकता आदिके सम्बन्धमें अपने अपने विचार प्रकट करेंगे। यद्यपि यह ग्रन्थ प्राकृतमें हैं और साथमें टीका या संस्कृतच्छायाआदि साधन भी नहीं है, तो भी भाषा इतनी सरल और रचना इतनी कोमल तथा सुन्दर है कि साधारण संस्कृतके जाननेवाले भी परिश्रम करनेसे इसे लगा सकेंगे। ___ ग्रन्थका मूल्य ढाई रुपया है। मंत्री जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगरसे इसकी प्राप्ति हो सकती है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १३७ ४ अकालवार्द्धक्य और अल्पायु। हमारे देशमें आजकल मनुष्योंकी आयु बहुत कम होने लगी है और बुढ़ापा तो यहाँ बहुत ही जल्दी आ जाता है। पचास पूरे होनेके पहले ही हमारे यहाँके स्त्रीपुरुष बूढ़े हो जाते हैं-उनमें काम करनेकी शक्ति नहीं रहती । इसके विरुद्ध विदेशोंमें, विशेषकर यूरोपमें, पचास वर्ष जवानीके मध्यकालमें समझे जाते हैं और अस्सी अम्सी नव्वै नव्वै वर्षकी उमर तक वहाँवाले अच्छी तरह कामकाज करते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो बड़े बड़े महत्त्वके कार्य पचास वर्षके बाद ही किये जा सकते हैं, क्योंकि उस समय बुद्धि परिपक्व हो जाती है और सैकड़ों बातोंका अनुभव हो जाता है। शास्त्रमें लिखा है कि — पंचाशोर्द्ध वनं व्रजेत् ' परन्तु हमारे यहाँके महापुरुषोंकी पचासके बाद बन जानेकी शक्ति तो नहीं रहती है, वे स्वर्ग अवश्य चले जाते हैं ! इससे देशकी जो क्षति होती है उसका अन्दाज नहीं किया जा सकता। देशहितैषियोंको इस विषयमें विशेषताके साथ विचार करना चाहिए और अल्पायु और अकालमें बुढापा आ जानेके कारणको खोजकर उनसे बचनेकी शिक्षाका प्रचार करना चाहिए । अगहनकी 'भारती' पत्रिकामें एक विद्वान् लेखकने इसके दो प्रधान कारण बतलाये हैं;-एक तो बाल्यविवाह और दूसरा सीमासे अधिक मानसिक परिश्रम । बाल्यविवाहके विषयमें वे कहते हैं कि कच्ची उम्रके मातापिताकी सन्तान कभी बलवान् और दीर्घायु नहीं हो सकती । यह कच्ची उम्रका ब्याह शिक्षितों और अशिक्षितों दोनोंके लिए एकसा हानिकर है । अशि For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३८ जैनहितैषी क्षित तो बेचारे कुछ जानते नहीं; परन्तु शिक्षितोंकी पुत्रकन्याओंके ब्याहकी अवस्था जितनी चाहिए उतनी क्यों नहीं बढ़ रही है, इसका कारण नहीं मालूम होता। बाल्यविवाहकी हानियाँ सब ही जानते हैं और बाल्यविवाह न करनेवाले पर कोई दण्ड किया जाता हो अथवा और कोई बड़ी रुकावट हो सो भी नहीं है, तो भी लड़कियोंका विवाह ९-१० वर्षमें कर ही दिया जाता है। अनेक युवक विद्यार्थी अवस्थामें विवाह करनेके लिए बिलकुल रजामंद नहीं होते, तो भी पितामाताके आग्रहके मारे उन्हें विवश हो जाना पड़ता है। यदि हम सब मिलकर यह निश्चय कर लें कि अपने भाईबेटोंका ब्याह १९-२० वर्षके पहले और अपनी बहिन-बेटियोंका ब्याह १५-१६ वर्षके पहले न करेंगे तो हमें इसके लिए कोई पंचायती या बिरादरी कुछ कह नहीं सकती । इस अपराधमें कोई जातिसे अलग कर दिया गया हो ऐसा अभीतक कहीं भी नहीं देखा सुना। यदि थोडासा मानसिक बल हो-दिलकी मजबूती हो तो कमसे कम शिक्षितोंमेंसे तो इस प्रथाका काला मुँह हो सकता है । इसके बाद दूसरे कारणका विचार करते हुए लेखक महाशय कहते हैं कि मस्तकसे अधिक काम लेनेसे-सोच विचार अधिक करनेसे और उसके साथ ही शरीरसेवा पर ध्यान न देनेसे भी जल्दी बुढ़ापा आ जाता है और आयु घट जाती है। शरीरको बचाकर मानसिक कार्य करनेसे एक तो काम अधिक किया जाता है और दूसरे उम्र भी अच्छी मिलती है । इस विषयमें मेरे कुछ अनुभूत नियम हैं जिनसे मैंने बहुत लाभ उठाया है। १ सप्ताहमें छहे For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विविध प्रसंग। दिन मानसिक श्रम करनेके बाद सातवें दिन पूरा विश्राम करना चाहिए। एक दिन लिखना पढ़ना बन्द रखनेसे आगेके छह दिनोंमें उत्साहके साथं अधिक काम किया जाता है। २ शामको पाँच साढे पाँचके बाद आठ बजे तक किसी भी मानसिक श्रम करनेवाले पुरुषको घर नहीं रहना चाहिए । इस समय थोड़ेसे परिश्रमकी और शुद्ध वायुसेवनकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। ३ लम्बी छुट्टियोंमें आरोग्यप्रद स्थानोंमें हवा बदलनेके लिए जाना चाहिए। यह बड़ा ही लाभकारी है । इससे मनकी थकावट मिट जाती है, मस्तक ठिकाने आ जाता है, शरीरका श्रम बढ़ जाता है, स्वास्थ्य सुधर जाता है और एक तरहकी नई शक्ति आ जाती है । ३ दूध,, घी आदि पौष्टिक पदार्थोंका आहार करना चाहिए। दुग्ध जीवनदाता है। शुद्ध दूधका सेवन बहुत उपकारी है। . आशा है कि शिक्षित भाई लेखककी बातों पर ध्यान देंगे और शरीररक्षाके विषयमें अधिक सावधान हो जायेंगे । ५ जैन-जनसंख्याके ह्रासका प्रश्न। . दिसम्बरकी छुट्टियोंमें रायकोट नामक स्थानमें स्थानकवासी भाइयोंकी पंजाब प्रान्तिक कान्फरेन्सका जल्सा हुआ था। उसकी रिपोटसे मालूम हुआ कि स्थानकवासी जैन भाइयोंमें भी जैनोंकी जनसंख्या घटनेकी चर्चा होने लगी है और उसकी ओर पढ़े लिखे लोगोंका ध्यान विशेषरूपसे आकर्षित हुआ है । पटियालाके लाला रामलालजी ओवरसियरने इस विषयको उपस्थित करते हुए For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषीxxnxxxxmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm कहा कि " हम लोगोंमें लड़कियोंकी संख्या कम है और फिर बहुतसे धनी मानी लोग दो दो तीन तीन या इससे ज्यादा दफे शादी करते हैं । इन दो कारणोंसे निर्धन कुटुम्बके लड़कोंको कन्यायें नहीं मिलती है और उन्हें कुँवारे रहकर ही अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है । अत एव विधवाविवाहकी छूट देकर यह नियम बना देना चाहिए कि ३५ वर्षकी उम्रके बाद यदि किसीको शादी करना हो तो वह विधवाके साथ करे-कन्याके साथ नहीं । इसके सिवाय अनाथाश्रम खोलकर उसमें अन्य लोगोंकी निराधार बालिकाओंको दाखिल करके पालने और पढाने लिखानेका प्रबन्ध करना चाहिए और जब वे बालिकायें विवाहयोग्य हो जावें तब उनकी शादियाँ निर्धन जैन भाइयोंके साथ करना चाहिए।" लाला भोजराजजीने इस प्रस्तावका अनुमोदन किया और कहा कि " रोडा जैनी दूसरोंकी कन्यायें लेते तो हैं परन्तु देते नहीं हैं। उन्हें देना भी चाहिए । पटियालामें १००० जैनी हैं जिनमें ३०० स्त्री और ७०० पुरुष हैं। इस तरह पुरुषोंकी संख्या ज्यादा होने से उनकी शादीके लिए एक अनाथालयकी अवश्य ही बहुत जरूरत है।" लाला प्रभुदयालजीने कहा कि “ कुरुक्षेत्रमें कुछ समय पहले जैनोंके १०० घर थे; परन्तु अब सिर्फ तीन घर रह गये हैं-सब कुँवारे ही मर गये ! इस तरह जैनोंकी आबादी घटती जी रही है।" साथमें उन्होंने यह भी कहा कि “हिन्दुस्तानमें ईसाइयोंकी संख्यामें ५० लाखकी वृद्धि हुई है जब कि हिन्दुओंमें एक करोडका घाटा पड़ा है। इसलिए हमें जागृत होना For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १४१ चाहिए और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हिन्दुओंकी लड़कियोंके साथ शादी करना चाहिए । नहीं तो जैनोंका अस्तित्व रहना कठिन है।" यद्यपि इस चर्चासे सभामें कुछ क्षोभसा उत्पन्न हो गया और प्रस्ताव भी पास न हुए-सभापतिने यह कहकर टाल दिया कि अभी जैन कौम इन प्रस्तावोंके लिए तैयार नहीं है; तथापि इससे इस बातका पता अवश्य लगता है कि इस संख्याकी कमीके प्रश्नने नवयुवकोंको उद्विग्न कर दिया है और अब वे इसे किसी तरह हल कर डालना चाहते हैं । हमारी समझमें अब जैनोंकी प्रत्येक जातिके मुखियोंको शीघ्र चेत जाना चाहिए और यदि उन्हें विधवाविवाह जैसे प्रस्ताव अभीष्ट नहीं हैं तो जैनसमाजको इस क्षयरोगसे बचानेके लिए दूसरे उपायोंका अवलम्बन करना चाहिए । १ जैनोंकी सम्पूर्ण जातियोंमें परस्पर विवाहसम्बन्ध जारी कर दिया जाय । २ गोत्र या साँखें टालनेके नियम ढीले कर दिये जायँ । ३ पतित स्त्री-पुरुष प्रायश्चित्त देकर फिर जातिमें मिला लिये जायँ । ४ विवाहोंका खर्च घटाया जाय और खर्चके नियम इतने सुगम कर दिये जायँ कि गरीब से गरीब वर कन्याका विवाह बिना कठिनाईके हो जाय । ५ स्त्रीके समान पुरुषको भी पुनर्विवाह करनेकी मनाई कर दी जाय। कमसे कम यह नियम तो जरूर कर दिया जाय कि जिनके पहले विवाहसे कुछ सन्तान हो वह पुनर्विवाह न कर सके अथवा ३५ या ४० वर्षकी उम्र हो जाने पर कोई भी पुरुष दूसरा विवाह न कर सके । ६ प्रत्येक पंचायत इस बातका ध्यान रक्खे कि हमारी . जातिमें कोई युवक कुँवारा तो नहीं है । यदि हो तो उसके विवाहका For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ . जैनहितेषी प्रबन्ध करा दिया जाय और यदि उसको जैनजातिमें लडकी न मिलती हो तो जैनेतर ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य वर्णोकी भी लड़की लेनेमें कोई रुकावट न डाली जाय । ७ विवाहकी उम्र बढ़ा दी जाय । २०१६ के पहले किसी वर कन्याका विवाह न हो सके। इससे अल्पायु और दुर्बल सन्तान कम होने लगेगी जो कि जातिके क्षयका एक कारण है । ८ गर्भरक्षा, सन्तानपालनपोषण, आरोग्यताके नियम आदि बातोंकी शिक्षाका खास तौरसे प्रचार किया जाय जिससे अकालमरण कम हो जावें और पुष्ट सन्तानोंकी वृद्धि हो। ९ भाग्यवादकी जगह पुरुषार्थवादकी शिक्षाका विस्तार किया जाय जिससे लोग प्लेग हैजा आदि बीमारियोंके समय अपनी रक्षा करनेमें विशेष सावधान हो जायँ । १० शारीरिक . श्रमका महत्त्व बढ़ाया जाय जिससे लोग परिश्रम करनेको बेइज्जतीका काम न समझें और फिजूलखर्ची तथा विलाससामग्रियोंकी वृद्धि रोकी जाय । इत्यादि उपायोंसे हमारा क्षय होना बन्द हो सकता है और दूसरोंके समान हमारी संख्या भी बढ़ सकती है। . ६ डाक्टर टी. के. लद्का व्याख्यान । गत दिसम्बरकी छुट्टियोंमें स्याद्वादमहाविद्यालय काशीका वार्षिकोत्सव हो गया । अबकी बार क्वीन्सकालेज बनारसके संस्कृत प्रोफेसर डा० तुकाराम कृष्ण लद् बी. ए. ( केन्टब ), पी. एच. डी. ने सभापतिका आसन स्वीकार किया था । आपने इस अवसर पर संस्कृत और अँगरेज़ीमें दो सुन्दर व्याख्यान दिये । यह एक बहुत For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १४३ अच्छी बात है कि हम अपनी संस्थाओंमें अजैनविद्वानोंको बुलाने लगे हैं और अपने धर्मसाहित्यादिके विषयमें उनके विचार सुनने लगे हैं। एक दृष्टि से यह पद्धति बहुत लाभदायक है। इससे जैन. धर्मके विषयमें सर्व साधारण जनोंमें जो भ्रमपूर्ण विचार फैल रहे हैं, वे दूर होते हैं, जैनधर्मके प्रति उनकी सहानुभूति बढ़ती है और उनके साथ हमारा सौहार्द बढ़ता है। इसके सिवाय जैनेतर विद्वानोंमें जैनसाहित्यके अध्ययन मनन करनेका उत्साह भी उत्पन्न होता है । इस पद्धतिसे हम एक लाभ और भी उठा सकते हैं; परन्तु अभी तक हम उसके लिए तैयार नहीं जान पड़ते हैं और इसी लिए हम अपने उत्सवोंमें जिन विद्वानोंको अपना सभापति बनाते हैं उनसे केवल अपने धर्मसाहित्यकी और अपनी प्रशंसा ही सुनना चाहते हैं और सभ्यताके खयालसे या लिहाजसे वे भी हमारी इच्छाके अनुसार ही अपना व्याख्यान सुना जाते हैं । यदि हम कुछ सहनशील हो जावें और ये प्रतिष्ठित विद्वान् अपने व्याख्यानोंमें हमारी कुछ त्रुटियोंकी भी आलोचना किया करें, समयके परिवर्तनसे हमारे धार्मिक विश्वासोंमें जो उलट-पलट हो गया है उसकी चर्चा किया करें और हमारे आलस्य तथा प्रमादके विषयमें दो चार चुटकियाँ ले दिया करें तो उनका हम पर बहुत प्रभाव पड़ सकता है और हम अपनी त्रुटियोंको पूर्ण करनेके लिए सचेत हो सकते हैं। आशा है कि हमारे अगुए इस ओर ध्यान देंगे और इस बातकी कोशिश न करके कि सभापति हमारी इच्छानुसार ही कहें उनसे निष्पक्षभावसे यथार्थ आलोचना करनेकी प्रेरणा किया For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनहितैषी करेंगे । हमारी संस्थाओंमें अब तक अनेक अजैन विद्वानोंके व्याख्यान हो चुके हैं और इसमें सन्देह नहीं कि उनमेंसे कई एक बहुत ही महत्त्वके हुए हैं। परन्तु अभी तक उनमेंसे किसीमें भी हमें ऐसे वाक्य सुननेको नहीं मिले जिनसे. हम अपनी त्रुटियोंसे सावधान हो जायँ । कई व्याख्यानोंमें तो हमको अपनी निरर्थक और अयथार्थ प्रशंसा सुननी पड़ी है जो दूसरों पर हमारा झूठा प्रभाव भले ही डाले, पर हमारे लिए हानिहार ही होगी । हमे अभीसे अपनी प्रशंसा सुननेका व्यसन न डाल लेना चाहिए । गतवर्ष डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण महाशयके व्याख्यानके शेषांशमें जो जैनसंस्थाओंकी और उनके संचालकोंकी प्रशंसा की गई थी, उसे पाठकोंने पढ़ा ही होगा। लद महाशयने भी अपनी व्याख्यानमें यद्यपि उतनी प्रशंसा नहीं की है तो भी की अवश्य है और इसी लिए इस सम्बन्धमें हमें ये पंक्तियाँ लिखनी पड़ी हैं। . प्रो० लदू महाशयके दोनों व्याख्यानोंका अभिप्राय लगभग एक ही है, तो भी संस्कृतकी अपेक्षा अँगरेजी व्याख्यानमें उन्होंने बहुत सी जानने योग्य बातें कही हैं । जैनधर्म बौद्धधर्मसे प्राचीन है इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि “ ई० सन्से कई शताब्दि पहलेके बौद्धग्रन्थोंमें जैनसम्प्रदायका उल्लेख मिलता है; परन्तु उनमें ऐसा कोई कथन कहीं पर नहीं है कि जिससे जैनमतको नवीन मत या हालका मत कहा जाय । यह भी कहीं स्पष्टरूपसे नहीं लिखा कि जैनमत कबसे है । जैनसूत्रोंसे भी जो कि जैकोबीके विचारानुसार उत्तरीय बौद्धोंके प्राचीनसे भी प्राचीन For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १४५ ग्रन्थोंसे कम प्राचीन नहीं हैं-पता लगता है कि महावीर स्वामीके कुछ शिप्य बुद्धदेवके पास उनके मतका खण्डन करनेके लिए गये थे । बौद्ध ग्रन्थों में भी ऐसी घटनाओंका उल्लेख है। इससे मालूम होता है कि जैनधर्म बौद्धधर्मसे प्राचीन है।" आगे चलकर उन्होंने दोनों मतोंकी भिन्नता सिद्ध करते हुए कहा कि “जैनमतके कुछ सिद्धान्त बौद्धधर्मसे बिलकुल विपरीत हैं । स्वयं बुद्धदेवका निर्वाणके विषयमें क्या विश्वास था यह हमें मालूम नहीं । कारण, एक शिप्यके प्रश्न करने पर उन्होंने उसे यों ही टाल दिया था । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि बौद्ध ब्राह्मणोंके समान किसी एक सर्वव्यापी आत्माको नहीं मानते । और तो क्या उनके सिद्धान्तमें म्वयं आत्माके अस्तित्वकी भी आवश्यकता नहीं है । जैनी आत्माको सर्वव्यापी तो नहीं मानते, परन्तु मानते अवश्य हैं। बौद्ध मतमें जो पाँच स्कन्ध तथा उनके भेद प्रभेद माने गये हैं जैनमत उन्हें नहीं मानता । जैनधर्मके माननेवाले केवल जानवरों और पेड़ोंमें ही नहीं किन्तु जल और खानिमे ताजी निकली हुई धातुओंमें भी जीव मानते है। इस बातमें ये हिन्दुओंसे भी बढ़ गये हैं और इसीसे इनके अहिंसाक्षेत्रका विस्तार बहुत बढ़ गया है । जैनोंमें हिन्दुओंके समान आत्मीक उन्नतिके भिन्न भिन्न आश्रम हैं; परन्तु बौद्धमतमें ऐसे कोई आश्रम नहीं है ॥" कुणकके द्वारा श्रेणिकके मारे जानेके विषयमें लद्महाशयने एक नई कल्पना की है। कहा है कि " वैशालीका राजा चेटक महावीर भगवानका मामा था । चेटककी कन्या चेलना मगधनरेश बिम्बिसार या श्रेणिकके साथ ब्याही गई थी। श्रेणिक शेष. For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनहितैषी नाग (शिशुनाग) कुलका राजा था। उसने ई०सन्से ५३० वर्ष पूर्वसे ५०२ वर्ष पूर्वतक राज्य किया । बिम्बिसारका पुत्र अजातशत्रु या कुणिक था । यह कथा प्रसिद्ध है कि बिम्बिसारने अपने पुत्रको राज्यका कार्य सोंपकर एकान्तवास धारण कर लिया था; तथापि उसने पिताको मारकर राज्य पद प्राप्त किया। पीछे उसे पिताके वधका बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह आत्महितके उपदेशके लिए बुद्धदेवके पास गया और उन्होंने उसे अपने धर्मका उपासक बना लिया।.... बिम्बिसार और अजातशत्रुका बौद्ध और जैन दोनों ही धर्मके ग्रन्थोंमें उल्लेख है । जैनशास्त्रोंमें लिखा है और यह सर्च भी मालूम होता है कि महावीरके प्रतिष्ठित वैभवशाली सम्बन्धी जैनधर्मसे प्रेम और सहानुभूति रखते थे। अतः यह संभव है कि चेटक और बिम्बिसार (श्रेणिक ) जैन थे और अजातशत्रु ( कुंणिक ) भी कमसे कम अपने जीवनके पूर्व भागमें जैन था। अपने पिछले जीवनमें जनकवधके शोकसे दुखी होकर बुद्धदेवके उपदेशसे उसने बौद्धधर्म धारण कर लिया था । अब विचारनेकी बात यह है कि जब बिम्बिसारने अपने पुत्रके लिए राज्यकार्य छोड़ दिया था तब अजातशत्रु उसे क्यों मारता? उसको अपने पितासे राज्यके सम्बन्धमें डरनेका कोई कारण ही न था । वास्तवमें अजातशत्रुने इस कारण बौद्धमतको अंगीकार किया कि उसने वैशालीके राज्यको अपने अधिकारमें कर लिया था और वह महावीर जिनके मामाका राज्य था । वैशालीका राज्य लेलेनेपर-जब महावीरका निर्वाण हो चुका था-अजातशत्रु जैनी न रह सका और उसने अपना मत बदल लिया । वैशाली राज्यसे जैनधर्मको For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग | १४७ 1 बहुत सहायता मिलती होगी; परन्तु अजातशत्रुका उस पर अधिकार हो जानेसे वह सहायता बन्द हो गई होगी । इस कारण यह संभव है कि जैनोंने उसके विषयमें पिताके वधकी बात गढ़ ली हो कि जिससे लोगोंको यह मालूम हो कि इस घोर पापके कारण जैनोंने उससे सहायता लेना छोड़ दी है और बौद्धमतके वृद्धिरूप प्रभावको रोकने के लिए प्रसिद्ध कर दिया हो कि बौद्धमतमें पितृवध तक किया जाता है । संभव है कि मेरे इस अनुमानसे प्राचीन इतिहासकी एक ग्रन्थि सुलझ हो जावे " । हमारी समझमें जैनोंपर जो यह अपराध लगाया जाता है कि उन्होंने धर्मद्वेष के कारण अजातशत्रुको पिताका वध करनेवाला बतलाया है, सर्वथा 'असत्य है । क्योंकि जैनकाथाकरोंने तो अजातशत्रुको उलटा पिताके अपराधसे बचाने की चेष्टा की है । उन्होंने लिखा है कि अजातशत्रु श्रेणिकको बन्धमुक्त करनेके लिए जा रहा था कि श्रेणिकने भयभीत होकर स्वयं अपने प्राण दे दिये; पुत्रने उन्हें नहीं मारा ! हाँ, इस बातका उत्तर जैनकथासे नहीं मिलता कि श्रेणिक किस कारण कैद किये गये थे । आगे चलकर श्रवणबेलगुलके उस शिलालेखकी चर्चा की गई है जिसमें प्रभाचन्द्र और भद्रबाहुका उल्लेख है । लद्दूमहाशयने डा० विंसेंट स्मिथके इतिहासके आधारसे कई युक्तियाँ देकर यह सिद्ध किया है कि प्रभाचन्द्र ही चन्द्रगुप्त मौर्य थे; उनका यह जिनदीक्षा लेने के बाद का नाम था । उनके कथनका सार यह है कि शिलालेख में यद्यपि गुरुपरम्परामें पहले एक भद्रबाहुका उल्लेख करके आगे भद्रबाहुका नाम For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनहितैषी फिरसे लिया गया है; परन्तु इससे उन्हें दूसरे भद्रबाहु न समझना चाहिए-वे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही थे । शिलालेख दूसरे भद्रबाहुसे भी ५०० वर्ष बादका है, इस लिए उसमें आचार्य परम्परा बतलानेके लिए भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पीछेके आचार्योंका नाम आना आश्चर्यजनक नहीं है । दूसरे भद्रबाहुके समयमें चन्द्रगुप्त मौर्यका होना असंभव है; पर पहले भद्रबाहु ( अन्तिम श्रुतकेवली ) से उनके समयका मिलान खा सकता है । यद्यपि लेग्वमें प्रभाचन्द्र नाम है, चन्द्रगुप्त नहीं है। परन्तु जिस पर्वत पर यह लेग्न है उमका नाम चन्द्रगिरि है और 'चन्द्रगुप्त-वस्ती' नामका एक प्राचीन मन्दिर और मठ भी है । इसके सिवा मिरंगापट्टममें मातवीं और नवी शताब्दिके कई लेख हैं जिनमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्रक उल्लेख है। इन सब बातोंसे मिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त और प्रभाचन्द्र एक ही थे। अच्छा होता यदि लमहाशय इम विवादग्रस्त प्रश्नको हल करनेके लिए अपनी आग्मे भी कुछ और प्रबल प्रमाण देते और चन्द्रगुप्त मौर्यका जैन होना अच्छी तरह सिद्ध कर देते । इसके आगे व्याख्याताने जैनधर्मके तत्त्वोंकी चर्चा की है; परन्तु उसमें कोई विशेषता नहीं जान पड़ती ! उनका इस विषयका अध्ययन बहुत ही ऊपराऊपरी जान पड़ता है । व्याख्यानके प्रारंभमें इस बातको उन्होंने स्वीकार भी किया है। पर वे आशा दिलाते हैं कि आगे मैं इस विषयकी ओर :विशेष ध्यान दूँगा और इस लिए जैनसमाजकी ओरमे वे धन्यवादके पात्र हैं। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। १४९ ___७. सुमेरचन्द्र जैनबोर्डिंग हाउस, प्रयाग । यह बोर्डिंग हाउस लगभग तीन वर्षसे स्थापित है । स्व० बाबू सुमरेचन्दनीकी धर्मपत्नीने इसे २५ हजारकी रकम देकर स्थापित किया है । इलाहाबाद यू. पी. में शिक्षाका प्रधान केन्द्रस्थल है । वहाँ दूरदूरके विद्यार्थी उच्चश्रेणीकी शिक्षा प्राप्त करनेके लिए आया करते हैं। यदि उनके एकत्र रहनेकी व्यवस्था हो तो बहुत लाभ हो सकते हैं। उनके लिए उच्चश्रेणीकी धार्मिक शिक्षाका पूरा पूरा प्रबन्ध न भी हो सके तो भी अपने साधर्मियों और सजातियोंमें मिल जलकर रहनेसे उनमें जातिप्रेम, धर्मकी सेवाके विचार अनेक तरहसे पुष्ट होते हैं और यह साधारण लाभ नहीं है । यही सोचकर यह बोर्डिंग खोला गया है । इससमय १५ विद्यार्थी कालेजोंकी उच्च श्रेणियोंमें पढ़नेवाले हैं। आगे इससे भी अधिक होनेकी संभावना है। इन विद्यार्थियोंने एक सभा खोल रक्खी है जिसकी कारवाई देखकर जान पड़ता है कि विद्यार्थी उत्साही हैं और वे अपने आगामी जीवनमें जैनममाजकी अच्छी सेवा करेंगे। उनमें धार्मिक और जातीय भाव बढ़ रहे हैं। इस संस्थाकी जो दूसरे वर्षकी रिपोर्ट हमारे पास आई है उससे मालूम होता है कि संस्थामें खर्चकी बहुत संकीर्णता है। पिछले वर्षमें लगभग १२०० ) का खर्च हुआ है जो कि अमदनीसे सौ सवासौ रुपया कम है। आगे इससे भी कम आमदनी हो जायगी; क्यों कि ध्रुवफंडकी रकममेंसे ९ हज़ारकी एक इमारत खरीद ली गई है। जैनसमाजको इस संस्थाकी ओर ध्यान देना चाहिए और इसे एक विशालरूपमें स्थायी कर देना चाहिए जिससे इसमें कमसे For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनहितैषी कम पचास विद्यार्थी निरन्तर निवास करते रहे और दशवीम निर्धन विद्यार्थीको छात्रवृत्तियाँ भी मिलती रहें । सबसे पहले हम श्रीयुत बाबू सुमेरचन्दनीकी धर्मपत्नीका ही ध्यान इस ओर अर्पित करते हैं। हम समझते हैं कि इन दो तीन वर्षों में उन्हें अपनी इम संस्थाके फायदे मालूम होगये होंगे. दुम्म लिए अब उभे स्थायी बना इनमें उन्हें और विलम्ब न करना चाहिए । अन्य धर्मात्मा मजनोंको भी चन्दसे. मासिकवृत्तियोंमे, 'पुस्तकाम. तथा पदन लिखनके और और साधनोंसे संस्थाकी महायता करते रहना नाहिए। ८. श्रीमती गुलावबाईकी राखी । एक राजपूतरमणीने संकटके समय एक अपरिचित राजपूत युवाक पास राखी भेजी थी और उसका फल यह हुआ था कि उस युवाने प्राणोंकी वाजी लगाकर उस रमणीकी रक्षा की थी। श्रीयुत वाव अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. की महमिणी श्रीमती गुलावबाइने भी इस बार संकटके समयमें अपने जनभाइयोंक पाम गवी भनी है और आशा की है कि वे उनकी सहायता करेंगे: उनके प्राणपतिको विपत्तिम मुक्त करनेके लिए कोई प्रयत्न वाकी न रकग्नग । गखाक माथ जो पत्र है उसे पढ़कर रुलाई आती है और हमें विश्वास नहीं कि उसे सुनकर किमी महृदयकी ऑग्वोंमें दोनार ऑम आये बिना रह जातंग । अब देखना यह है कि अपनेको राजपूतांकी सन्तान बतलानेवाली दयापरायण जैनजाति इस राखीकी पत कहाँतक रग्बती है और अपने समाज के एक सेवकके छोटे छोटे बच्चों और स्त्रीके प्रति उसकी महानुभूतिका स्रोत कुछ काम कर सकता है या नहीं । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुरराज्य, अँगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला। १५१ ९. सहायता कीजिए। जैनमित्रके सम्पादक श्रीयुत ब्र० शीतलप्रसादजीने सेठीजीके कुटुम्बकी सहायताके लिए और दूसरे प्रयत्न करनेके लिए एक फण्ड खोला है। हम अपने पाठकोंसे निवेदन करते हैं कि वे अपनी शक्तिके अनुसार कुछ न कुछ सहायता इस फण्डमें अवश्य दें और अपने मित्रबन्धुओंसे भी दिलवावें । रुपया जैनमित्र आफिस, गिरगाँव-बम्बईके पतेसे या काशीके पतेसे भेजना चाहिए। . जयपुरराज्य, अँगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला। पा चोरा ( खानदेश ) में सेठ बच्छराज रूपच - न्दजी एक उदार धनिक हैं । आप स्थानक Maha_ वासी जैन हैं । आपने पाचोरामें जैन और अजैन सबके पढ़नेके लिए एक स्कूल बनवाया है । ता० ७ दिसम्बरको पूर्वखानदेशके कलेक्टर ओटो रोथफील्ड साहबके हाथसे यह स्कूल खुलवाया गया। उस समय आसपासके बहुतसे जैन अजैन सज्जन आमंत्रित होकर आये थे । साहब बहादुरने द्वारोद्धाटन करते समय सेठ बच्छराजजीको उनकी इस उचित: दानशीलताके उपल For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनहितैषी क्ष्यमें धन्यवाद दिया और जैन जातिके सम्बन्धमें बहुत ही अच्छे शब्द कहे । उन्होंने कहा कि “जैन जाति दयाके विषयमें विशेष रूपसे प्रसिद्ध है और दयाके कार्योंमें वह हजारों रुपया वर्च करती है। जैनोंकी मुखकी रचनामे और उनके नामोंमे जान पड़ता है कि वे पहले क्षत्रिय थे । जैन बहुत ही शान्तिप्रिय हैं ! " जैनोंके लिए यह बहुत ही सन्तोषका विषय है कि उनके विषयमें एक प्रतिष्ठित यूरोपियन अफसरके मुँहमे इतने अच्छे शब्द निकले । परन्तु इन शब्दोंके जाननेकी जैनोंको उतनी जरूरत नहीं है जितनी कि देशी राज्योंको है । कुछ समय पहले जामनगर राज्यने अपनी प्रजाके एक धनवान् किन्तु निर्दोष जैनको कैट करके उसकी सारी सम्पत्ति जब्त करली थी और उसे बहुत ही कष्ट दिया था । अन्तमें सार्वजनिक पुकार सुनकर ब्रिटिश सरकारने उस पर दया की और उसे मुक्त कराया । इसी तरहकी एक विपत्ति जयपुर राज्यमें भी एक जैनभाई पर आपड़ी है । म्वार्थत्यागी और सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. अर्जुनलालजी मेठी बी. ए. को जयपुर राज्यने भी बिना किमी अपराधके हवालातमें रख छोड़ा है और जैसा कि सुना गया है राज्यने पाँच वर्ष तक इसी तरह कैदमें मडाते रहनेका भी निश्चय कर लिया है। ___ मि० ओटो रोथफील्ड जैसे ब्रिटिश अफसरोंका यह कहना बिलकुल सत्य है कि " जैन बहुत ही शान्तिप्रिय हैं। " लार्ड कर्जनने भी यही कहा था और मिसिस एनीविसेंटने अभी कुछ ही दिन पहले अपने ' कोमन विल ' पत्रमें जैन जातिकी राजनिष्ठा और For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुरराज्य, अँगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला। १५३ शान्तिप्रियताका उल्लेख करके अर्जुनलालजी जैसे सुशिक्षित जैन राजद्रोह करेंगे यह माननेसे साफ इंकार किया है । परन्तु जैनोंको जो यह ब्रिटिश सर्टिफिकेट मिला है, सो शहदसे लपटा हुआ है। सच बात तो यह है कि जैनजाति बहुत ही निर्बल निरीह और नाचीज़ है। वह मि० रोथफील्डके बतलाये हुए असली क्षत्रियत्वको खो बैठी है और बहुत ही पोच कमजोर बन गई है। यदि ऐसा न होता तो ऐसी शान्त निरपराध और साहूकार प्रजा पर इस प्रकारका अत्याचार या जुल्म कभी न हो सकता । सब जगह दुबले ही सताये जाते हैं ! नरम पिलपिली चीजमें सभी कोई उंगली घूसना चाहता है । ईद बकरीकी ही होती है, बाघकी ईद कहीं भी सुनाई नहीं दी। जैन यदि मिल रोथफील्डके कथनानुसार वास्तवमें क्षत्रिय होते तो अपनी सारी जातिको और धर्मको कलंक लगानेवाले इस जुल्मको वे कभी सहन न करते और इन दश महिनोंमें कोई न कोई उचित उपचार किये बिना न रहते । अभी अभी कुछ सज्जनोंने श्रीयुत अर्जुनलालजीके छुटकारेके लिए जयपुर राज्यको प्रार्थनापत्र भेजना शुरू किये हैं; परन्तु इस तरहकी भिक्षाओंसे हो क्या सकता है ? जो राज्य निरपराधी नागरिकोंको किसी प्रकारका दोष सिद्ध हुए बिना ही जेलमें लूंस दिया करते हैं, जिनमें वम. इतना ही प्रजाप्रेम है-इतना ही स्वदेश प्रेम है-अपने राज्यके सारे भारतवर्षमें आदत और पूजित होनेवाले हीराओंके प्रति इसी प्रकारका अभिमान है, वे राज्य क्या इस योग्य हो सकते हैं कि उनसे प्रार्थना की जाय या उनके आगे For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनहितैषी हाहा खाई जाय ? प्रार्थनाकी यथार्थता और प्रार्थियोंके हृदयकी पीड़ा समझनेकी योग्यता रखनेवाले मस्तक और हृदयोंकी क्या उनमें संभावना हो सकती है ? मि० रोथफील्ड, आप जैनोंके नामों परमे भले ही उन्हें क्षत्रिय ठहराइए; परन्तु उनके मुंहपरमे तो उन्हें-मैं स्वयं जैन हूँ तो भी-क्षत्रिय नहीं मान सकता। जिनके मुँह पर क्षत्रियके लक्षण हों उनके हृदयमें क्या क्षत्रियोंके शौर्य और म्वदेशप्रेमका अभाव हो सकता है ? अफसोस कि अँगरेज तो हमें क्षत्रिय बनाना चाहते हैं; परन्तु हम स्वयं — दास' ही बने रहने वश है-हम अपने नामोंके साथ · दास' पढ़को जोड़ने भी लगे हैं । रोथफील्ड साहबके इन क्षत्रियोंके हाथमें प्रार्थना करने या हाहा खानेकी तरवार और ग्लशामदकी ढाल, बस ये दो ही तो हथियार रह गये हैं। इन क्षत्रियोंकी यदि जयपुर राज्य कुछ सुनाई न करेगा तो फिर बहुत हुआ तो ये ब्रिटिश सरकारके पास पुकार मचानेका-विनती करनेका हथियार उठानेकी बहादुरी दिखलावेंगे । भला, यह हमारे कितने दुर्भाग्यकी बात है कि हमें देशी राजाओंके दुःखोंके मारे विदेशी गजाकी शरण लेनी पड़ती है । संभव है कि राजनीतिकी कोई कलम ऐसी निकल आवे जिससे ब्रिटिशसरकार भी एक देशीराज्यके इस काममें हस्तक्षेप करनेसे इंकार कर देवे । ऐसी दशामें भी हमें आशा नहीं है कि इस विषयमें जैनजातिके अगुए शान्ति, सत्य, राजनिष्ठा और धर्मानुकूल रीतिसे भी कोई उपाय करनेके लिए एकटा होंगे। मि० गांधीन जो निष्क्रिय प्रतिरोध या शान्तविरोध ( Passine Resistence ) का शस्त्र दक्षिण आफ्रिकामें उठाया था वह अथवा उससे मिलता हुआ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुरराज्य, अँगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला । १५५ दूसरा कोई हथियार भी ये रोथफील्डके क्षत्रिय नहीं उठा सकते । तब क्या करना चाहिए ? क्या विनतियाँ या प्रार्थनायें न की जावें ? नहीं, बिलकुल नहीं । क्या हम देखते नहीं हैं कि इस तरहके सैकड़ों भिखारी रोटीके टुकड़ोंके लिए प्रार्थना करते करते थक कर मर चुके हैं ? शासनके मदके साथ दयाका रहना बहुत ही कठिन है । और भीख माँगी ही क्यों जावे और किससे माँगी जावे ? क्या देशके एक देशी राजाके विरुद्ध विदेशी राजासे ? क्या यह माँगी हुई भीख मिल जावेगी ? मिलना असंभव नहीं है; तथापि मेरी समझमें ऐसी भिक्षा माँगनेकी अपेक्षा एक स्वदेशी नागरिककी चिता जो एक स्वदेशी राजाने चेताई है और जिसकी धधकती हुई ज्वालाको उसके स्वधर्मी भाई तमाशगीर बनकर मजेसे देख रहे हैं, उस चितामें चुपचाप जल जाना ही एक क्षत्रिय जैन स्वयंसेवकके लिए अधिक शोभास्पद होगा । याद रखना चाहिए कि इस चिताकी भस्म पर भविष्यके देशभक्त युवक स्मरणस्तंभ खड़ा करेंगे और उसमें निम्नलिखित लेख लिखेंगे: जयपुरनिवासी, क्षत्रियवंशी जैनस्वयंसेवक श्रीयुत अर्जुनलालजी सेठीने अपने उच्चतम धर्म और प्रियतम देशकी गौरवरक्षार्थ दयाकी भिक्षा नहीं माँगकर, (अपूर्व स्वार्थत्यागकर ) कृतघ्न और कर्तव्यहीन जैनोंको रुलांकर जागृत करने के लिए For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनहितैषी और स्वदेशाभिमान, स्वप्रजापालन और राजकर्तव्यका । अपने राजाको ज्ञान करानेके लिए इस स्थल पर साहसपूर्वक आत्मोत्सर्ग किया है, इस अन्तिम प्रार्थनाके साथ कि मेरी भस्ममेंसे देश और धर्मका गौरव बढानेवाले अनेक सच्चे क्षत्रिय जैनपुत्र उत्पन्न हों! . * इतना लिखे जानेके बाद मालूम हुआ कि जयपुर राज्यने ता० ५ दिसम्बरको यह आज्ञा निकाली है कि “ अर्जुनलालजी सेठीका राजनीतिक षड्यंत्रोंसे निकट सम्बन्ध है और उसका यह आचरण राज्यनियमके विरुद्ध है । ऐसे पुरुषको स्वतंत्र रखना भयंकर है, इस लिए पाँच वर्ष तक या जबतक दूसरा हुक्म न निकले तबतक वह हिरासतमें रक्खा जाय ।” पाठकोंको मालूम होगा कि आरा महन्तकेस और दिल्ली षड्यंत्र केसमें पं० अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. सन्देहके कारण पकड़े गये थे; परन्तु नियमानुकूल जाँच पड़ताल करनेसे उन पर कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ । ऐसे भयंकर अपराधका ज़रा भी सुबूत मिलता तो ब्रिटिश सरकार उन्हें कठिनसे कठिन दण्ड दिये बिना नहीं रहती और ऐसा होना ही चाहिए; परन्तु जब ब्रिटिश सरकार पूरी पूरी छानबीन कर For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुरराज्य, अंगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला। १५७ चकनके अन्तम उन्हें दोषी या दण्डपात्र कहनेसे इंकार करती है तब मालूम नहीं होता कि जयपुर राज्यने आठ महीनेसे बिना अपराध प्रमाणित किय किम आधारसे हिरासतम डाल रक्खा है। क्या ब्रिटिश गज्यक अधिकारी और सरकारी वकील अपराध समझनकी या दण्ड देनेकी शक्ति नहीं रखते हैं निमम जयपुर राज्यको ब्रिटिश राज्यकी रक्षाके लिए यह कष्ट उटानकी आवश्यकता आ पड़ी है ? क्या जयपर स्टेट यह सिद्ध करना चाहता है कि ब्रिटिश राज्य एक देशी गायकी मदद के बिना अपनी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है ? और यदि अनुनलालजी मनमुच ही अपराधी है तो फिर उनके ऊपर बलमवल्ला मुकदमा चलाकर सजा दनम क्यों आनाकानी की जाती है ? क्या राजद्रोहीको सिर्फ नजरकैदमें रखनेकी ही मजा काफी है ? सिर्फ एक सन्देह या वहमसे किसी गरीब प्रजाको किना अपराध सिद्ध किय महीनों नजरकैद ग्वना और फिर पांच वर्ष नक कदमें रखनका आनाई डलना. इसके लिए क्या किसी अंगरेजी या दशा कानुनका आधार है : यह भी मालूम हुआ कि अभी कुछ ही दिन पहले देवदर्शन बन्द कर देनेके कारण सेठीनीने १-१२ दिन तक अन्नपानीका म्पर्श नहीं किया था। इसमे जयपुर राज्य और वायसराय माहवकी सेवामें जैनोंकी ओरमे क्षमायाचनाके लिए बीमा तार भेजे गये थे। परन्तु मेरी समझमें राजद्रोहका सन्देह होने पर भले ही वह झूठा ही क्यों न हो--इयाकी याचना कदापि ठीक नहीं हो सकती । दया नहीं, हम केवल न्याय चाहते हैं और हमारी यह मँगनी भिक्षा नहीं For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनहितैषीwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm किन्तु फर्याद है । यदि कोई जैन किसी और कारणसे फाँसी पर लटकाया दिया जाता तो हम लोग उसके लिए इस तरह की मँगनी न करते; परन्तु जब एक जैन–सुशिक्षित जैन ग्रेज्युएट पर राजद्रोहका सन्देह प्रकट किया जा रहा है और इससे सारी जैनजाति पर-जिसमें आज तक कभी किसी प्रकारके राजद्रोहकी घटना नहीं हुई है, जिसको बड़े बड़े ब्रिटिश अधिकारी शान्तसे शान्त राजभक्त प्रजा बतलाते हैं और जिस जातिमें सारी दुनियाकी सारी जातियोंकी अपेक्षा छोटेसे छोटे अपराध भी बहुत ही कम होते हैंएक भयंकर कलंक लगाया जा रहा है, तब यह पुकार उठानी पड़ी है और कहना पड़ा है कि या तो अर्जुनलालजी सेठी पर नियमानुसार राजद्रोहका अपराध प्रमाणित करके उन्हें कठिन दण्ड दो. या दयाके लिए नहीं किन्तु देशके गौरवके लिए, न्यायके लिए, प्रजापालनके ऊँचे धर्मकी रक्षाके लिए उन्हें निर्दोष प्रकट करके शीघ्र छोड़ दो। __ राजद्रोह ? जयपुरमें राजद्रोहः? बिलकुल झूठ ! सर्वथा असंभव ! ब्रिटिश शासनके असाधारण राजनिष्ठ जयपुर राज्यमें राजद्रोहियोंके रहने या जन्म लेनेकी बात कहना एक तरहसे जयपुर राज्यका अपमान या ' लाइबल' करना है । यूरोपमें लड़ाईका प्रारंभ होते ही जो मारवाड़ी ढूँढारी जैन अपने अपने गाँवोंको नौ दो ग्यारह हो गये थे, उस डरपोक जातिके जैनबालकोंमें-और सो भी उसमें, जिसकी अँगरेजी विद्याके जीतोड़ परिश्रमसे शारीरिक सम्पत्ति बिलकुल लुट गई है-खून और राजद्रोह करनेकी शक्तिकी क्या कभी For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुरराज्य, अँगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला। १५९ NAVvvvvvvvvvvvvv संभावना हो सकती है ? यह हवाई खयाल-यह बहमका भूत जैनजातिकी चिरकालकी कीर्तिको मैली कर देगा और इस बिलकुल असत्य तथा हानिकारक भ्रमको स्थान देगा कि जयपुर राज्यमें भी ब्रिटिश-शासनके विरुद्ध विचारोंको पोषण मिलता होगा। इसी लिए हम चाहते हैं कि इस प्रश्न पर गंभीरतासे विचार किया जाय और उस मार्गको अंगीकार करनेकी दूरंदेशी दिखलाई जाय जिससे कि राज्य और जैनप्रजा दोनोंका विशेष हित हो । __ हिरासतमें देवदर्शनकी रुकावट ! और सो भी हिन्दराज्यमें ! हिन्दमाता, अब तुझे भविष्यके सुखकी झूठी आशायें देकर अपने सन्तानोंको व्यर्थ ही भुलाये रखनेकी चेष्टा न करनी चाहिए । जिस दुर्भाग्यसे आर्यभूमिके पैरोंमें मुगल आदि राजाओंकी बेड़ी पड़ी थी उसकी अपेक्षा यह दुर्भाग्य बहुत ही दुःखदायक है कि आर्यधमरक्षक राजाओंकी धर्मभावना पर जड़वादियोंका इतना गहरा प्रभाव पड़ गया ! इस दुःखको महनेकी अपेक्षा तो यही अच्छा है कि हिन्दका विलकुल ही अन्त हो जाय । मेरा विश्वास है कि धर्मभावनाकी सबसे अधिक आवश्यकता अपराधियोंके लिए-जेलके कैदियोंके लिए है और सभ्य देशोंकी जेलों में तो धर्मोपदेशका खास प्रबन्ध रहता है-कैदियोंको धर्मग्रन्थ भी बाँचनेके लिए दिये जाते हैं कि जिससे उनमें नीति और धर्मके भाव उत्पन्न होकर बढ़ते रहें। जो हिन्दूराज्य स्वयं मूर्तिपूजक है और जो सैकड़ों देवमन्दिरोंके खर्चके लिए राजभंडारसे हजारों रुपया प्रतिवर्ष देता है, वह मालूम नहीं किस धर्मदृष्टिसे जिनदेवके दर्शन करनेकी अपने एक कैदीको For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० 'जैनहितैषी - मनाई करता है । क्या जयपुर राज्यको यह भय है कि छोटेसे छोटे जीवकी रक्षाका उपदेश देनेवाले और कानोंमें कीले ठोकनेवाले शत्रुको तथा अत्यन्त दुःखप्रद डंक मारनेवाले साँपको भी क्षमा कर देनेवाले जिनदेवकी मूर्तिके दर्शनसे एक कैदीको खून या राजद्रोह करनेकी उत्तेजना मिलेगी ? यह बात निःसन्देह होकर कही जा सकती है कि किसी भी दयासागर और शान्तदेवकी मूर्ति मनुष्यको कोई बुरा काम करने में प्रवृत्त या उत्तेजित नहीं कर सकती । तब क्या एक हिन्दूराज्यके लिए हिन्दुओंके धर्मव्रत - देवदर्शन के नियमको जबर्दस्ती बन्द कराना उचित हो सकता है ? किसी मनुष्यने चाहे जितना बड़ा अपराध किया हो; परन्तु उसे उसके धर्मसे भ्रष्ट करनेकी किसी भी सरकारको सत्ता नहीं है । अपराधीको शारीरिक कष्ट पहुँचाने के लिए कड़ेसे कड़े नियम बनाये गये हैं; मरन्तु उसके धर्ममें अन्तराय डालने की सत्ता आज तक किसी परमेश्वरने, देवने या प्रजाने किसी भी राजाको नहीं दी है । अलाहाबाद के ' लीडर' में सेठीजीके सम्बन्ध में 'जस्टिस' नामधारी महाशयने जो लेख छपवाया है वह प्रायः सभी प्रसिद्ध पत्रोंमें प्रकाशित हो चुका है । उसमें ब्रिटिश सरकारसे सेठीजीके विषयमें बीसों प्रश्न किये गये हैं जिन सबका सारांश यह है कि किसी प्रकारका अपराध सिद्ध न होने पर जयपुर राज्यके द्वारा उनको व्यर्थ कष्ट क्यों दिलाया जा रहा है ? जस्टिसके प्रश्नोंसे अदूरदर्शी लोग इस तरहका अनुमान करने लगते हैं कि सेठीजीको कैद रखनेके लिए ब्रिटिश सरकारने ही शायद कुछ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुरराज्य, अँगरेज़ सरकार और सेठीजीका मामला । १६१ युक्ति की होगी; परन्तु राजभक्त भारतवासियोंको अपने मस्तकमें इस तरहके अनुमानको क्षण भरके लिए भी न टिकने देना चाहिए । जो अंगरेजी सरकार बेल्जियम सरीखे गैर देशकी रक्षा के लिए अपने लाखों मनुष्योंको कटा डालनेकी उदारता और न्यायप्रियता प्रकट करती है वह अपनी निरीह प्रजाके एक मनुष्यको अपराधकी जाँच किये बिना ही हिरासत में रक्खेगी, रखवावेगी या कोई चाल चलेगी, इस बात पर जरा भी विश्वास नहीं किया जा सकता । यदि थोड़ी देरके लिए यह बात मान भी ली जाय, तो भी जयपुर राज्य इस मामले में निर्दोष सिद्ध नहीं हो सकता । जयपुर राज्यने अपने हृदय से विरुद्ध - किसी के कहने मात्र से एक अपनी ही निर्दोष प्रजाको बन्धनमें डाल रक्खा है, इससे क्या इस इतने बड़े पहली श्रेणीके देशी राज्यके चरित्रबलकी कमीका प्रमाण नहीं मिलता है ? और देवदर्शनकी मनाई भी क्या अँगरेज़ अफसरोंकी आज्ञासे हुई होगी ? क्या इस तरहकी ज़रा ज़रासी बातोंके हुक्म भी उसी तरफसे आते होंगे ! इससे साफ समझमें आता है कि इस बेक़ानूनी दयारहित मामलेका सारा उत्तरदायित्व जयपुरराज्यके ही सिर पर है । बेचारे देशी राज्य इतना भी नहीं जानते हैं। कि राजभक्तिका इस तरहका अमर्यादित स्वाँग बनानेकी तैयारी में हम अपने राज्य में राजद्रोहका अस्तित्व सिद्ध कर डालनेकी बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और साथ ही अपनी प्रजाके हृदय में अरुचि उत्पन्न कराके अपना ही अहित कर रहे हैं । चाहे जो हो, पर समझदार भारतवासियोंको तो भारतके एक देशी 1 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनहितैषी - राजाके विरुद्ध, विदेशी सरकारसे उचित सहायता माँगनेकी भी कोशिश न करना चाहिए । जब बाढ ही खेतको खाने लगी तब न्यायकी प्रार्थना करनेके लिए बाहर किसके पास दौड़ा जाय ! तब और क्या उपाय किया जाय ? कुछ नहीं, सहना - सहना और स्वदेशी राजाओंकी इस प्रकारकी बुद्धिके लिए आँसू बहाना, बस यही एक अच्छा मार्ग है । संभव है कि इन स्वदेशाभिमानी आँसु - ओंके प्रवाहसे देशी राजाओंके हृदय धुलकर निर्मल बन जायें और विदेशी सरकारका भी इस मामले से भारतवासियोंकी राजभक्तिके विषयमें विशेष ऊँचा खयाल हो जावे । माननयि वायसराय साहबके पास सैकड़ों अर्जियाँ कभीकी पहुँच चुकी हैं; तो भी अब तक उनका कोई फल नहीं हुआ है । कानपुरके मसजिदसम्बन्धी दंगे में हमारे इस प्रजाप्रिय अफसरने स्वयं बीच में पड़कर सैकड़ों मुसलमानोंको छोड़ दिया था । यह सच है कि जैनजाति एक रोवनी, साहसहीन और निरीह जाति है, इस लिए इससे किसी प्रकारका मय नहीं है, तथापि यह भी एक भारतवासी प्रजा है, केवल इसी नाते से इसकी प्रार्थनाओं पर ध्यान देनेमें किसी तरहकी ढील न होना चाहिए। ऐसी शान्त और राजभक्त जाति पर राजद्रोहका कलंक लग जाना जिस तरह जैन जातिके लिए बुरा है उसी तरह प्रजाप्रिय सरकारके लिए भी अहितकारक है । यह एक सामान्य नियम है कि चोरी नहीं करनेवालेको यदि लोग चोर समझकर चोर कहने लगें, तो वह कुछ दिनोंमें अपना ' अचौर्य' का अभिमान . भूलकर चोरी करनेमें प्रवृत्त हो जायगा । जिस तरह वह चोरी नहीं For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुकमानका कौल। १६३ करनेवाला जबर्दस्ती चोर बनाया जाता है उसी तरह एक राजभक्त शान्त जाति पर राजद्रोहका झूठा दोष मढ़ दिया जायगा तो इस जातिमें भी यह छूतकी बीमारी फैल जानेका बड़ा भारी भय है। क्योंकि यह एक स्वाभाविक परिणाम है। वर्तमान युद्धको देखते हुए विचारशील सरकारको चाहिए कि वह बहमों और शंकाओं पर रची जानेवाली भयंकर इमारतोंको इशारा मिलते ही–पता पाते ही गिरा दे और हर तरहसे प्रजाके सम्पूर्ण अंगोंको अपने पूर्ण विश्वास और प्यारमें रखनेका यत्न करे । जैनजाति प्रार्थना करे या न करे, जब सार्वजनिक पत्रोंने इस विषयमें आवाज़ उठाई है तब उसी आवाज़ परसे ही प्रजाप्रिय वायसरायको इस मामलेमें आगे बढ़कर प्रजाके असन्तोषको शान्त कर देना चाहिए । जहाँ तक हम जानते हैं इस तरहके मामलोंमें माननीय वायसरायका दयाभाव, अनुभव और राजनीतिपाटव बहुत ही बढ़ा चढ़ा है। बम्बई, ... ता. २६-१-१५] बाडीलाल मोतीलाल शाह। लुकमानका कौल। (कुत्ता घृणित क्यों समझा जाता है ? ) १-किसीने यह लुकमानसे जाके पूछा । ज़रा इसका मतलब तो समझाइएगा ॥ २-ज़मानेमें कुत्तेको सब जानते हैं। 'वफादार' भी उसको सब मानते हैं । For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनहितैषी ३-यह करता है जो अपने मालिक पै कुरबों।.. खिलौना है बच्चोंका घरका निगहबां ॥ ४-भरा है वह खूने-मुहब्बत रगोंमें । सगोंमें न देखा जो देखा संगोंमें ॥ ५-जेहांमें है मशहूर इसकी भलाई । मगर नाममें है क्या इसके बुराई ? ६-किसी आदमीको कहें हम जो कुत्ता। तो मुंह पर वहीं दे पलट कर तमाचा ॥ ७-पड़े मार खाकर भी वह दुम दबाना । कि दुर्शवार होजाय पीछा छुड़ाना ॥ ८-कहा उससे 'लुकमान' ने बात यह है। . खुली बात है कुछ मुइँम्मा नहीं है । ९-यह माना, है बेशक वफ़ादार कुत्ता। बड़ा जांनिसार और गमवार कुत्ता ॥ १०-मगर किससे है उसकी यह खरख्वाही । ___यह टुकड़ों पै है सबके घरका सिपाही ॥ ११-फ़कत आदमी पर है सब जांनिसारी । मगर क़ौमकी कौम दुश्मन है सारी ॥ १२-यह रखता है दिलमें मुहब्बत पराई । खटकते हैं इसकी निगाहोंमें भाई ॥ . १ प्राण । २ बलि । ३ रखवाला । ४ कुत्तोंमें ।' ५ जहानमें-दुनियामें । ६ कठिन । ७ गूढ़बात। ८ प्राणन्योछावर करनेवाली । ९ क्षमावान् । For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान और शीलका रहस्य । १३-नज़र आए उसको अगर गैर कुत्ता। तो फिर देखिये उसका त्यौरी बदलना ॥ १४-बुरा क्यों न मानेंगे अहले-हमैय्यत । कि गैरोंसे उलफत सगोंसे अदावत ॥ १५-न जिसने कभी कौमको कौम जाना । कहे क्यों न 'मरदूद' उसको ज़माना ।। (आर्य-गजटसे) दान और शीलका रहस्य । p . ..Ol । ODE दान । नुष्यको पैदा होते ही सहायता-दया-दानकी आवश्यकता होती है । उसे प्रकृति प्रकाश और हवासे सहायता देती है. माता दूधका दान देती है, पिता वस्त्रादिकी आवश्यकता पूरी करके दया दिखाता है और कुटुम्बीजन बोलना चलना सिखाते हैं। सहायतादया-दान विना आदमी कदापि जीवित नहीं रह सकता । जिन जीवनोपयोगी पदार्थोंको हम दूसरोंसे लेकर जीवित रहते हैं, वे पदार्थ दूसरोंको न देकर जीवित रहना क्या मनुष्यत्व कहा जा सकता है ? जो मनुष्य दूसरोंकी सहायताके विना क्षणभर जीवित नहीं १ स्वात्माभिमानी । २ प्रेम। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनहितैषी - रह सकता वह यदि दूसरोंके प्रति उदारता न दिखाकर अपनी इंद्रियोंकी तृप्तिमें ही मस्त रहे तो क्या उसका यह कार्य असह्य नहीं होगा ? क्या यह कम पापन है ? मनुष्यताका सबसे प्रथम यदि कोई लक्षण हो सकता है, धर्मका सर्वोत्कृष्ट मूल सिद्धान्त यदि कोई माना जा सकता है, तो वह 'दान' या आचरणमें लाई गई 'दया' अथवा व्यवहारमें लाई गई ' सहृदयता' ही है । यह बात डंकेकी चोट कही जा सकती है कि जहाँ ऐसी सहृदयता नहीं, जहाँ ऐसी आर्द्रता नहीं, जहाँ दान नहीं, जहाँ हृदयका औदार्य नहीं, वहाँ धर्मका अंश भी नहीं, – मनुष्यत्वका नाम मात्र भी नहीं । यदि कोई व्यक्ति किसी भी धर्मकी कठिनसे कठिन क्रियाओंको चौबीसों घंटे सौ वर्ष पर्यंत करता रहा हो; परन्तु सहाय - दया दान के तत्त्वों से विमुख रहा हो तो उसकी मनुष्य या महात्मा के नामसे पहचाने जानेवाली आकृतिको हम सिवाय पशुके और कोई नाम नहीं दे सकते । क्योंकि जहाँ नींव ही नहीं है, वहाँ मकानकी क्या चर्चा ? जहाँ केवल स्वार्थहीकी संकुचित सीमा लोहेकी साँकलोंसे दृढ़ताके साथ रक्षित हो, वहाँ अमर्यादित देवका निवास किस प्रकार हो सकता है ? जहाँ निरंतर पाशव वृत्तियोंका स्मरण किया जाता है, वहाँ देवकी आकृति कैसे प्रकट हो सकती है ? गरज यह है कि जहाँ आर्द्रता–दया—सहानुभूति–सहायता करनेकी उमँग - दान देनेका उल्लास-नहीं, वहाँ धर्म या मनुष्यत्वका होना सर्वथा असम्भव है । जो दान या दया, इज्जतके लिए, बड़प्पनके लिए, बदलेके लिए या स्पर्द्धासे की जाती है, उसे आत्मिक या वास्तविक धर्ममें कोई For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान और शीलका रहस्य । १६७ स्थान नहीं मिल सकता । अर्थात् न वह सच्चा दान है और न सच्ची दया है। धर्ममें-आत्मामें-मनुप्यत्वमें केवल तुम्हारे ही आशयकी तुम्हारे परिणामोंकी कीमत है; बाह्यरूप, दिखावा या कृत्योंकी नहीं । हृदयको ही मनुष्य कह सकते है, शरीरको नहीं । शरीर तो केवल हृदयकी आज्ञाओंका पालन करनेवाला यंत्र है । अतः मनुप्यके कृत्योंकी परीक्षा उसके हृदयगत भावोंके या परिणामांक आधारसे ही होती है और हृदय ही शुद्धाशयपूर्वक किये हुए शुभकाकी कसरतसे धीरे धीरे अधिकाधिक विकसित होता हुआ अन्तमें अमर्यादित बन जाता है तथा आत्माको देवगति या सिद्धगति प्राप्त करा देता है । यदि किसी सभामें एक "मनुप्यको बड़ा बनाकर उसको खूब चढाया जाय-तारीफें की जायँ और वह दशलाख रुपये किसी कार्यमें दे दे, तो इससे यह न समझना चाहिए कि उसने दया की है. दान किया है या आर्द्रता दिखाई है। इससे उसका हृदय विकसित नहीं होगा; उसका आत्मा प्रफुल्लित नहीं होगा। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका किया हुआ दान निरुपयोगी है; क्योंकि जिन लोगोंका वह किसी न किसी समयम ऋणी बना था, उनका उसने ऋण चुकाया है, और उन लोगोंने भी उससे लाभ उठाया है; परन्तु उसको सिवाय प्रतिष्ठित वननेक-प्रशंसा प्राप्त करनेके और कुछ लाभ नहीं हुआ; देवी लाभसे वह वंचित ही रहा । जिस मनुष्यका हृदय ही आर्द्र है, जिसमें दया-दान-सहायताके अंकुर मौजूद हैं, वह जहाँ कहीं अधिक शारीरिक या ज्ञानसंबंधी सहायताकी आव For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषीmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm श्यकता देखता है, वहीं यथाशक्ति सहायता करता है; . परन्तु वह केवल हृदयकी उमॅगसे ही करता है। यह सहायता उसने गुप्त रीतिसे की हो, चाहे प्रकटरूपसे ( उस समय जैसा मौका हो ); किन्तु उसका हृदय उससे उल्लसित होता है, विकसित होता है, और एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । इस तरह दानगुण यह दशलक्षण धर्मका, आत्माकी उपासनाका, ईश्वरकी भक्तिका प्रथम मंत्र है-प्रथम सोपान अथवा सीढ़ी हैमूल सिद्धान्त है । द्रव्यत्यागी योगी द्रव्य नहीं रखते, केवल इतने ही कारणसे वे इस दानगुणसे विमुख नहीं रह सकते । यह पहले ही कहा जा चुका है कि केवल द्रव्यदान ही दान नहीं हैधनी ही दान कर सकता हो, ऐसा नहीं है । हृदयकी आर्द्रता और आन्तरिक सहानुभूति ही दानकी जननी है; इसलिए दयामूर्ति संत तो गृहस्थोंकी अपेक्षा भी अनन्तगुणा दान कर सकते हैंअनन्तगुणा उपकार कर सकते हैं। जीवनको सह्य बनानेवाले, आश्वासन दिलानेवाले, मनको उत्साहित करनेवाले, शान्तिको देनेवाले उनके वचन और मुखमुद्रा लाखों करोड़ोंके दान से भी विशेष कीमती हैं। ज्ञानके साधन पूरे करनेवाली किसी न किसी प्रकारकी शक्तिके होने पर भी, जो साधु या त्यागी ब्रह्मचारी इस विषयमें उदसीनता या लापरवाही बताते हैं और अपनी कीर्ति, पूजा या ख्यातिके लिए अपने भक्तोंसे खर्च परिश्रम या ठाटवाट करवाते हैं और इसको धर्मप्रभावनाका नाम देते हैं, उनमें धर्मका पहला और मूलतत्त्व दान ( दया ) बिलकुल नहीं है । उनसे हमलोग For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान और शीलका रहस्य । १६९ हानिके सिवा किसी प्रकारके लाभकी ज़रा भी आशा नहीं कर सकते । शील । जहाँ दान नहीं वहाँ शील या चारित्र कदापि नहीं ठहर सकता । हृदयकी विशालता के बिना क्षमाबुद्धि, सहनशीलता, इन्द्रियनिग्रह और वृत्तिसंक्षेपका होना सर्वथा असंभव है । वीर भगवान्ने दानके पश्चात् शीलका उपदेश दिया है; परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि केवल ब्रह्मचर्यपालनको ही शील नहीं कहते हैं; यह चारित्र ( Character ) के अर्थमें भी आता है । इस गुणका स्पष्ट ज्ञान होनेके लिए, बारह व्रतोंकी योजना की गई है । मैंने इन व्रतोंका 'स्वरूप इस तरह समझा है: ( १ ) ऐसी सावधानी से - यत्नाचारसे ( Guardedy-thougbtfully ) कार्य करो, वचन कहो और विचार करो कि जिससे किसी जीवको कष्ट न पहुँचे। ऐसी कोशिश करो, जिससे कम से कम जीवोंको कमसे कम कष्ट पहुँचे । ( अहिंसा ) ( २ ) जिस बात को तुम जिस उसको उस ही रूपमें प्रकट करो। प्रकारकी तबदीली न करो। लोकेषणाको कुएमें फेंक दो। निन्दा करना, रूपमें जानते हो - मानते हो, लाभ या डरसे उसमें किसी लोकभय, नैतिक निर्बलता और इसी तरह हँसी दिल्लगी करना, पर फिजूल गप्पें हाँकना आदि हानिकारक या लाभहीन–निरर्थक प्रवृत्तिमें वचनबलका भी दुरुयोग मत करो । ( सत्य ) ducation For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनहितैषी- . (३) जिस चीज़ पर, जिस मनुष्य पर, जिस हक़ पर या जिस कीर्ति पर तुम्हारा वास्तविक अधिकार न हो, उस पर अधिकार करनेकी कोशिश कभी मत करो-दूसरेके हकमें दखल मत दो। ( अचौर्य) (४) तुम्हें जिस वीर्य या पराक्रमकी प्राप्ति हुई है, वह तुम्हारी और दूसरोंकी उन्नति करनेके लिए सबसे प्रधान और उत्तम साधन है । उसको पाशविक प्रवृत्तियोंके संतुष्ट करनेमें मत खोओ। उच्च आनन्दकी पहचान करना सीखो । यदि बन सके तो अखण्ड ब्रह्मचारी रहो, नहीं तो ऐसी स्त्री खोजकर अपनी सहचारिणी बनाओ जो तुम्हारे विचारोंमें वाधक न हो और उसहीसे संतुष्ट रहो। अगर सहचारिणी बननेके योग्य कोई न मिले, या मिलने पर वह तुमको प्राप्त न हो सके, तो अविवाहित रहनेका ही प्रयास करो । विवाहित स्थिति चारों तरफ़ उड़ती हुई मनोवृत्तियोंको रोकनेके लिएसंकुचित या मर्यादित करनेके लिए है । वह यदि दोनोंके या एकके असंतोषका कारण हो जाय तो उलटी हानिकारक होगी। अतः अपनी शक्ति, अपने विचार, अपनी स्थिति, अपने साधन और पात्रीकी योग्यता इन सबका विचार करके ही ब्याह करो; नहीं तो कुँवारे रहो । यह माना जाता है कि ब्याह करना ही मनुष्यका मुख्य नियम है और कुँवारा रहना अपवाद है; परन्तु. तुम्हें इसके बदले कुँवारा रहकर ब्रह्मचर्य पालना या सारी अथवा . मुख्य मुख्य बातोंकी अनुकूलता होने पर ब्याह करना, इसे ही मुख्य नियम बना लेना चाहिए । विवाहित जीवनको विषयवासनाके For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान और शीलका रहस्य । १७१ लिए, अमर्यादित, यथेच्छ, स्वतंत्र मानना सर्वथा मूल है । वासनाओंको कम करना और आत्मिक एकता करना सीखो । अश्लील शब्दोंसे, अश्लील दृश्योंसे और अश्लील कल्पनाओंसे सदैव दूर रहो। तुम किसीके सगाई व्याह मत करो। क्योंकि तुम्हें इसका किसीने अधिकार नहीं दे रक्खा है। विवाहके आशयको नहीं समझनेवाले और सहचारीपनके कर्तव्यको नहीं पहचाननेवाले पात्रोंको जो मनुष्य एक दूसरेकी बलात् प्राप्त हुई दासता या गुलामीमें पटकता है, वह चौथे व्रतका अतिक्रम करता है, दयाका खून करता है. चोरी करता है । ( ब्रह्मचर्य ) ( ५ ) परिग्रह अथवा मालिकीकी इच्छाको कम करो। मैं सबको भोग, मैं करोडपति बनूँ, मैं महलोंका मालिक बनें, इस तरहके मैं-मैं-मय, स्वार्थमय, संकीणे विचारोंको जितना बने उतना कम करो । इस आज्ञाका यह उद्देश नहीं है; कि तुम नँगे ही फिरो. घरवार रहित बाबा बन जाओ, भख मरो. कुटुंबका पालन पोषण न करो, उसे यों ही मरने दो. किन्तु यह मतलब है कि लोभप्रकृति. मोहप्रकृति, ममत्वभाव और जड़ पदार्थोंकी प्राप्तिमें ही आनन्द मानना, इन बातोंका परित्याग करो और सचाईसे, बुद्धिमानीसे, जी जानसे व्यवस्थापूर्वक किये हुए उद्यमसे जो धन तुम्हें प्राप्त हो, उसे अपनी और अपने आश्रितोंकी आवश्यकता पूरी करनेमें खर्च करो। इसके सिवाय जो द्रव्य बचे उसे उस पर ममत्व न रखते हुए औरोंकी आवश्यकतायें पूरी करनेमें बड़े आनंदसे व्यय करो । परिग्रह पर जितना कम ममत्व रक्खोगे उतनी ही तुम्हें विशेष शांति मिलेगी । ( अपरिग्रह) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनहितैषी - ( ६ ) निरर्थक, उपयोगरहित, भ्रमण भी जितना बन सके उतना कम करो । ( दिग्नत ) (७) उपभोग और परिभोगकी लालसाको मर्यादित करो । अपनी आदतोंको सादी, आत्मसंयमी, नियमित और मिताहारी बनाओ । तुम्हारी आवश्यकतायें जितनी कम होंगी उतनी ही तुम्हारी चिन्तायें, उपाधियाँ और लालच भी कम होंगे और अधिक महत्त्वकी बातोंकी ओर जी लगाने के लिए भी विशेष समय मिलेगा । देखादेखी से, झूठे खानदानी ख्यालसे, हम बड़े और अच्छे दिखेंगे इस तरह की मूर्खतायुक्त लोलुपतासे, मिथ्या आडम्बरकी इच्छासे और गुणदोष समझनेकी बुद्धिके अभावसे गैरजरूरी आवश्यकतायें उत्पन्न होती हैं, और वे शारीरिक निर्बलता, मानसिक अधमता और बुद्धिहीनताको जन्म देती हैं । अतः उपभोग परिभोगके पदार्थ आवश्यकतानुसार वे ही जो उपयोगके सिद्धान्तको उत्तर दे सकें- रक्खो । ( भोगोपभोगपरिमाण ) ( ८ ) व्यर्थ कार्योंमें अपने मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति न करो । लड़ाई झगड़ा, निंदा, दुर्ध्यान, चिन्ता, कुतर्क, खेद और भयमें शरीरसंपत्ति, धनसम्पत्ति, समयसम्पत्ति तथा संकल्पसम्पत्तिको नष्ट मत करो । आर्त्तध्यान अथवा चिंता करना और रौद्रध्यान अथवा किसी पर क्रोधमय विचार करना, ये दोनों बुरे और निन्दनीय कर्म हैं; आनन्दमय और वीरत्वमय आत्मप्रभुका द्रोह करनेवाले हैं । इससे मनुष्यत्व क्षीण होता है । ( अनर्थदण्डविरति ) ( ९ ) प्रतिदिन नियमित समय पर ही बने उतने समय तक, , For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान और शीलका रहस्य। १७३ समतालवृत्ति-साम्यभाव रखनेका अभ्यास करो-मुहाविरा डालो। ( सामायिक ) (१०) अपने देशके बाहरसे आई हुई चीजोंको यथासम्भव काममें न लाओ । स्वदेशप्रेम और स्वदेशाभिमान रक्खो, स्वदेशको बुभुक्षित बनानेमें साधनभूत मत बनो । ( देशव्रत ) ( ११ ) प्रतिमास एक वार जब कभी फुरसत मिले, अनुकूलता हा और शारीरिक व मानसिक स्थिति ठीक हो तब भूखे रहो कि जिससे शरीर नीरोग व महनशील बने और इस स्थितिमें २४ या १२ चण्टे आत्मानुभव या आत्मविचारों में व्यतीत करो। (प्रोषधोपवास ) (१२ ) जब कभी उपकारी पुरुषोंकी भक्ति-सेवा करनेका अवसर आजाय तब बड़े उत्साहके साथ उनकी सेवा करो । जो मंमारक उपकारमें ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और जिनको अपने शरीरकी मार सँभाल करनेकी भी फुरसत नहीं रहती है, उनके अस्तित्वकी. आरोग्यताकी और प्रवृत्तिकी जगतको बहुत आवश्यकता रहती है । इस लिए उनकी आवश्यकताओंको जानकर उन्हें पूरी करना उपकृत वर्गका कर्तव्य है। उनके प्रचार कार्योंका निर्वाह करनेके लिए, अपने शरीरबल, द्रव्यबल, समय और बुद्धि आदिका उत्सर्ग करना चाहिए, उनकी मुश्किलों और दुःखोंमें महानुभूति दिखाकर. उनको दूर करनेके लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए और उनके जयमें अपना जय-समाजका जय-मानना चाहिए । ( अतिथिसविभाग ) * __ कृष्णलाल वर्मा । * जनाहतेच्छुसे अनुवादित । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैनहितैषी वैश्य। ( कविवर श्रीयुक्त बाबू मैथिलीशरण गुप्तकृत भारत-भारतीसे उद्धृत ) (१) जो ईशके ऊरुज अतः जिनपर स्वदेशस्थिति रही, व्यापार, कृषि, गोरूपमें दुहते रहे जो सब मही। वे वैश्य भी अब पतित होकर नीच पद पाने लगे, बनिये कहा कर वैश्यसे 'वक्काल' कहलाने लगे ॥ वह लिपि कि जिसमें 'सेठ' को 'सठ' ही लिखेंगे सब कहीं, सीखी उन्होंने और उनकी हो चुकी शिक्षा वहीं। हा ! वेदके अधिकारियों में आज ऐसी मूढ़ता, है शेष उनके 'गुप्त' पदमें किन गुणोंकी गूढ़ता? (३) कौशल्य उनका अब यहाँ बस तौलनेमें रह गया, उद्यम तथा साहस दिवाला खोलनेमें रह गया। करने लगे हैं होड़ उनके वचन कच्चे सूतसे, करते दिवाली पर परीक्षा भाग्यकी वे तसे ॥ (४) वाणिज्य या व्यवसायका होता शऊर उन्हें कहीं तो देशका धन यों कभी जाता विदेशोंको नहीं। है अर्थ सट्टा फाटका उनके निकट व्यापारका, - कुछ पार है देखो भला उनके महा अविचार का ? बस हाय पैसा! हाय पैसा!! कर रहे हैं वे सभी, पर गुण विना पैसा भला क्या प्राप्त होता है कभी ? १ मुड़िया या सराफ़ी। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्य । सब से गये बीते नहीं क्या आज वे हैं दीखते, वे देख सुनकर भी सभी कुछ क्या कभी कुछ सीखते ? ( ६ ) बस अब विदेशों से मँगाकर बेचते हैं माल वे, मानों विदेशी वाणिजों के हैं यहाँ दल्लाल वे । वेतन सदृश कुछ लाभ पर वे देशका धन खो रहे, निर्द्रव्य कारीगर यहाँके हैं उन्हींको रो रहे ॥ ( ७ ) उनका द्विजत्व विनष्ट है, है किन्तु उनको खेद क्या ? संस्कारहीन जघन्यजोंमें और उनमें भेद क्या ? उपवीत पहनें देख उनको धर्मभाग्य सराहिए. पर तालियों के बाँधनेको रुज्जु भी तो चाहिए ! ( 6 ) चन्दा किसी शुभकार्य में दो चारसौ जो है दिया तो यज्ञ मानों विश्वजित ही है उन्होंने कर लिया ! बनवा चुके मन्दिर कुआँ या धर्मशाला जो कहीं, हा स्वार्थ! तो उनके सदृश सुर भी सुयशभागी नहीं ! ( ९ ) औदार्य उनका दीखता है एकमात्र विवाह में, बजाय चाहे वित्त सारा नाचरंग - प्रबाह में ! वे वृद्ध होकर भी पता रखते विषय की थाहका, शायद मेरे भी जी उठें वे नाम सुनकर व्याहका ! ( १० ) उद्योग बलसे देशका भंडार जो भरते रहे, फिर यज्ञ आदि सुकर्ममें जो व्यय उसे करते रहे । वे आज अपने आप ही अपघात अपना कर रहे, निज द्रव्य खोकर घोर अघके घट निरन्तर भर रहे || १७५ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनहितैषी उदासीन-आश्रम । AapGAAI त्राश्रम, श्राविकाश्रम, अनाथाश्रमके बाद जैनसमाजका ध्यान अब उदासीनाश्रमोंकी ओर भी गया है। इस वर्ष दो उदासीनाश्रम स्थापित हुए हैं-एक तक्कू- गंज इन्दौरमें और दूसरा कुण्डलपुर ( दमोह ) में । __ बहुत लोग मखौल करते हैं कि जैनसमाज गृहस्थाश्रमकी उन्नतिके जितने उपाय हैं उन सबको कर चुका है-विद्यालय, छात्राश्रम आदि सब कुछ स्थापन कर चुका है और कोई करने लायक काम उसकी दृष्टिमें शेष रहा नहीं हैं, इसलिए अब उसने उदासीनाश्रम स्थापित करनेकी ठानी है । इसमें वे लोग रहेंगे जो इन सब उन्नतिके कामोंसे उदासीन हो चुके हैं । परन्तु हमारी समझमें केवल — उदासीन ' इस नामसे ही इस तरहके अनुमान लगाकर मखौल करना ठीक नहीं है । वास्तवमें देखा जाय तो अब जैनसमाजका काम उदासीनाश्रमोंके स्थापित किये बिना चल ही नहीं सकता-उदासीनोंकी उसे बड़ीभारी जरूरत है। क्योंकि जिस परिमाणसे उसकी सार्वजनिक संस्थायें खुलती जाती हैं उस परिमाणसे उसमें काम करनेवाले नहीं बढते हैं। जिस संस्थाको देखिए उसीमें यह त्रुटि बतलाई जाती है कि अच्छे काम करनेवानेवाले आदमी नहीं हैं और सुयोग्य कार्यकर्ताओंके बिना रुपया खर्च होते हैं तो भी संस्थाओंकी दशा अच्छी नहीं । For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीन-आश्रम । १७७ अच्छे अध्यापक नहीं मिलते, अच्छे उपदेशकोंका अभाव है, शिक्षाप्रचारक नहीं हैं, चारित्रसुधारक नहीं हैं, दूसरोंके दुःखोंमें दुखी होनेवाले नहीं है और परोपकारके-स्वार्थत्यागके भाव जागृत करनेवाले मूर्तिमन्त उदाहरण नहीं हैं । इसलिए जैनसमाजके लिए आवश्यक हुआ है कि वह उदासीनाश्रम स्थापित करे और उनके द्वारा इस प्रकारके काम करनेवाले तैयार करे। तनख्वाह देकर-रुपया देकर काम करनेवाले प्राप्त किये जा पकते हैं; परन्तु जैनसमाजमें शिक्षाकी और योग्यताकी इतनी कमी है कि इसमें वेतन देकर भी अच्छे कार्यकत्तो प्राप्त नहीं किये जा सकते । इसके सिवाय वैतनिक कार्यकर्ता उतना अच्छा कार्य नहीं कर सकते हैं जितना अच्छा कि स्वार्थत्यागी पुरुष कर सकते हैं। भौर, संस्थायें केवल बाहरी शक्तियोंसे चल भी तो नहीं सकती हैंअच्छी उन्नति भी तो नहीं कर सकती हैं जब तक कि उनमें छ आध्यात्मिक शक्तियों काम नहीं करती हों और ये शक्तियाँ सच्चे स्वार्थत्यागी पुरुषोंमें ही दर्शन देती हैं । अतएव आवश्यकता है कि जैनसमाजमें आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न पुरुष भी तैयार किये जावें और इसीके लिए उदासीनाश्रमोंका उपयोग करना चाहिए। जनसेवाका कार्य सर्वोत्तम रीतिसे स्वार्थत्यागी पुरुष ही कर सकते हैं । जिन्होंने अपने जीवनको दूसरोंके उपकारके लिए अर्पण कर दिया है उन्हींका समाज पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। विशेषकर जैनसमाजमें तो त्यागी वैरागियोंको छोड़कर दूसरोंकी बातका प्रायः असर ही नहीं पड़ता है। क्योंकि इस समाजमें चिरकालसे For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - १७८ वैराग्यकी - स्वार्थत्यागकी ही पूजा होती आई है । अतएव अपनी संस्थाओं की सहायता के लिए, उनके प्रति प्रीति उत्पन्न कराने के लिए जब तक स्वार्थत्यागी या उदासीन तैयार न होंगे तब तक उनकी दशा संतोषजनक नहीं हो सकेगी । हम नहीं कह सकते कि उदासीनाश्रमके स्थापकों और संचाल - कोंने ' उदासीन ' का अर्थ क्या निश्चित किया है; परन्तु यदि ये । आश्रम जैनसमाजकी उन्नतिके लिए स्थापित हुए हैं तो ' उदासीन ' का अर्थ स्वार्थत्यागी परोपकारी ही होगा। जो अपनी स्वार्थवासनाओंसे - भोगलालसाओंसे उदासीन हो चुका हैं - अपने सुखकी, आरामकी, मानापमानकी जिसे परवा नहीं रही है, गृहकी संकीर्ण परिधिका उल्लंघन करके जिसके प्रेमकी सीमा सारे विश्वमें व्याप्तहो गई है और इस कारण जो जीवमात्रकी भलाई करनेके लिए तत्पर हो गया है, उसे ही हम उदासीन कहते हैं । ऐसे उदासीन ही जैनसमाजको लाभ पहुँचा सकते हैं और इन्हींके लिए आश्रम - की जरूरत है । ( यहाँ प्रश्न होता है कि ऐसे लोग तो यों ही समाजसेवाका कार्य करेंगे, उनके लिए आश्रमोंकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर यह है कि मनुष्यके विचार सदा स्थिर नहीं रहते हैं । इस समय किसी पुरुषके हृदयमें जो स्वार्थत्यागके विचार उत्पन्न हुए हैं संभव है कि वे थोड़े दिन पीछे न रहें । इस लिए उत्पन्न हुए विचारोंको स्थिर रखने और दृढ बनानेके लिए, विचारोंके अनुसार काम करनेकी योग्यता प्राप्त करानेके लिए और अनेक विचारों For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीन-आश्रम। १७९ को एक साथ मिलाकर विशेष शक्तिके साथ काम करना सिखलानेके लिए कोई साधन चाहिए और हमारी समझमें उदासीनाश्रम इसके लिए बहुत अच्छा साधन है। ___ अभी तक यह मालूम नहीं हुआ है कि ये आश्रम अपना काम किम ढंगसे और किस पद्धतिसे चलावेंगे, इस लिए यदि इस विषयमें हम अपने विचारोंको संक्षेपमें निवेदन कर दें तो कुछ अनुचित न होगा। जिन लोगोंके हृदयमें वास्तविक स्वार्थत्याग और परार्थपरताके भाव उत्पन्न हुए हैं वे ही लोग आश्रममें भरती किये जावें। बस, यही एक बात उनकी जाँचकी कसौटी होनी चाहिए। सबसे पहले उन्हें योग्यताका सम्पादन कराया जाय । योग्यताको हम दो भागोंमें बाँटते हैं-एक तो ज्ञानसम्बन्धी योग्यता और दूसरी चारित्रसम्बन्धी योग्यता । इन दोनों योग्यताओंके बिना आज कलके समयमें न कोई काम ही अच्छी तरह किया जा सकता है और न सफलता ही प्राप्त हो सकती है । इस समय ज्ञान और चारित्र दोनोंकी आवश्यकता है। आश्रमवासियोंको धार्मिक और व्यावहारिक दोनों प्रकारकी उच्चश्रेणीकी शिक्षा प्राप्त करना चाहिए। इसके बिना इस ज्ञान विज्ञानके युगमें कोई काम नहीं किया जा सकता। चारित्रसम्बन्धी योग्यताको हम बहुत ही आवश्यक समझते हैं, क्योंकि इसके बिना परार्थ तो कठिन बात है स्वार्थसाधनके काम भी अच्छी तरह सम्पन्न नहीं हो सकते । जिसने इन्द्रियों और मनको वशमें रखनेका अभ्यास नहीं किया, अपनी आवश्यकताओंको For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनहितेषी - कम नहीं किया, कष्ट सहनेकी आदत नहीं डाली, ना चर्यकी रक्षाकरके शारीरिक और मानसिक शक्तियोंको नहीं बढ़ाया, ध्यानके द्वारा मनको एकाग्र करनेका अभ्यास नहीं किया, इष्टानिष्टमें साम्य भाव रखनेका प्रयत्न नहीं किया और अपने हृदयको जीवमात्रके हितके लिए करुणातत्पर नहीं बनाया वह दूसरोंकी उन्नति—दूसरोंकी भलाई कभी नहीं कर सकता । इस लिए इस प्रकारके चारित्रका अभ्यास आश्रममें अवश्य कराना चाहिए। काम करनेके लिए और उनमें सफलता प्राप्त करनेके लिए कुछ आध्यात्मिक शाक्तियोंकी जरूरत होती है और वे शक्तियाँ पवित्र चारित्र तथा तप आदि के विना प्राप्त नहीं हो सकतीं । उदासीनोंको कमसे कम तीन वर्षतक ज्ञान और चारित्रसम्बन्धी योग्यता प्राप्त करते रहनेके बाद काममें हाथ लगाना चाहिए और काम भी उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार छोटे बड़े सौंपना चाहिए; परन्तु काम करते हुए भी उन्हें अपनी योग्यता बढ़ानेका क्रम जारी रखना चाहिए । : आश्रमके प्रधान संचालक जो स्वयं भी उदासीन हों, उदासी - नोंको उनकी योग्यताका विचार करके काम सौंपें । जगह जगह जाकर उपदेश देना, व्याख्यान देना, पाठशालाओंमें अध्यापकीका काम करना, शास्त्रसभाओं में उपदेश देना, आवश्यकता होनेपर घर घर जाकर उपदेश देना, पुस्तकें लिखना, लेख लिखना, गरीबों की सहायता करना, रोगियोंकी सेवा करना, इत्यादि सब तरहके परो For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदासीन आश्रय । १८१ पकारके काम उन्हें सोंपे जावें और वे छोटेसे छोटा और बड़ेसे बड़ा काम करने के लिए हर समय तत्पर रहें । ये आश्रम उसी ढंगके होना चाहिए जैसी कि माननीय गोखलेकी सर्वेंट आफ इंडिया सुसाइटी' ( भारतसेवकसमिति ) है । जिस तरह उसके मेम्बर राजनीतिको आगे रखकर सब काम करते हैं उसी तरह इन आश्रमोंके उदासीनोंको धर्मको और चारि - को आगे रखकर काम करना चाहिए । उदासीनाश्रमोंको हम इसी रूपमें देखना चाहते हैं और जहाँतक हम सोच सकते हैं जैनसमाजका कल्याण भी ऐसे ही आश्रमोंसे हो सकता है। इसके विपरीत यदि इनमें नारि मुई घर संपति नासी, मूड़ मुड़ाय भये सन्यासी । इस अवस्थाके सन्यासियों या उदासीनोंकी पालना होगी, अथवा जिन्हें सच्चा वैराग्य तो हुआ नहीं है किन्तु गृहस्थाश्रमको अच्छी तरह चलाने योग्य पुरुषार्थके अभाव में उसे झंझट समझकर जो केवल अपनी सुखशान्तिके लिए दुनियादारीकी रस्सी तुड़ाकर भाग आये हैं उन्हें भरती किया जायगा, तो ऐसे आश्रमोंकी कोई ज़रूरत नहीं हैं । जो अपने स्वार्थसे—अपनी ही सुख शान्तिसे उदासीन नहीं हैं और दूसरोंके कल्याण में जिन्होंने अपने आपको नहीं भुला दिया है. उन नामके उदासीनोंसे जैनसमाजका क्या कल्याण हो सकता है ? 1 ऐसे उदासीनोंकी इस समय कमी भी नहीं हैं। सैकड़ों ऐलक, For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनहितैषी क्षुल्लक, त्यागी, ब्रह्मचारी, प्रतिमाधारी जहाँ तहाँ पुज रहे हैं । उनके, भोजनवस्त्रोंकी, पूजाप्रतिष्ठाकी, जयजयकारकी जैनसमाज बराबर चिन्ता रखता है। फिर उनके लिए जुदा आश्रमोंके खोलनेकी ज़रूरत ही क्या है ? . यदि यह कहा जाय कि इन लोगोंकी शिक्षाका और चारित्रसुधारका प्रयत्न आश्रमोंमें किया जायगा तो यह असंभव मालूम। होता है। क्योंकि इनमें अशिक्षितोंकी संख्या ही अधिक है । ये जैनसमाजमें स्वच्छन्द विहार करते हैं और खूब पूजाप्रतिष्ठा पाते हैं । इसलिए इन्हें किसी शासन या शृङ्खलामें रखना बहुत ही कठिन होगा । पढ़ने लिखनेमें इनका चित्त भी नहीं लग सकता । ___ कुछ महाशयोंकी यह राय है कि जो इस समय गृहत्यागी नहीं हैं-घरगिरस्तीमें रहकर ही धर्मध्यान करते हैं और शान्तपरिणामी हैं, वे इन आश्रमोंमें रहेंगे । परन्तु जो केवल अपना आत्मकल्याण करनेकी इच्छा रखते हैं, अपने ही लिए सामायिक स्वाध्याय करते हैं, जिनका सारा दिन चूल्हा चक्की और खानपानकी शुद्धताके विचारोंमें ही बीत जाता है वे पवित्र और आदरणीय भले ही हों; पर उनसे जैनसमाजका कल्याण नहीं हो सकता है और इसीलिए हमारी समझमें उन लोगोंके लिए हमें कोई संस्था खोलनेकी ज़रूरत नहीं है; वे अपना कल्याण अपने घरोमें ही रहकर कर सकते हैं। __बात यह है कि इस समय हमें कर्मवीर चाहिए । कर्म करना छोड़कर-संसारको भुलाकर शान्ति चाहनेवालोंकी इस समय हमें For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयोद्वार। १८३ काई आवश्यकता नहीं है । जो संसारसे दूर भागना चाहते हैं और उसके साथ ही परोपकारकर्मसे भी दूर रहना चाहते हैं वे हमारा क्या भला करेंगे? ___ आशा है कि उदासीनाश्रमोंके संचालक इस लेख पर ध्यान ५ देंगे और ऐसा प्रयत्न करेंगे जिससे ये आश्रम जैनसमाजकी प्रगतिमें कुछ सहायक हों-उसमें बाधा डालनेवाले या निष्कर्मा बनकर हमारे लिए भारभूत न हो। हृदयोगार। [ श्रीयुक्त बाबू अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. के बनाये हुए ‘महेन्द्रकुमार' नाटकसे उद्धृत एक पद्य । ] कब आयगा वह दिन कि बनूं साधु विहारी ॥टेक ॥ दुनिया में कोई चीज़ मुझे थिर नहीं पाती, और आयु मेरी यों ही तो बीती है जाती। मस्तक पै खड़ी मौत वह सबहीको है आती, राजा हो चाहे राणा हो हो रंक भिखारी ॥१॥ संपत्ति है दुनियाकी वह दुनियामें रहेगी, काया न चले साथ वह पावकमें दहेगी। इक ईट भी फिर हाथसे हर्गिज न उठेगी, बँगला हो चाहे कोठी हो हो महल अटारी ॥ कब० ॥ २ बैठा है कोई मस्त हो मसनदको लगाये, माँगे है कोई भीख फटा वस्त्र बिछाये। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ जैनहितैषी अंधा है कोई कोई बधिर हाथ कटाये, ' व्यसनी है कोई मस्त कोई भक्त पुजारी ॥ कब० ॥३ खेले हैं कई खेल धरे रूप घनेरे, स्थावरमें प्रसोंमें भी किये जाय बसेरे। होते ही रहे हैं यों सदा शाम सबेरे, चक्कर में घुमाता है सदा कर्म मदारी ॥ कब० ॥ ४ सबहीसे मैं रक्तूंगा सदा दिलकी सफ़ाई, हिन्दू हो मुसलमान हो हो जैन ईसाई। मिल मिलके गले बाँटेंगे हम प्रीति मिठाई, आपसमें चलेगी न कभी द्वेष कटारी ॥ कब० ॥५ सर्वस्व लगाके मैं करूँ देशकी सेवा, घर घर पर मैं जा जाके रखू ज्ञानका मेवा । दुःखोंका सभी जीवोंके हो जायगा छेवा, भारतमें देखूगा न कोई मूर्ख अनारी ॥ कब० ॥६ जीवोंको प्रमादोंसे कभी मैं न सताऊँ, करनोंके विषय हेयमें अब मैं न लुभाऊँ। ज्ञानी हूँ सदा ज्ञानकी मैं ज्योति जगाऊँ , समतामें रहूँगा मैं सदा शुद्धविचारी ॥ कब ॥७ नोट-जिस पुरुषश्रेष्ठकी ऐसी पवित्र उदार और शान्त भावनायें हो, उसकी राजद्रोह और नरहत्या जैसे नीच कर्मोसे भी सहानुभूति होगी, इस बातकी हम लोग तो कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। -सम्पादक। For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियों के विचार. सहयोगियों के विचार | 66 S प्रार्थना । टनों के अन्तर में छुपे हुए परमेश्वर, तू अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर ! ( सर्व शक्तिमान् होकर भी आज तू भीरु, खुशामदी, संकीर्ण, बहमी, और अज्ञानही आनन्द मनानेवाला बन गया है। इसके कारण अब तो कुछ लज्जित हो और अपनी ईश्वरतामें बट्टा लगानेके अपराधसे मुक्त होने के लिए जनसेवारूप प्रायश्चित लेकर पवित्र बन तथा अपना ज्ञानमय चारित्रमय वीर्यमय प्रकाशित स्वरूप फिर धारण कर ! जब तू स्वयं परमेश्वर है तब तुझे प्रकाशित करने के लिए और दूसरे किस परमेश्वरकी प्रार्थना करने की आवश्यकता हो सकती है ? तू स्वयं ही अपनी सहायता कर, तुझे चारों ओरसे जिन मर्यादाकी संकलने जकड़ रक्खा है उन्हें स्वयं ही एक महावीर के समान तोड़ताड़कर अलग कर और अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर ! १८५ — जैनहितेच्छुके खास अंकका मुखपृष्ट | जनजातिको जीना है या मरना ? • जब भारतकी जैनंतर जातियाँ इस प्रश्नके विचार में लीन हो रहीं हैं कि ' आगे कैसे बढ़े ? तब जैनजातिके आगे यह प्रश्न खड़ा हुआ है कि ' जीते रहना या मर जाना ? ' जो मनुष्य जीना चाहता है वह बाहर के पदार्थों को खुराक के रूपमें ग्रहण करता है, उन्हें पचाता है और शरीर के रक्तके रूपमें उनका रूपान्तर करता है, अर्थात् उन्हें अपने शरीरका ही एक भाग बना लेता है । परन्तु जैनसमाजरूपी मनुष्य ऐसा नहीं करना चाहता। बाहरी मनुष्यों को अपने शरीरका भाग बना लेनेकी चिन्ता तो दूर रही, वह अपने शरीर के अवयवोंको भी शरीरसे जुदा करनेमें बहादुरी दिखला रहा है । तब बतलाइए कि यह जैनसमाज जीता कैसे रह सकता है ? जैनधर्म जब महावीर भगवान् के हाथ से पुनरुज्जीवित हुआ तब वह एक जीवित समाजका धर्म था । उस समय जैनेतरोंको जैनसमाजमें आने दिया जाता था, उन्हें तत्त्वज्ञान सिखलाया जाता था For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनहितैषी - और फिर पक्का जैन बन जानेका सुभीता कर दिया जाता था । जैनधर्मका क्षेत्र आज कल के समान संकीर्ण न था; इसके विस्तृत मैदान में सारी मानव जातिको टिकने के लिए जगह मिलती थी । ( हाथी, सर्प आदि भयानक प्राणी भी इस मैदानमें खड़े हो सकते थे । ) स्वाध्याय ( अभ्यास ), प्रामाणिकता निर्भय स्वातन्त्र्य, कोमल मनोवृत्तियाँ और सुदृढ चारित्र, ये उस समय के "जैनोंको प्रसिद्धिमें लानेवाले तत्त्व थे । उस समयकी धार्मिक श्रद्धाकी जड़में बुद्धि और विचार शक्ति थी, इस लिए उनकी वह श्रद्धा उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्राण - न्योछावर कर देनेकी प्रेरणा कर सकती थी । उनमें इतनी सचाई और साख थी कि जैन जो शब्द बोलते थे वे ' दस्तावेज ' के समान पक्के समझे जाते थे । उनके शब्दरूप 'दस्तावेज' को कोई स्वार्थ, डर या विघ्न बदल नहीं सकता था । पूर्वके जैन इसी नमूनेके थे । वे जन्मसे जैन कहलवानेके लिए मगुरूर न थे; परन्तु जैनधर्मको सीखकर, जैनजीवन व्यतीत करनेका प्रारंभ करनेमें ही जैनत्व मानते थे और ऐसे जैनसमाजके एक सभ्य के रूपमें प्रकट होनेको मगरूरी समझते थे । और अब ? अब हमारे जैन न तो पूर्वके जैनोंके ही अनुयायी रहे हैं और न पश्चिमके वास्तविक अनुकरण करनेवाले बने हैं । हममेंसे कितनेक तो अपने पूर्वजों के रिवाज़ों और क्रियाओं के बाह्यरूपको पकड़कर बैठ रहे हैं और कितने ही पश्चिमकी वानरी नकल करनेमें लग पड़े हैं । हम न तो अपने पूर्वजों की बनाई हुई क्रियाओं और नियमोंका गुप्त रहस्य और सच्ची विधियाँ समझते हैं और न यह जानते है कि पश्चिमके रिवाज़ क्यों और कैसी परिस्थितियोंमें ज़ारी हुए हैं और वे हमारे लिए कितने अंशों में अनुकूल और कितनों में प्रतिकूल हैं । वीर परमात्माकी स्थापितकीहुई गद्दी के हक़दार ऐरे गैरे जिनके जीमें आया ही बनने लगे हैं । मन्दिरों, धर्मस्थानों, सार्वजनिक जैनसंस्थाओं और भंडारोंकी मालिकी भी ऐसे ही लोगोंके हाथों में जाने लगी है । क्यों ? इसलिए कि उनके हक़के विरुद्ध आन्दोलन उठानेवाले नहीं मिलते हैं । कूपर कवि कहता है कि 66 मुझे जो कुछ नज़र आता है उस सबका मैं महाराजा हूँ; मेरे हक़के विरुद्ध पुकार मचानेवाला कोई भी नहीं है ! " जैनसमाजकी भी यही दशा हो रही है । अपने शास्त्रोंकी रक्षा करनेका हक, संस्थाओं और फंडोंकी मालिकीका हक़ ये सब हक़ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियों के विचार। १८७ किसीके सोपे बिना ही जिसके जीमें आया है वही दबा बैठा है। इससे क्या सूचित होता है ? यही कि जैनसमाजमें घुन लग गया है। इतना ही नहीं बल्कि जैनसमाजका अन्तसमय आ पहुंचा है। यहाँ लोग भ्रममें न पड़ जावें इसके लिए हम यह कह देना चाहते हैं कि 'जैनसमाजका अन्त आ पहुँचा है ' इसका अर्थ यह नहीं है कि 'जैनधर्मका अन्त समय आ पहुँचा है ।' क्योंकि जैनधर्मका सत्य स्वरूप अमर है । सत्य या तत्त्व कभी मरते नहीं हैं। स्वयं जैनोंकी आंधी प्रवृत्तिउलटी चाल भी इस अमर तत्त्वको नहीं मार सकती है । महावीर भगवानके समवसरणके समय जैनधर्ममें जो मिठास और शक्ति थी वही आज भी है और आगे भी रहेगी। मेरा विश्वास है कि जैनधर्मने पश्चिममें पुनर्जन्म ग्रहण कर लिया है। जैनधर्मके दयाके सिद्धान्तने यूरोप अमेरिकामें अनेक ह्यमेनीटेरियन संस्थाओंको जन्म दिया है । जैनधर्मके गभीर तत्त्वज्ञानने कितने ही अँगरेज़ भाइयों और बहिनों के हृदयों पर विजय पाई है। जैनधर्मके प्राचीन तत्त्वग्रन्थोंने पश्चिमके विद्वानोंके मुँह से प्रशंसा और प्रेमके शब्द कहलवाये हैं । जैनधर्मकी ‘सहधर्मी' रूप 'ज्ञाति' युरोपियन वुद्धिको सन्तोपित करनेवाली सिद्ध हुई है। इस तरह, जैनधर्म कुछ मर नहीं गया है, उसने तो नया जीवन पालिया है; केवल उसका बाहरी स्वरूप बदल गया है । अपने सार्वजनिक भंडारोंके अप्रबन्धके सम्बन्ध में ऊपर एक जगह इशारा कर चका हूँ। हमारे सामाजिक विषय भी ऐसी ही गडबड़ों और झंझटोंमें हैं। अपने लोगों के विचारों और कार्योंकी स्वच्छन्दता पर काबू रख सकें, इस तरहके प्रबल सार्वजनिक मत ( पब्लिक ओपीनियन ) का हमारे यहाँ अभाव है । इस लिए जिसकी मर्जी में जो आता है वह करता है और कहता है: सार्वजनिक मतके रूपमें कोई अंकुश ही नहीं है । जहाँ तहाँ जैनधर्मके विरुद्ध रीति-रवाज रहन-सहन और आचरण देखे जाते हैं: उनके लिए कोई दण्ड या चेतावनी देनेकी कोई पद्धति ही नहीं है। यदि कभी किसी सच्चे या कल्पित धर्मविरुद्ध कार्यके विरुद्ध आवाज उटाई जाती है तो उसका असर मोमके खिलौनेके असरसे अधिक नहीं होता । शिक्षाके विषयमें जैन अपनी पड़ोसी जातियोंसे पीछे नहीं हैं इसका For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ जैनहितैषी पता मनुष्यगणनाकी रिपोर्ट से लगता है; परन्तु मनुष्यगणनाकी रिपोर्टके भरोसे बैठे रहनेसे काम नहीं चलता; क्योंकि विशाल विश्वमें हमारी संख्या केवल १०-१२ लाख ही है । यह क्या हमारी प्रतापपूर्ण इतिहास रखनेवाली जातिके लिए कम लज्जाका विषय है ? हममें यदि शिक्षाकी अधिकता होती तो हमारे भाई दूसरे धर्मोमें नहीं जा सकते और हम दूसरोंको अपने उदार तत्त्व समझाकर जनगणनामें वृद्धि किये विना न रहते । क्या हमें अपने इतने ओछे ज्ञानसे-अल्पशिक्षासे निर्वाणकी बातें करते समय लज्जा न आनी चाहिए ? हम कहा करते हैं कि पहलेके जैन व्यापारसे अगणित धन पैदा करते थे; परन्तु इस समयके जैनोंके हाथमें बतलाइए कहाँ है वैसा व्यापार और धन ? जैनोंका प्रायः प्रत्येक खाता-प्रत्येक संस्था धनकी तंगीसे मृतप्राय हो रही है। हममें 'पब्लिक स्प्रिट '-सार्वजनिक जोशका अंश भी कहाँ है और हो भी कहाँसे ? जो मनुष्य मरनेकी तैयारीमें है वह क्या नृत्य कर सकता है ? जैनजाति जब मरणशय्या पर पड़ी दिख रही है तब सार्वजनिक जोश और स्वार्थत्यागके तत्त्वके अभावमें ( मरनेके सिवाय ) और दूसरे किस परिणामकी आशा की जा सकती है ? लापरवाही (अनवधानता), अश्रद्धा और अन्धश्रद्धा ये तीन शत्रु हमारी जातिको घोंट घोंटकर मार रहे हैं । हमारे बड़े बूढे तो केवल दूसरोंको मिथ्याती और भ्रष्ट कहनेमें ही धर्मपालनकी समाप्ति समझते हैं और नौजवान भाई जड़वाद और नास्तिकताकी बढ़तीहुई दुनिया और जड़वादमूलक सुधारोंके उपदेशकी ओर आकर्षित होकर जैनबन्धनसे छूट जानेमें ही आनन्द मानने लगे हैं। जो लोग निष्पक्ष होकर शान्तिके साथ विचार कर सकते हैं उन्हें यह विश्वास हुए बिना न रहेगा कि मैंने अपनी जातिकी दशाका जो स्वरूप बतलाया है उससे जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। हमारे सामाजिक बन्धन शिथिल हो गये हैं, अविद्याने हमारे यहाँ अड्डा जमा रक्खा है। न हमारे यहाँ कोई उत्तम प्रकारकी सामाजिक संस्था रही है और न राष्ट्रीय । हमारी संख्या दिनपर दिन कम होती जाती है. हमारी लक्ष्मी उड़ती जाती है और हम विनाश तथा मत्युके मार्ग पर जा पहुंचे हैं। परन्तु क्या अब इस भयंकर पतनको हम रोक नहीं सकते हैं ? क्या । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियोंके विचार । १८९ रोग बिलकुल ही असाध्य हो चुका है ? नहीं, प्रबल प्रयत्न किया जाय तो संसारमें कोई भी काम अशक्य नही है। यदि हम अब भी चेत जावें. सुव्यवस्थित नियमोंकी रचना करें, अपने समाजमें विद्याका प्रचार करें, पूर्व और पश्चिमकी गार्हस्थ्य रचनाका अध्ययन-अभ्यास करके जो बातें अपने लिए अनुकूल और कल्याणकारी हों उन सबको संचय करके उस पर अपने गृहसंसारकी नीव जमा, जैनधर्मरूपी सुन्दर महलका द्वार सबके लिए खुला रक्खें, अपने हृदयको उदार बनावें, व्यापार और बैंकिंगके लिए एकता करें, आरोग्यविद्याके ज्ञानका और शुद्ध अध्यात्मविद्याका अपने समाजमें प्रेम उत्पन्न करें-ये सब बातें यदि हम कर सकें तो अब भी बचे रहनेका समय है-बारहवें घण्टेका ६० वाँ मिनिट अब भी हमारे हाथमें है । इतनेमें यदि हम कुछ तदबीर कर गुज़रेंगे तो मृत्युसे बच सकते हैं। -जे. एल. जैनी एम. ए. बार एट् ला। . (अँगरेज़ी जैनगज़टसे ) स्त्रियोंका आदर। हमारे देशमें जब उन्नति हो रही थी तब स्त्रियोंका खूब आदर था और वे शिक्षिता थीं। किन्तु जबसे उनका आदर कम होकर शिक्षा भी कम होगई है तभीसे अवनतिने यहाँ प्रवेश किया है। इसलिए यह कहना ही ठीक जंचता है कि अशिक्षणके रिवाज़ पर लात मारकर स्त्रियोंको खूब शिक्षित करना हमारे लिए पथ्य है । दूसरा कोई भी मार्ग हमारे कल्याणका नहीं है। बहुत पुराने जमानेको जाने दीजिए, महावीरके जन्मको केवल ढाई हज़ार वर्ष ही बीते हैं। उनके पिता अपनी पत्नीका कैसा आदर करते थे ? देखिए: आगच्छन्तीं नृपो वीक्ष्य प्रियां संभाष्य स्नेहतः। मधुरैर्वचनस्तस्यै ददौ स्वार्धासनं मुदा ॥ अर्थः-राजा सिद्धार्थने अपनी प्रियाको कचहरीमें आते देखकर मधुर वाक्योंसे प्रेमपूर्वक आलाप किया और प्रसन्न होते हुए अपना अर्ध सिंहासन बैठनेको दिया, जिस पर कि वे जाकर बैठी। इससे यह ज्ञात होगा कि थोड़े ही पहले बड़े बड़े राजा लोग भी अपनी त्रियोंका कितना सत्कार करते थे। अथवा यह कल्पना करनी चाहिए कि जो For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैनहितैषी - स्त्रीका इतना भारी आदर करते हैं उन्हींके घरमें तीर्थंकर सरीखे पुत्र उत्पन्न हो सकते हैं, जो कि तीनों लोकका उद्धार कर अपना भी परम कल्याण करनेवाले हैं। इस उदाहरणको देखकर उन्हें संतोष करना चाहिए जो स्त्रीको सदा बैरोंमें कुचलना पसंद करते हैं; अपनी केवल दासी समझते हैं और उसका आदर करनेमें या होने देनेमें पुरुषजातिका अनादर समझते हैं या पाप समझते हैं । - पं० वंशीधर शास्त्री । ( जैन मित्र, अंक ६ ) आदर्शका अदर्शन | समाजनेता महाशयो, आपलोग रूढियोंके, समाजके, धर्मगुरुओं के और राजाके झूठे-माने हुए डरसे लोगोंके सामने वास्तविक आदर्श नहीं रखते हैं और सत्यका जानबूझकर खून करते हैं; परन्तु याद रखिए आपको इसका बदला ज़रूर मिलेगा । समाजके एक समूहको वर्षोंतक दुःखमें पड़े रखनेवाले - पापमें डालनेवाले आप ही लोग हैं । आप दूसरोंको ' पुनर्जन्म' और 'कर्म' के सिद्धान्तका उपदेश दिया करते हैं; परन्तु इस सिद्धान्त में यदि आपको ही श्रद्धा होती तो वास्तविक आदर्शको समाजके सामने निडर होकर रखने में आप कभी आनाकान न करते । लड़ाईके मैदान में दश बीस रुपये महीने की तनख्वाह के लिए प्राणन्योछावर करदेनेका साहस करनेवाले तो बहुत मिलते हैं; परन्तु सत्यका जो स्वरूप आपने समझा हो वही स्वरूप समाजको आदर्श के रूप में समझानेकी हिम्मत बहुत थोड़े लोगों में होती है । यदि मैं किसी बात का सत्यस्वरूप स्पष्टशब्दोंमें प्रतिपादन करूँगा तो अमुक प्रचलित रीति या रूढ़ी पर चोट पहुँचेगी और इससे उस रूढ़ीके गुलाम मेरी निन्दा करेंगे, अगुए शत्रु बन जावेंगे, धर्मगुरु या पण्डितजन अपनी भेड़ोंको मेरे विरुद्ध उत्तेजित कर देंगे, और प्रचलित राजनीतिके किसी नियमका भंग होने से मुझे सजा मिलेगी । इस प्रकारके भयोंके वशीभूत होनेका परिणाम यह हुआ है कि वास्तविक आदर्शका दर्शन इस देशमें बहुत कठिन होगया है और यही इस देशके आत्मिक मरणका कारण है । इस आत्मिक मरणसे राजकीय परतंत्रता आदि अनेक फल उत्पन्न होते हैं । —समयधर्म । जैनहितेच्छु अंक ९-१० । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ----,AA सहयोगियोंके विचार। wwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmm गोत्रोंकी झंझट और जातिके गरीब । जब खण्डेलवाल-जातिका अस्तित्व कायम हुआ तब गोत्र थे या नहीं, इस विषयमें हम कुछ भी कह नहीं सकते । पर परम्पराकी किंवन्दती ऐसी है कि " खण्डेला एक बड़ा शहर था। उसके अधिकारमें चौरासी गाँव थे । जब जिनसेनाचार्य के उपदेशसे खण्डेला और उसके प्रान्तवर्ति गाँवोंके रहनेवाले जैनी हुए तब गाँवके नाम पर तो खण्डेलवाल-जातिका नाम संस्करण हुआ और जो चौरासी गाँव थे, उनके नाम पर गोत्रोंकी कल्पना हुई।" यदि यह किंवदन्ती सत्य है तो कहना पड़ेगा कि वास्तवमें गोत्रोंका असली स्वरूप कुछ नहीं है । जैसे दक्षिणीयोंमें बीजापुरके रहनेवाले बीजापुरकर और कोल्हापूरके रहनेवाले कोल्हापुरकर कहलाते हैं, वैसे ही बाकली गाँवके रहनेवाले बाकलीवाल, और काशली गाँवके रहनेवाले काशलीवाल कहलाने लगे और ऐसी हालतमें एक गोत्रमें भी यदि परस्पर शादी ब्याह होने लगे तो हमारी समझमें कोई हानि नहीं। क्योंकि पहले भी तो एक गाँवके रहनेवालोंमें ब्याह शादी होते थे । हम नहीं कह सकते कि खण्डेलवाल जातिमें ब्याह शादीके समय यह परस्पर गोत्रोंके मिलानेकी झंझटका कबसे सूत्रपात हुआ। पर पहले जब मामाकी लड़कीसे ब्याह होता था तब यह कहा जा सकता है कि यह पद्धति पुरानी नहीं है। इसके लिए और भी एक सुबूत यह है कि महाराष्ट्र-प्रान्तके खण्डेलवालोंमें अब भी सिर्फ दो ही गोत्र टाले जाते हैं । इस विषयको बिलकुल नया देखकर बहुतसे लोग हमसे सवाल करेंगे कि “ तुम इन गोत्रों के बचावको झंझट क्यों समझते हो और इसके उठा देनेसे लाभ क्या ?" इसका उत्तर यह है कि यदि जातिमें आज सरीखी अंधाधुन्धी नहीं होती, और पहले सरीखी उसकी शंखला बनी रहती तो शायद इस विषय पर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं भी पड़ती। क्योंकि उससे जातिके गरीबोंका काम अच्छी तरह चल सकता था । पर अब वह बात नहीं रही। धनवानोंका तो हर किसी तरह काम चल जाता है और बेचारे गरीब रोते ही रह जाते हैं। इसका कारण है, पहले चौरासी गोत्रोंका अस्तित्त्व था, तब तो गात्रोंके भी बचावमें विशेष तरत नहीं उठाना पड़ती थी, पर अब कठिनतासे २५-३० गोत्रोंका अस्तित्व मिलता है । सो होता क्या है कि जो धनवान होते हैं उनके यहाँ तो अपनी लड़के लड़कीका ब्याह करनेक लिए हज़ारों चातककी तरह नेत्र लगाये रहते हैं । ऐसी हालतमें उनकी एक जगह गोत्र अड़ भी जाय तो दूसरी For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैनहितैषी जगह, दूसरी जगह अड़ जाय तो तीसरी जगह और तीसरी जगह भी अड़ जाय तो चौथी जगह, मतलब यह कि कहीं न कहीं उनका चन्द्र रोहिणीकांसा योग तो मिल ही जाता है। पर कष्ट है तो बेचारे गरीबोंको । क्योंकि एक तो वे बड़ी ही कठिनतासे थोड़ा बहुत पैसा इकट्ठा कर पाते हैं और इससे भी अधिक कठिनतासे या बड़ी दौड़ धूप करके वे कहीं अपना योग मिलाते हैं और वैसी हालतमें कहीं गोत्रोंका पचड़ा आकर अटक गया तो बस फिर रहे वे निरंजनके निरंजन ही । वे धनवान् तो हैं ही नहीं जो उन्हें भी मेघ समझकर हजारों चातक उनकी ओर भी टकटकी लगाये हुए हों। और फिर एक बात है, कहीं तो ४ लड़केकी और ४ लड़कीकी ऐसी आठ गोत्रे बचाई जाती हैं और यदि किसीके दो या तीन ब्याह हुए हों तो १०-१२ तक या इससे भी और आगे नम्बर पहुँचता है। ये सब असुविधाएँ हैं और खासकर गरीबोंके मरणकी कारण हैं। जातिका जीवन उसकी बढ़वारी पर टिका हुआ है । तब हमें गरीबोंको भी जीता रखना पड़ेगा । हम चाहते हैं उन्हें सब तरहसे सुभीता हो, इसीलिए गोत्रोंको एक अनावश्यक झंझट समझते हैं और यदि यह उठा दिया जाय तो जातिका बहुत कल्याण हो सकता है-साधारण स्थितिवालोंको भी थोड़ा बहुत सुभीता हो सकता है । यह हमारी कमजोरी और कायरता है जो ऐसी अनिष्ट रूढियोंको उठा देनेसे हम कॉपते हैं। माना जा सकता है कि यह गोत्रोंका टालना कभी किसी सुभीतेके लिए चला और उस समयके लिए जरूरी भी हो, पर इस समय तो इसकी कोई जरूरत नहीं दिखती, किन्तु और उलटा हमारी इससे अत्यन्त हानि हो रही है। इसलिए हमें उचित है कि हम इस चिरसंगिनी रूढि-राक्षसीका जातिसे काला मुँह करें। -सत्यवादी, अंक ११-१२ । AN INSIGHT INTO JAINISM. अर्थात् जैनमतादग्दशन। इस पुस्तकमें बाबू ऋषभदासजी, बी. ए. ने जैनधर्मके प्रायः समी मुख्य मुख्य विषयों पर महत्वशाली लेख लिखे हैं । यह पुस्तक अंग्रेजी जाननेवाले जैनी अजैनी सभी महाशयोंके लिए बड़ी लाभदायक है । इसकी बहुत ही थोड़ी प्रतियां रहगई हैं। मूल्य केवल चार आने । पता-दयाचन्द्र जैन, बी. ए., बैरूनी खंदक, लखनऊ। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) नये छपे हुए जैन ग्रन्थ | भक्तामरचरित | इसमें प्रत्येक श्लोक, उसका अर्थ, प्रत्येक श्लोककी विस्तृत कथा, हिन्दी कविता, प्रत्येक श्लोकका मंत्र और यंत्र ये सब बातें छपाई गई हैं । कथायें बड़ी विलक्षण हैं । उनमें किस पुरुषने किस मंत्रका किस तरह जाप किया, उसको कैसी कैसी तकलीफें भोगनी पड़ीं और फिर अन्तमें उसे किस तरह मंत्रकी सिद्धि हुई इन सब बातोंकी आश्चर्यजनक घटनाओंका वर्णन किया है । भाषा बहुत सरल बनाई गई है । यह मूल संस्कृत ग्रन्थका नया अनुवाद है । कपड़ेकी सुन्दर जिल्द बँधी हुई पुस्तक है । मूल्य सवा रुपया । श्रेणिकचरित । यह अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान्के परम भक्त महाराजा श्रेणिकका जो इतिहासज्ञोंमें विम्बिसारके नामसे विख्यात हैं - चरित है । इसे श्रेणिकपुराण भी कहते हैं । इसका अनुवाद मूल संस्कृत ग्रन्थ परसे पं. गजाधरलालजीने किया है । आज कलकी बोलचालकी भाषामें हैं, पुष्ट चिकना कागज़, उत्तम छपाई, कपड़ेकी पक्की जिल्द, पृष्ठ संख्या ४०० । मूल्य १ ॥ ) धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचार | श्रीसकलकीर्ति आचार्यके संस्कृत ग्रन्थका सरल अनुवाद | इसमें प्रश्न और उत्तरके रूपमें श्रावकाचारकी सारी बातें बड़ी ही सरलतासें समझाई गई हैं । सब भाईयोंको मँगाकर पढ़ना चाहिए । साधारण पढ़े लिखे लोगोंके बड़े कामका ग्रन्थ है । मूल्य दो रुपया । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाटक समयसार भाषाटीकासहित । कविवर पं० बनारसीदासजीके भाषा नाटकसमयसारको कौन नहीं जानता । उनकी भाषा कविता जैनसाहित्यमें शिरोमाण समझी जाती है । इस अध्यात्मकी कविताका अर्थ सबकी समझमें नहीं आता था, इस कारण श्रीयुत नाना रामचन्द्र नाग (जैन ब्राह्मण ) ने भाषा बचनिकासहित इस ग्रन्थको खुले पत्रोंमें छपाया है । छपाई सुन्दर है । मूल्य २॥) बालक-भजनसंग्रह (द्वितीयभाग )। इसमें नई तर्ज़के, नई चालके २१ भजनोंका संग्रह है। इसके बनानेवाले लाला भूरामलजी (बालक)मुशरफ जयपुर निवासी हैं । मूल्य डेड आना। महेन्द्रकुमार नाटकके गायन । जयपुरकी शिक्षाप्रचारकसमिति जो महेन्द्रकुमार नामका नवीन विचारोंसे परिपूर्ण नाटक खेलती थी उसमेंके गायन छपाये गये हैं । बड़े अच्छे हैं । मूल्य एक आना। विश्वतत्त्व चार्ट। यह बढ़िया काग़ज़ पर छपा हुआ नकशा है । इसमें जैनधर्मके अनुसार सात तत्त्व और उनका विस्तार बतलाया है । जैनधर्मकी सारी बातें इसमें आ गई हैं । प्रत्येक मन्दिरमें जड़वाकर टाँगने लायक है । मूल्य दो आना। आराधना कथाकोश। - जैनकथाओंका भंडार । मूल संस्कृतसहित सुन्दरतासे छपा है। भाषा बोलचालकी सबके समझने योग्य है । पहले भागका मूल्य १।) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनित्यभावना। श्रीपद्मनन्दि आचार्यका अनित्यपंचाशत मूल और उसका अनुवाद । अनुवाद बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारने हिन्दी कवितामें किया है। शोक दुःखके समय इस पुस्तकके पाठसे बड़ी शान्ति मिलती है। मूल्य डेड़ आना। पंचपरमेष्ठीपूजा। संस्कृतका यह एक प्राचीन पूजाग्रन्थ है । इसके कर्ता श्रीयशोनन्दि आचार्य हैं। इसमें यमक और शब्दाडम्बरकी भरमार है। पढ़नेमें बड़ा ही आनन्द आता है । जो भाई संस्कृत पूजापाठके प्रेमी हैं उन्हें यह अवश्य मँगाना चाहिए । अच्छी छपी है। मूल्य चार आना। चौवीसी पाठ (सत्यार्थयज्ञ)। ___ यह कवि मनरँगलालजीका बनाया हुआ है। इसकी कविता पर मुग्ध होकर इसे लाला अजितप्रसादजी एम. ए. एल एल. बी. ने छपाया है । कपड़ेकी जिल्द बँधी है । मूल्य ॥) . ... जैनार्णव। इसमें जैनधर्मकी छोटी बड़ी सब मिलाकर १०० पुस्तकें हैं । सफ़रमें साथ रखनेसे पाठादिके लिए बड़ी उपयोगी चीज़ है। बहुत सस्ती है। कपड़ेकी जिल्द सहित मूल्य १।) श्रीपालचरित। पहले यह ग्रन्थ छन्द बंध छपा था। अब पं. दीपचन्दजीने सरल बोलचालकी भाषामें कर दिया है जिससे समझनेमें कठिनाई नहीं पड़ती। पक्की कपड़ेकी जिल्द बँधी है। मूल्य १) For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जम्बूस्वामीचरित । यह भी कवितासे बदलकर सादी बोलचाल की भाषामें कर दिया गया है । अन्तिम केवली जम्बूस्वामीका पवित्र चरित्र है । मूल्य 1 ) दशलक्षणधर्म | इसमें उत्तम क्षमादि दशधर्मोका विस्तृत व्याख्यान है । रत्नकरंडवचनिका आदि ग्रन्थोंके आधारसे नये ढंगसे लिखा गया है । भाषा बोलचालक है । साथमें दशलक्षण व्रत कथा भी है । शास्त्रसभामें बाँचने योग्य है । भादोंके तो बड़े कामकी चीज़ है । मूल्य पाँच आना । · आत्मशुद्धि । यह पुस्तक लाला मुंशीलालजी एम. ए. की लिखी हुई हालही प्रकाशित हुई हैं । विषय नामसे ही स्पष्ट है । जैनग्रन्थोंके आधार से लिखी गई है । इसमें ' शील और भावना ' भी शामिल है । मूल्य ।) गृहिणीभूषण | स्त्रियोंके लिए बड़ी ही उपयोगी पुस्तक है । जैनस्त्रियोंके सिवाय दूसरी स्त्रियाँ भी लाभ उठा सकती हैं । स्त्रियोंके कर्तव्य, व्यवहार, विनय, लज्जा, शील, गृहप्रबन्ध, बच्चोंका लालनपालन, पातिव्रत, परोपकार आदि-सभी विषयोंकी इसमें सुन्दर शिक्षा दी गई है । भाषा शुद्ध और सरल है। जैनसमाजमें स्त्रीशिक्षाकी इससे अच्छी और कोई पुस्तक प्रचलित नहीं । मूल्य आठ आना । For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) महावीरचरित । श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजने हालही लिख कर प्रकाशित कराया है । अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरका साधारण परिचय पाने के लिए इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए । मूल्य एक आना । अकलंकचरित । इसमें अर्थसहित अकलंकाष्टक, अकलंकदेवका चरित, अकलंकाष्टकका पद्यानुवाद और अकलंकदेवका कुछ ऐतिहासिक परिचय दिया है । फिरसे छपा है । मू० तीन आना । I 1 हिन्दी भक्तामर - और कल्याणमंदिर | | दोनोंका जुदा जुदा मूल्य एक एक आना है । यह दोनों स्तोत्रोंका पं. गिरिधर शर्माका खड़ी बोलीमें किया हुआ पद्यानुवाद है । सीताचरित । इसमें सती सीताजीका पवित्र चरित है। बाबू दयाचन्द्रजी गोयलय बी. ए. ने नये ढंगसे शिक्षाप्रद बनकर लिखा है | भाषा भी सहज है । स्त्री-पुरुष सब लाभ उठा सकते हैं । मूल्य तीन आना । प्रद्युम्नचरितसार । बड़े प्रद्युम्नचरितकी कथाका सार भाग इसमें दिया गया है । भाषा सरल है | लेखक; बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीय बी. ए. । मूल्य छह आना । सूतकी मालायें जा देनेके लिए बहुत अच्छी होती हैं । एक रुपयेकी दशके हिसा - बसे हमारे यहाँ हर समय मिलती हैं । मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र केशर | काश्मीरकी प्रसिद्ध केशर हमारे यहाँ हर समय बिक्रीके लिए तैयार रहती है । पवित्रतामें किसी प्रकारका सन्देह नहीं । विश्वस्त आढतियाकी मार्फत मँगाई जाती है । मन्दिरों के लिए यही केशर मँगाना चाहिए । मूल्य फी तोला एक रुपया । ( ६ ) SVVSSSVV: सर्वसाधारणोपयोगी हिन्दी ग्रन्थ | स्वर्गीय जीवन । RRRRRRR यह अमेरिकाके आध्यात्मिक विद्वान डा० राल्फ वाल्डो ट्राइनके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ In Tune with the infinite का हिन्दी अनुवाद है। पवित्र, शान्त, नीरोगी और सुखमय जीवन कैसे बन सकता है, मानसिक प्रवृत्तियोंका शरीर पर और शारीरिक प्रकृतियोंका मन पर क्या प्रभाव पड़ता है आदि बातोंका इसमें बड़ा हृदयग्राही वर्णन है । प्रत्येक सुखाभिलाषी स्त्रीपुरुषको यह पुस्तक पढ़ना चाहिए | मूल्य ॥ ) ग्यारह आने । बाबू मैथिलीशरणजी गुप्त के हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि बाबू मैथिलीशरणजीको कौन नहीं जानता । अपने ग्राहकोंके सुभीते के लिए हमने उनके सब ग्रन्थ विक्री के लिए मँगाकर रक्खे हैं | बाजिब मूल्य पर भेजे जाते हैं: १) रंगमें भंग भारतभारती, सादी राजसंस्करण २ ) 11) " जयद्रथवध काव्य काव्य ग्रन्थ । । पद्यप्रबन्ध मौर्यविजय For Personal & Private Use Only 1) 11 =) 1) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((७) जयन्त नाटक। कविशिरोमाण शेक्सपियरके 'हेम्लेट' का हिन्दी अनुवाद । इस नाटककी प्रशंसा करना व्यर्थ है। अनुवादके विषयमें इतना कह देना काफी होगा कि इसे बिलकुल देशी पोशाक पहना दी गई है और इस कारण इस देशवासियोंके लिए यह बहुत ही रुचिकर होगा। रूपान्तरित होने पर भी यह अपने मूलके भावोंकी खूब सफलताके साथ रक्षा कर सका है। रंगमंच पर अच्छी तरह खेला जा सकता है । मूल्य ॥) हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर-सीरीजकी नई पुस्तकें स्वदेश-जगत्प्रसिद्ध कविसम्राट् डा० रवीन्द्रनाथ टागोरके ८ निबन्धोंका संग्रह । जो लोग असली भारतवर्षके दर्शन करना चाहते हैं, भारतके समाजतंत्र और राष्ट्रतंत्रका रहस्य समझना चाहते हैं, पूर्व और पश्चिमके भेदको हृदयंगम करना चाहते हैं और सच्चे स्वदेशसेवक बनना चाहते हैं उन्हें यह निबन्धावली अवश्य पढ़ना चाहिए । यह सीरीजकी आठवीं पुस्तक है । मूल्य दश आने। चरित्रगठन और मनोबल-इसमें इस बातको बहुत अच्छी तरहसे बतला दिया है कि मनुष्य अपने चरित्रको जैसा चाहे वैसा बना सकता है । मानसिक विचारोंका चरित्र पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । सीरीजकी यह नवीं पुतक है । मूल्य तनि आने । आत्मोद्धार-यह सीरीजका दशवाँ ग्रन्थ है। यह अमेरिकाकी नीग्रो ( हबशी) जातिके नेता डा० बुकर टी. वाशिंगटनका आत्मचरित है। वाशिंगटन एक अतिशय दरिद्र गुलामकी झोपड़ीमें पैदा हुए थे। शिक्षाका कोई इन्तजाम न था। उनकी जातिका पशुओंके बराबर भी हक न था। ऐसे मनुष्यने अपनी उद्योगप्रियता, दृढविश्वास, अश्रान्त परिश्रम और परोपकार शीलतासे इस समय जो प्रतिष्ठा प्राप्त की है For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) उसका इसमें सिलासिलेवार बड़ा ही मनोरंजक आकर्षक और शिक्षाप्रद, वर्णन है । भारतवर्षके लिए यह पुस्तक कल्पवृक्षके तुल्य है। यह घर घर पढ़ी जाना चाहिए । कोई भी मनुष्य इसे बिना पढ़े न रहे । इससे जो जो शिक्षायें मिल सकती हैं उनका वर्णन नहीं हो सकता । मूल्य सादी जिल्दका १) पक्की जिल्दका ११) सवा रुपया । यह जैनहितैषीके उपहारमें भी दिया गया है । शान्तिकुटीर-यह सीरीजका ग्यारहवा ग्रन्थ हैं । यह बाबू अविनाशचन्द्रदास एम. ए. बी. एल. के बंगला ग्रन्थका अनुवाद है । अर्थात् 'प्रतिभा'के और इसके मूल लेखक एक ही हैं। जिन सज्जनोंने 'प्रतिभा'. को पढ़ा है उनको इसकी उत्तमताका परिचय देनेकी ज़रूरत नहीं है। क्योंकि यह भी उसीके ढंगका सुन्दर, भावपूर्ण, पवित्र और शिक्षाप्रद है। इसमें भी प्रकृतिका बहुत ही अच्छा वर्णन है और सादा पवित्र और लोकहितकारी जीवन कैसा होता है यह बतलाया गया है। गार्हस्थ्यजीवनका इससे अच्छा, उन्नत और उदार आदर्श शायद ही और कहीं मिले । बालक-बालिका स्त्रीपुरुष सब ही इसे नि:संकोच होकर पढ सकते हैं । हिन्दीमें इस ढंगके उपन्यास बहुत ही कम हैं । मूल्य सादी जिल्दका ॥) पक्की जिल्दका एक रुपया । बूढेका ब्याह। एक सामाजिक काव्य है। एक १० वर्षकी लड़की और साठ वर्षके बूढके ब्याहकी कथाको लेकर इसकी रचना की गई है । रचना बहुत सुन्दर है । इसके लेखक हिन्दीके प्रसिद्ध कवि श्रीयुक्त सय्यद अमीर अली सा० हैं । साथमें पाँच सुन्दर चित्र दिये हैं । छपाई सफाई और आवरण पृष्ठको देखकर पाठक मुग्ध हो जावेंगे। मूल्य छह आना । For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमप्रभाकर। रूसके प्रसिद्ध विद्वान् महार्ष टाल्सटायकी शिक्षाप्रद कहानियोंका हिन्दी अनुवाद । बालक, वृद्ध, युवा सबके पढ़ने लायक । मूल्य एक रुपया । शुश्रूषा। इन्दौरके नामी डाक्टर ताम्बेसाहबकी प्रसिद्ध पुस्तकका अनुवाद है। निरोगी रहनेके लिए और रोगियोंकी सेवा सिखानके लिए यह पुस्तक बहुत अच्छी है । इसे पं० गिरिधर शर्माने लिखा है । मूल्य एक रुपया। कठिनाईमें विद्याभ्यास। बडी बड़ी कठिनाइयोंके रहते हुए भी जिनके हृदयमें विद्याके प्रति भक्ति होती है वे किस त्रह विद्वान् बन जाते हैं, मोची, कुम्हार, खेतिहर ; बढ़ई, मल्लाहों जैसे नीच कुलोंमें भी जन्म लेकर दरिद्रताके दुःखोंमें पड़े रहकर भी उद्योगी पुरुष कैसे बड़े बड़े विद्वान बन गये हैं, अन्धों और पतितोंने भी अपनी विद्यावृद्धि किस तरह की है, इन सब बातोंके ऐतिहासिक उदाहरण इस पुस्तकमें दिये हुए हैं । पढ़कर तबियत फड़क उठती है। विद्याभिरुचि उत्पन्न करने और उद्योगसे प्रेम करना सिखानेके लिए यह पुस्तक जादूका काम करती है। प्रत्येक भारतवासकि कानों तक इसके शब्द पहुँचना चाहिए। विद्यार्थियोंको तो अवश्य पढ़ना चाहिए । अँगरेजीमें इसकी लाखों प्रतिया बिक चुकी हैं। भाषा सुगम है । मूल्य ॥) पक्की जिल्दका दश आना। विद्यार्थीजीवनका उद्देश्य । एक छोटासा निबन्ध है । एक नामी विद्वानके उर्दू निबन्धका अनुवाद है । अनुवादक बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीय बी. ए. । विद्यार्थी मात्रको पढ़ना चाहिए । मूल्य एक आना। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) दियातले अँधेरा। एक छोटीसी शिक्षाप्रद गल्प है। पढ़कर आप बहुत प्रसन्न होंगे और यदि आप अपनी स्त्रीको पढ़ानेमें लापरवाही करते होंगे तो चिन्ता'पूर्वक पढ़ाने लगेंगे । मूल्य डेड़ आना। .. सदाचारी बालक । . यह भी एक छोटीसी सुन्दर गल्प है । बालकों और विद्यार्थियोंके कामकी है । मूल्य डेड़ आना। सामाजिक चित्र। - इस गल्पमें एक उदारहृदय युवाके सुन्दर चरित्रका चित्र खींचा गया है । मूल्य एक आना। मनोहर सच्ची कहानियाँ। राजपूतानेके प्रसिद्ध प्रसिद्ध वीर पुरुषों और वीरवालाओंकी कहनियाँ फड़कती हुई भाषामें लिखी गई हैं। इसके लेखक पं० द्वारकाप्रसादजी चतुर्वेदी हैं । मूल्य आठ आना। कहानियोंकी पुस्तक। यह लाला मुशीलालजी एम. ए. की लिखी हुई है । इसमें छोटी छोटी सच्ची कहानियोंका संग्रह है जो कि बहुत ही शिक्षाप्रद हैं । विद्यार्थियोंके विशेष कामकी है । मूल्य पाँच आना। मैनेजर, हिन्दीग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) -राष्ट्रीय ग्रन्थः १ सरल-गीता । इस पुस्तकको पढ़कर अपना और अपने देशका कल्याण कीजिये । यह श्रीमद्भगवद्गीताका सरल-हिन्दी अनुवाद है। इसमें महाभारतका संक्षिप्त वृत्तान्त, मूल श्लोक, अनुवाद और उपसंहार ये चार मुख्य भाग हैं। सरस्वतीके सुविद्वान संपादक लिखते हैं कि यह 'पुस्तक दिव्य है।' मूल्य ॥ २ जयन्त । शेक्सपियरका इंग्लैंडमें इतना सम्मान है कि वहांके साहित्यप्रेमी अपना सर्वस्व उसके ग्रन्थोंपर न्योछावर करने के लिए तैयार होते हैं। उसी शेक्सपियरके सर्वोत्तम 'हैम्लैट' नाटकका यह बड़ा ही सुन्दर अनुवाद है। मूल्य ; सादी जिल्द ॥ ३ धर्मवीर गान्धी । इस पुस्तकको पढ़कर एक बार महात्मा गान्धीके दर्शन कीजिये, उनके जीवनकी दिव्यताका अनुभव कीजिये और द० अफ्रिकाका मानचित्र देखते हुए अपने भाइयोंके पराक्रम जानिये । यह अपूर्व पुस्तक है। मूल्य।। ४ महाराष्ट-रहस्य । महाराष्ट्र जातिमें कैसे सारे भारतपर हिन्दू सानाज्य स्थापित कर संसारको कंपा दिया इसका न्याय और वेदान्तसंगत ऐतिहासिक विवेचन इस पुस्तकमें है । परन्तु भाषा कुछ कठिन है। मूल्य-J॥ ५ सामान्य-नीतिकाव्य । सामाजिक रीतिनीतिपर यह एक अन्ठा काव्य ग्रन्थ है। सब सामयिक पत्रोंने इसकी प्रशंसा की है । मूल्य का इन पुस्तकोंके अतिरिक्त हम हिन्दीकी चुनी हुई उत्तम पुस्तकें भी अपने यहाँ विक्रयार्थ रखते हैं। नवनीत-मासिक पत्र । राष्ट्रीय विचार । वा० मूल्य २। यह अपने ढंगका निराला मासिक पत्र है । हिन्द देश, जाति और धर्म इस पत्रके उपास्य देव हैं। आत्मिक उन्नति इसका ध्येय है। इतना परिचय पर्याप्त न हो तो। के टिकट भेजकर एक नमूनेकी कापी मंगा लीजिये । ...: ग्रन्थप्रकाशक समिति, नवनीत पुस्तकालय. पत्थरगली, काशी. For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र असली २० वर्षका ( १२ ) सा तक (एक दर्जन (५) डाब्धला आजमुदा सैकड़ों प्रशंसा पत्र प्राप्त हाजमेकी प्रसिद्ध अक्सीर दवा नमक सलेमाना फायदा न करे तो दाम वापस. मिलने का पता सुसेन जैन वैद्य अडमार्क देवनार इटावा. ददुदमन - दादकी अकसीर दबा फी डबी दन्तकुमार -- दांतोंकी रामबाण दवा | डबी नोट - सब रोगोंकी तत्काल गुण दिखानेवाली दवाओंकी बड़ी सूची For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) चित्रशाला स्टीम प्रेस, पूना सिटिकी अनोखी पुस्तकें । चित्रमयजगत्-यह अपने ढंगका अद्वितीय सचित्र मासिकपत्र है। " इलेस्ट्रेटेड लंडन न्यूज" के ढंग पर बड़े साइजमें निकलता है । एक एक पृष्ठमें कई कई चित्र होते हैं । चित्रोंके अनुसार लेख भी विविध विषयके रहते हैं । साल भरकी १२ कापियोंको एकमें बंधा लेनेसे कोई ४००, ५०० चित्रोंका मनोहर अलबम बन जाता है। जनवरी १९१३ से इसमें विशेष उन्नति की गई है। रंगीन चित्र भी इसमें रहते हैं । आर्टपेपरके संस्करणका वार्षिक मूल्य ५॥) डाँ० व्य० सहित और एक संख्याका मूल्य ॥ ) आना है । साधारण कागजका वा० मू० ३॥) और एक संख्याका ।) है। राजा रविवर्मा के प्रसिद्ध चित्र-राजा साहबके चित्र संसारमरभरमें नाम पा चुके हैं। उन्हीं चित्रोंको अब हमने सबके सुभीतेके लिये आर्ट पेपरपर पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है। इस पुस्तकमें ८८ चित्र मय विवरणके हैं। राजा साहबका सचित्र चरित्र भी है। टाइटल पेज एक प्रसिद्ध रंगीन चित्रसे सुशोभित है। मूल्य है सिर्फ १) रु० । चित्रमय जापान-घर बैठे जापानकी सैर । इस पुस्तकमें जापानके सृष्टिसौंदर्य, रीतिरवाज, खानपान, नृत्य, गायनवादन, व्यवसाय, धर्मविषयक और राजकीय, इत्यादि विषयोंके ८४ चित्र, संक्षिप्त विवरण सहित हैं । पुस्तक अव्वल नम्बरके आर्ट पेपर पर छपी है । मूल्य एक रुपया । सचित्र अक्षरबोध-छोटे २ बच्चोंको वर्णपरिचय करानेमें यह पुस्तक बहुत नाम पा चुकी है । अक्षरोंके साथ साथ प्रत्येक अक्षरको बतानेवाली, उसी अक्षरके आदिवाली वस्तुका रंगीन चित्र भी दिया है। पुस्तकका आकार बड़ा है। जिससे चित्र और अक्षर सब सुशोभित देख पड़ते हैं । मूल्य छह आना। वर्णमालाके रंगीन ताश-ताशोंके खेलके साथ साथ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेके लिये हमने ताश निकाले हैं। सब ताशोंमें अक्षरोंके साथ रंगीन चित्र और खेलनेके चिन्ह भी हैं । अवश्य देखिये : फी सेट चार आने । For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) सचित्र अक्षरलिपि-यह पुस्तक भी उपर्युक्त "सचित्र अक्षरबोध " के ढंगकी है। इसमें बाराखडी और छोटे छोटे शब्द भी दिये हैं । वस्तुचित्र सब रंगीन हैं। आकार उक्त पुस्तकसे छोटा है । इसीसे इसका मूल्य दो आने हैं। सस्ते रंगीन चित्र-श्रीदत्तात्रय, श्रीगणपति, रामपंचायतन, भरतभेट हनुमान, शिवपंचायतन, सरस्वती, लक्ष्मी, मुरलीधर, विष्णु, लक्ष्मी, गोपी। चन्द, अहिल्या, शकुन्तला, मेनका, तिलोत्तमा, रामवनवास, गजेंद्रमोक्ष, हरिहर भेट, मार्कण्डेय, रम्भा, मानिनी, रामधनुर्विद्याशिक्षण, अहिल्योद्धार, विश्वामित्र मेनका, गायत्री, मनोरमा, मालती, दमयन्ती और हंस, शेषशायी, दमयन्ती इत्यादिके सुन्दर रंगीन चित्र । आकार ७४५, मूल्य प्रति चित्र एक पैसा । श्री सयाजीराव गायकवाड बड़ोदा, महाराज पंचम जार्ज और महारानी मेरी कृष्णशिष्टाई, स्वर्गीय महाराज सप्तम एडवर्डके रंगीन चित्र, आकार ८x१० मूल्य प्रति संख्या एक आना। लिथोके बढियाँ रंगीन चित्र-गायत्री, प्रातःसन्ध्या, मध्याह्न सन्ध्या सायंसन्ध्या प्रत्येक चित्र । ) और चारों मिलकर ॥ ) नानक पंथके दस गुरू स्वामी दयानन्द सरस्वती, शिवपंचायतन, रामपंचायतन, महाराज जार्ज, महा. रानी भेरी । आकार १६ ४२० मूल्य प्रति चित्र ।) आने। के अन्य सामान्य-इसके सिवाय सचित्र कार्ड, रंगीन और सादे, स्वदेश बटन, स्वदेशी दियासलाई, स्वदेशी चाकू, ऐतिहासिक रंगीन खेलनेके ताश • आधुनिक देशभक्त, ऐतिहासिक राजा महाराजा, बादशाह, सरदार, अंग्रेज राजकता, गवर्नर जनरल इत्यादिके सादे चित्र उचित और सस्ते मूल्य पर मिलते हैं। स्कूलोंमें किंडरगार्डन रीतिसे शिक्षा देनेके लिये जानवरों आदिवे चित्र सब प्रकारके रंगीन नकशे, ड्राईंगका सामान, भी योग्य मूल्यपर मिलता है इस पतेपर पत्रव्यवहार कीजिये। मैनेजर चित्रशाला प्रेस, पूना सिटी। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्रीपरमात्मने नमः | रिपोर्ट भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनीसंस्थाकी वी.नि.सं. २४३९ से २४४० की दीवालीतक । जिसको पन्नालाल बाकलीवाल मंत्री - भारतीयजैन सिद्धांतप्रकाशिनी संस्था काशीने बनारस के चंद्रप्रभाप्रेस में बाबू - गौरीशंकरलालके प्रबंधसे छपाया । वीरनिर्वाण संवत् २४४१ इस्वी सन् १९१५ । For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रेसकी आवश्यकता। यहां बनारसमें कोई प्रेस ५-६ फारमसे जियादा काम नहिं देता संस्कृतका काम बड़ा ही कठिन है ५-६ बार प्रूफ देखे विना ग्रंथ शुद्ध नहिं हो सकते। यहांके प्रेस ४ बारसे जियादा शुद्ध करनेको प्रूफ नहिं देते । सो भी सामको प्रूफ देते हैं सवेरे ही ( बजे पेज शुद्धहुये चाहते हैं । हमारे संपादक सब उच्च कक्षाके विद्यार्थी हैं विद्यार्थियों को पढने घोकनेका प्रातःकाल ही उत्तम समय है। इसलिये रात्रिको ही निद्रा छोड़ शोधना पड़ता है। दिनभरकी कड़ी पढ़ाईसे मग्ज खाली होजाता है ऐसी अवस्थामें इन प्राचीन महान् ग्रंथाकों संशोधन ठीक होना अत्यंत कष्टसाध्य है। यदि घरका प्रेस हो तौ ४ बारकी जगह ८ बार प्रूफ देख सकते हैं। रातको सवेरे न देखकर दुपहरको अच्छे मन्जसे निराकुलतासे देखकर बहुत ही शुद्ध ग्रंथ छपा सकते हैं। इसके सिवाय जो काम दूसरोंके प्रेसमें ३०००) रुपये देनेपर छपता है वह घरके प्रेसमें २०००) में ही छप जायगा। दूसरेके प्रेसमें कभी २ श्याही घटिया लगा देते हैं जल्दी जल्दी छापकर खराब छपाई कर देते हैं, घरके प्रेसमें अच्छे कारीगर रखकर धीरें २ निर्णयसागरप्रेसकी छपाईसे भी बढ़िया छपाई करके सुंदर मनोरंजक ग्रंथ निकाल सकते हैं। इसलिये यदि कोई महाशय इस संस्थाको कमसे कम २०००) रुपयका दान व सहायता करें तौ संस्थाका काम बहुत ही उत्तमतासे स्थायी चल सकता है। यदि कोई महाशय दान नहिं कर सकें तौ २०००) रुपया।।) या॥) सैकड़के व्याजपर ही दें। यदि रकम जानेका डर हो तो वे प्रेस, वगेरह सब सामान बतौर गिरवीके रख सकते हैं। आशा है कि चैत्रतक कोई महाशय इस प्रार्थना पर भी ध्यान देक हमे सहायताकी स्वीकारता भेजैंगे। प्रार्थी-पन्नालाल बाकलीवाल, ठि-मदागिन जैनमंदिर पोष्ट बनारस सिरी। For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीवीतरागाय नमः। भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनीसंस्थाकाशीकी द्विवार्षिक-रिपोर्ट। . . वी. नि. सं. २४३९ से २४४० की दीवाली तक। संस्थाकी उत्पत्ति के कारण। पाठकमहाशय मैं बंबईके निवास तथा रोजगारसे विरक्त होकर किसी तीर्थस्थानमें रहकर किसी भी धार्मिक संस्थाकी सेवा करके शेषजीवन वितानेकी इच्छासे निकला था, फिरते घूमते शेषमें जब हस्तिनापुरके नवीन स्थापित ऋषभब्रह्मचर्याश्रममें चार महीन निवास किया तो वहीं पर बंगला अखवारोंके पढनेसे विचार हुआ कि"इस समय बंग देशमें साहित्यकी उन्नति व नवीन विषयकी खोज में विद्वानोंकी बड़ी भारी उत्कंठा है । यदि वहांपर बंगभाषामें कुछ जैनग्रंथ प्रकाशित करके जैनधर्मका परिचय कराया जाय तौ चिरकालसे मत्स्यमांसभोजी कालीभक्त बंगाली विद्वानोंके हृदय में अहिंसाधर्मका प्रकाश वा प्रभाव अवश्य ही पड़ सकता है" ऐसा विचार होनेपर बंगभाषाके साहित्यसे अनभिज्ञ होतेहुये भी मैंने वहीं पर 'जैनधर्मका परिचय' और 'जैनसिद्धांतप्रवेशिका' नामकी दो पुस्तकों का बंगानुबाद कर डाला और अपने एक प्रा. 'चीन मित्र बंगाली विद्वान् से भाषाका संशोधन कराकर प्रेसकापी भी तैयार कराकर मगाली परंतु छपानेकेलिये द्रव्य व बंगला प्रेसका प्रबंध वहां जंगलमें होना असंभव था। तब विचार किया गया For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि-इनका मुद्रणकार्य व प्रचार कलकत्ता रहनेसे हो सकता है परंत कलकत्तेमें अनक छापेके विरोधी माइयोंका निवास विशेष देख वहां जानेका साहस न हुवा तब तर्थिस्थान, और अपने प्रयत्नसे स्थापित स्याद्वादपाठशालाके सुधार करनेकी भी इच्छा रखकर काशीमें ही रहना स्थिर कर लिया और यहीं पर आकर श्रीयुत बाबू नंदकिशोरजी व देवेंद्रप्रसाद से मिलकर उन्हींको सभापति मत्री आदि बना कर 'वंगीयसार्वधर्मपरिषत् ' नामकी एक संस्था स्थापन करके यथाशक्य परिश्रम करने लगा और श्रेष्टिवर्य नाथारंगजी गांधीको विशेष उदारतासे उत्साहके साथ कार्य प्रारंभ हो गया । परंतु अचिरकालमें ही उक्त महाशयोंका विशेष परिचय मिलनेसे और हमारे स्वभावसे सर्वथा विरुद्धप्रकृति पानेसे लाचार होकर उक्त परिषदसे सर्वथा ही संबंध छोडदेना पड़ा और अपने उद्देश्य की सिद्धि कलिये 'श्रीजैनधर्मप्रचारिणीसभा काशी' नामकी एक नवीन संस्था स्थापन करना पडी और श्रीमान् श्रेष्ठिवर्य गांधी नेमिचंद बहालचदजी वकील उस्मानाबाद निवासीकी विशेष द्रव्यसहायता होने से सांख्य, न्याय वेदांतके ज्ञाता अंजैन विद्वानों में अहिंसा धर्म वा अने. कांत जैनसिद्धांतोंका प्रकाश करनेकेलिये तो "सतातनजैनग्रंथ माला" का प्रारंभ किया गया और सर्वसाधारण अजेनों में वा बंगदेश में जैनधर्मका प्रचार करनेकी इच्छासे हमारे प्रात:स्मरणीय पूज्यपाद गुरुवर्य पं. चुन्नीलालजी मुरादाबाद निवासीके नामस्मरणार्थ 'चुन्नीलालजैनग्रंथमाला' और बंगलाके पेपरों में जैनधर्म संबंधी लेख प्रकाशित करनेमें प्रयत्न करना प्रारंभ किया गया । परंतु विरोधियोंकी तरफसे हमारे कार्यसाधनमें ऐसे २ विरोध घदपद पर खड़े किये गये जिनका कुछ भी जवाब न देकर यथा• शक्ति कार्य करने में ही ध्यान लगाया गया। तथापि इस विरोधक कारण हमारे ग्रंथप्रकाशनकार्यमें परमसहायक दानवीर श्रष्टिवर्य For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथारंगजी गांधीवालोंक साथ भी ऐसा विरोव हो गया कि उन से सहायता मिलना तो दूर रहा पत्रव्यवहारतक बंद हा गया और उनके द्रव्यसे उनके नामले जैनेंद्रव्याकरणादिका पूरा पूरा उद्धार होनेका कार्य चलते चलते ही बंध हो गया तथा इस धर्म कार्यके परमसहायक श्रीयुत पंडित लालाराम जी थे, उनकोभी आदिपुराणजीके बडे भारी कार्यसहित बनारस छोडकर कोल्हापुर चले जाना पड़ा और २० वर्षस गणेशप्रसाद न्यायाचार्य के साथ अत्यंतप्रीतिमय गुरुशिष्यभाव था वह भी नष्ट होगया । इत्यादि अनेक कारणोंसे सभाके समस्त उद्देश्योंकी पूर्ति करनमें असमर्थ होनेस लाचार होकर गतवर्ष स्याद्वादमहाविद्यालयके उत्सवके समय अनेक महाशयोंकी संमतिसे ग्रंथप्रकाशनमात्रका एक ही उद्देश्य रखकर संस्थाका नाम बदलकर 'भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनी. • संस्था' रखना पडा । इसके शिवाय इस धार्मिक संस्थाकी उत्पत्तिके दो प्रधान कारण और भी हैं. एक तौ स्याद्वादमहाविद्यालयमें पढाई का उचित प्रबंध न होने आदिके ५३ कारणोंसे होनहार ७ विद्याथियोंका अलग होकर विद्याध्ययनका सहारा न होना, दूसर कलकत्ता संस्कृतयूनिवर्सिटीमें श्वेतांबरी जैनग्रंथोंकी तरह दिगंबरी ग्रंथ भी मुद्रण कराकर भरती करानेकी प्रबल इच्छाका होना। इन ही कारणोंसे इस संस्थाका प्रादुरभाव हुवा है और मुख्यतासे संस्कृत ग्रंथ और गौणतासे हिंदीबंगलामें जैनग्रंथ प्रकाशकर अजैन विद्वानोंमें जिनधर्म की प्रभावना करनेका ही एकमात्र उद्देश्य निश्चित किया गया। कार्यारंभका विचारविभ्रम और अंत । । । पाठक महाशय ! उक्त उद्देश्य के साधनार्थ कार्य प्रारंभ करने का बिचार तो कर लिया गया परंतु इस कार्यकी गुरुतापर विचार करनेसे हमारे सब विचार प्रायः हवा हो गये क्योंकि इसमें अत्यंत For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिश्रमके अतिरिक्त द्रव्यकी बड़ी भारी आवश्यकता दीखने लगी। सनातनजैनग्रंथमालाका १० फारमका एक अंक छपाकर तैयार करनेका हिसाब लगाया गया तो मालूम हुवा कि कमसे कम ८) रु० फारम तो उत्तम छपाईका और ८) ही रुपये ५० पौंडके कागजका ५) या ६) रुपये प्रत्येक फारमका संपादकीय व्यय (लिखाई सुधाई वगेरह ) इस प्रकार २१) २२) रुपया एक फारमके अंदाज खर्च होनेसे १० फारमके अंककी छपाई मयटाइटलपेजके अनुमान २३०) रुपये खर्च पड़ेंगे इसके सिवाय एक मकान या गुदाम चाहिये एक सिपाही प्रूफ पहुंचानेवाला डाँक लेजानेवाला तथा मकानकी सफाई, तेलबत्ती, इस्तहार, बारदाना, चिट्ठीलिफाफा, पुस्तकें रखने वगेरहको फर्नीचर बनवाने वगेरहके अनेक खर्च सूझने लगे। करीब करीब तीनसौ रुपये महीने के खर्चसे कम खर्च नहीं पड़ेगा, ऐसा निश्चय होनेपर हमारे विचार फिर उडने लगे तब खर्च कम करनका विचार किया गया तो छपाई कम देन, कागज पतले घटिया लगाने, सुधाई कम देनेका खच तो किसी प्रकार भी कम नहीं करसके। तब फुटकर खर्चकी कमी करनेका प्रयत्न किया गया जब उसमें भी कमी नहिं हो सकी तब श्रीयुत पंडित लालारामजीके स्याद्वादरत्नाकरकार्यालयका बड़ा भारी सहारा मिल गया, अर्थात् मकानभाड़ा, तेलबत्ती, कागज सुतली. आदगी, फर्नीचर वगेरह कछ भी जदे नहिं करना इसीम सब चलाते रहना, जब आमदनी हो, स्टाक बढ़जाय ता, मकान आदिके भाडेकी फिकर करना, तब ऐसा ही हुवा ७ हम पहला मका भाड़ मारहका प्राय कुल खर्च १२ महीने तक स्थाद्वादर जाकरका बालयोस ही बराबर होता रहा । इसप्रकार फुटकर दान का हिसाब विठाकर शेष छपाई वगेरहका कुल खर्च २५०) के अनुमान समझा गया। तदनंतर जब आमदनीका हिसाब लगाया गया तो ऐसा विचार उत्पन्न हुवा For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि जब यह धार्मिक संस्था है, इसका लाभ नुक्सान इसी का है और हमलोग इसकी निःस्वार्थ सेवा करेंगे तो हमारे दानवीर धनाढ्य गण इस कार्यको समस्त धर्मकार्योकी एकमात्र जड़ अत्यंत उपयोगी समझ कर क्यों न सहायता करेंगे ? अवश्य ही करेंगे । परंतुः जब धनाढय महाशयोंकी पूर्वकालकी स्थितिपर विचार किया गया तौ धनाढय महाशयोंसे धनाशा रखनेवाली महाविद्यालय, बंबई जैन विद्यालय, स्याद्वादशपाठशाला, मोरेनाविद्यालय परीक्षालय आदि धर्मसंस्थायें अबतक धनाभावके अंधकूपमें दुर्दशागस्त पड़ीहुई पाई गई ! ऐसी दशामें वे इस संस्थापर क्यों विचार करने लगे? इसके सिवाय छापेके विरोधीकंटक भी रास्तमें जहांतहां विघ्नविनायक बन नेकेलिये तत्पर खडे हुये हैं ? तब धनाढयमहाशयोंसे सहायता मिले गी ऐसी आशापर तो कार्यप्रारंभ करना सर्वथा खामखयाली है। तब 'दूसरा विचार हुवा कि धनपात्रोंसे भारी आशा न रखकर थोड़ी २. आशा करके सबसे सौसौ रुपयोंकी सहायता लेना और उन रुपयोंक बदलेमें उनको शास्त्रदान करनेकेलिये प्रत्येक अंककी पंद्रह २ प्रति ( १८०) रुपयोंके शास्त्र ) भेजदेनेसे सायद वे लोग सौसौ रुपयोंके दानीग्राहक खुशीके साथ हो जायगे, तब संभव है कि इतनी बड़ी, भारी धनिक जनसमाजमेंसे ऐसे? कमसे कम२५ महाशय तो अवश्य ही मिल जायगे। इसप्रकारका विचार निश्चय होनेपर हमने एकप्रार्थना, पत्र छपाकर जितने ठिकाने नाम धनाढय महाशयोंके मिले सबके पास भेज दिये । एकबार सायद खयालमें न आवे, दूसरीबार भेजेगये फिर अनेक महाशयोंके पास तीसरी बार भी भेजेगये परंतु सिवाय ४ महाशयोंके अन्य किसीका भी एककार्डद्वारा हां नां का जबाबतक न मिला उन चारमें सबसे प्रथम तौ-छपरानिवासी श्रीमान् बाबू-रामेश्वरलाल जीजैनी रईस हैं जिनोंने पहिलापत्र पहुंचने ही सहष १००) रुपये देकर : दानीग्राहक बनना स्वीकार किया। दूसरे महाशय श्रीमान् लाला For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) बद्रीप्रसादजी महावीरप्रसादजी वकील बिजनौर निवासी हैं। इन्होंने भी १००) रुपये देकर दानीग्राहक बनना स्वीकार किया- तीसरे म हाशय शोलापुर निवासी शेठ हीराचंद अमीचंदजी शाह हैं जिन्होंने २४ ग्राहक और हो जांय तौ २५ वाँ मुझे समझना ऐसा लिखा । चौथे महाशय बमराना वा ललितपुर निवासी सेठ लक्ष्मीचंदजी साब हैं जिन्होंने लिखा कि १००) रुपयोंका दानी ग्राहक तौ मैं नहि बनता किंतु ८) रुपयोंका ग्राहक बनता हूं। जब धनाढ्य महासयों की ऐसी धर्मप्रीति वा जिनवाणी जीर्णोद्धार में अत्यंत प्रीति देखी गई तब एकदम हताश होना पडा, दो दिन दोरात इसी विचार में मग्न रहा कि अब क्या करना चाहिये ? तब स्मरणआनेपर पद्मनंदिपचीसी आदि शास्त्रों के प्रकाशक दानवीर श्रेष्ठिवर्य नेमिचंद बहालचंदजी वकीलकी सेवा में वही प्रार्थनापत्र भेजकर एकांत प्रार्थना की गई कि - " कमसे कम यदि दो हजार की द्रव्यंसहायता मिल जाय तौ हम १२ महीने तक इसी सहायतापर ही १२ अंक निकाल देंगे- तब अनेक धनाढ्यमहाशय हमारे परिश्रमपर खयालकर के सहायता देने लग जायेंगे अगर किसी ने नहीं भी दी तौ तबतक हम इस्तहारों और अपीलोंसे आठ २ रुपये देनेवाले कमसे कम २०० ग्राहक और सौ सौ रुपया के ८१० दानीग्राहक बना लेंगे और आगेंकेलिय काम चल जायगा । इस प्रकारका प्रार्थनापत्र भेजनेपर हर्ष है कि उक्तमहाशयने तत्काल ही दोहजार रुपये देने की स्वीकारताका पत्र भेजकर हमारे उत्साह को कार्य में परिणत करा दिया। उस पत्रकी अक्षरश: नकल भी हम यहाँ देदेना उचित समझते हैं - यथा -- -- ता० २ जुलै सन् १९१२ ईसवी " बाद जयजिनेंद्रके विशेष आपका पत्र नंबर ९०३ मु० २१ - ६- १२का पोहंचा० इसमें शंका नहीं के जिनवाणीके उद्धारार्थ आप बहोत प्रयत्न करते हैं आपके पत्रसे यह मालूम डुबाके दो हजार For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) रूपये आपको दिये जायें तो आप काम शुरू करदेनेपर तयार हैं हम इस बक्त एकहजार और सात आठ महीने बाद एक हजार ऐसें दोहज़ार रुपये आपको दे देते हैं। आप काम शुरू कर दीजिये लेकिन शरायत यह होंगे १- ग्रंथ छपनेबाद बेचकर उससे जो रुपया वसूल होता जायगा वह हमको भेजते जाइये तो हम फिर उस रुपये को इसी काम में लगावेंगे ! २- ग्रंथपर वालचंद कस्तूरचंद धाराशिवाले (हमारे पिताजी । का नाम मुद्रित होना चाहिये क्योंकि उनके स्मारक फंड से यह रकम दी जायगी । इस वक्त जो एकहजार रुपया भेज देना है उसके बाबत बंबई की हुंडवी यहां से आप जिस पतेपर कहो भेज देता हूं । काम शुरू होने के बाद बाकी रुपया भी ऊपर लिखे मुजब भेज दूंगा 1 उत्तराभिलाषी नेमचंद बालचंद वकील उस्मानाबाद | वश फिर क्या था हमने भी सहर्ष उपर्युक्त दोनों शर्ते स्वीकार करके हुडियोंसे रुपये मा २ कर काम छपाना सुरू कर दिया । और सत्रासौ कायी तौ जर्मन, लंदन, कलकत्ता, आदिके अजैनविद्वानों पत्रसंपादकोंक समीप और लाइब्रेरियों में विनामूल्य भेजना सुरू करदिया और करीब १०० प्रतियें जैनीमहाशयोंको मूल्यप्राप्ति की इच्छा से भेजना सुरू किया परंतु अनेक महाशयोंने तौ पहुंचतक नहीं लिखी, अनेक धनाढ्य महाशयों को जब वी. पी. किया गया तो वापिस कर दिया और अनेक महाशयोंको कई पत्र दिये तो कुछ भी जनाब नहिं आया तब उन्हें भेजना ही बंद कर दिया। इसके सिवाय विज्ञापन, प्रार्थना, अपीले जैनमित्र जैनहितैषी दिगंबर जैन आदिमें बहुत कुछ छपायीं परंतु दो वर्ष के साल खतमतके कुल ७७ ग्राहक आठ २ रुपये देनेवाले और तीन महाशय सौ सौ रुपये देनेवाले दानी For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राहक बना पाये। उक्त दो हजार रुपये तो आठ ही अंकोंतक खतम हो गये परंतु ग्राहकोंकी आमदनीसे काम धीरें २ चलता रहा जिससे एकवर्षका कामदो वर्षों कर पाये। इसदेरीका दूसरा कारण यह भी है कि एक तो यहांका कोई भी प्रेस इसग्रंथमालाके १० फारम एक महीनेमें नहिं दे सकता क्योंकि प्रूफ चार २ बार देखना पडता है वारीक टाइप में होनेसे प्रेसवाले रोजकी रोज प्रूफ संशोधन कर वापिस नहिं भेज सकते थे। दूसरे इसके संपादकगण बनारस कलकत्ता बंबईकी तीन तीन परीक्षावोंके ग्रंथ पढते तथा और २ विद्यार्थियोंको पढाने वगेरह में अहोरात्र लगे रहते हैं तथा ये सब ग्रंथ गुरुमुखसे अपठित व कर्णाट की लिपीमें होनेसे इनका संशोधन संपादन करना बहुत ही मनोनिवेशपूर्वक उत्कटपरिश्रमसाध्य कार्य हैं सो ठीक समयपर प्रफ नहिं दे सकते थे तथा मेरे पावोंमें झंझनीबातका उत्कट रोग होजानके कारण मैं तीनबार मोरादाबाद नाना बिजनौर इलाज करानेको गया, तीन महीने कोल्हापुर और एक महीना नागौरको चलागया था जिससे मेरे पीछे जैसा चाहिये वैसा शीघ्रतासे काम नहिं चला। इसके सिवाय कागज बढिया बाजारमें न मिलनेसे मेरे पीछे कागजके अभावसे भी बहुतकुछ समय व्यर्थ चला गया इत्यादि अनेक विघ्न इसकार्यके संपादन करनेमें विलंबके कारण हो गये । - इसप्रकार बड़े कष्टसे काम चलाया गया, इतनेहीमें सब रुपये लग गये। कागजदेनेवाली कंपनीका कर्ज होगया तब लाचार होकर काम बंदकर देनेकी सूचना छपाई गई और कई शेठोस पत्रव्यव. हार भी किया गया तौ-जनेंद्रप्रक्रिया पूर्ण करानेक लिये तो १००) रुपये शोलापुर निवासी शंठ रावजी सखारामजी दोशीने भेजे और ५००) रुपये राजवार्तिकजी पूर्णकरानेकेलिये शोलापूर निवासी श्रेष्ठि वर्य हीराचंद नेमिचंदजी ढोशी आनरेरी मजिष्ट्रेट महाशयने बदलेमें पुस्तके लेलेनक वायदपर भेज और ५००) इंदौर निवासी दानवीर For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ कस्तूरचंदजी महाशयने एक मुस्त दान करके भेजे । इनमेंसे शेठहीराचदजीके ५००) रुपये तौ वापिस भेजदेनको लिखा गया और ३००) भेज भी दियेगये क्योंकि उससमय हमें कलकत्ता यूनिवर्सिटी में भरतीहुये जैनेंद्रशाकटायन व्याकरणको परीक्षातक पूर्णकरनेकी शीघ्रता थी, राजवार्त्तिकजी परीक्षामें नहीं था इसकारण इसका काम; पहिले चलाना इष्ट नहीं था। और शेष रुपये जैनेंद्रप्रक्रिया, शब्दार्णवचंद्रिका और शाकटायनके अंक छपाने में लगाये गये । परंतु प्रेस तीसरा न मिलनसे तथा आगेको रुपये खुट जानेपर फिर दूसरी सहाताकी उम्मद न रहने के कारण वर्तमानवर्षमें शाकटायनकी चिंतामणि टीका तौ चौथाई छपाकर एकदम बंदकरदिया उसकी जगह राजवातिकजी और शब्दार्णवचांद्रका ही छपाना जारी रखा परंतु रुपया जा आया था सब कर्जचुकाने वगेरहमें पूरा होगया तब लाचार होकर पुरानेग्राहकोंको ११ वां १२ वा अंक नये नियमोंके अनुसार दशकी जगह आठ२ रुपये ही अगले शालके पेशगी लेनेकी इच्छासे सबको वी.पी.से, भेज गये जिसकी मुद्रित सूचना पहिले दे चुकेथे उसमें प्रार्थना कर दीगई थी कि अगले दोनोंअंक आठ २ रुपयोंके वी.पी. से भेजेंगे जिनका ग्राहक न रहना हो एककार्डद्वारा सूचना देदें जिससे संस्था के चार २ आने व्यर्थ नष्ट न हों परंतु दोचारके सिवाय किसीने भी सूचना नहीं दी, लाचार 'तूष्णं अर्धसम्मति' का अवलंबनकर सबको वी.पी. कियेगये परंतु खेद है कि-कुल ४२ ही महाशयोंने आगामी वर्षमें ग्राहक रहकर शेषमहाशयोंने राजवात्र्तिकादि ग्रंथपूर्ण न लेना चाहा और सबने वी.पी, लोटा दिये । जब हमारे बडे २ धनाढ्य गण व पढे लिखे वकील विद्वान् भी इसप्रकारके जिनवाणी भक्त व जैन धर्मक प्रचारक हैं तब इस ग्रंथमालाका चलना कठिन ही नहीं किंतु असं भव है। तथापि हमे फिर भी इसके ग्राहक वा सहायक बढाकर-इसके चलानेकी प्रबल इच्छा है इसकारण यह रिपोर्ट इस संस्थाकी असली For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हालत दिखानेकी इच्छासेही प्रगटकी है सो जो कोई महाशय इससंस्था वा दोनों ग्रंथमालाओंके जीवन रखनेसे यदि कुछ भी लाभ समझते. हों तो बिनाविलंब विद्वान् महाशय तो अपने २ प्रांतमें उपदेश देकर मंदिरजीक भंडारको, पाठशालाको, पुस्तकालयको, साधारण प्राहक बनावें और धनाढ्यमहाशयोंको दानीग्राहक बनाकर १००) सौ सौ रुपये प्रथमवर्षके १२ अंकोंके और १००) वर्तमान वर्षके १२ अंकोंक भिजवाकर १२ अंकोंकी १८० प्रति मगादेवें । तथा जो धनाढ्य दानवीर हैं अपना नाम वा शास्त्रदानका पुण्यसंचय करना चाहते हैं, वे-अपन पिता वगेरहके नामस्मणार्थ एकएक ग्रंथ छपानेक लिये २००) ४००) ५००) या जितना वे चाहें एकएक रकम भेज कर यश वा पुण्यसंचय करें । जबतक दशदशरुपयोंके २०० प्राहक और सौसोरुपयोंके १०-१५ दानीग्राहक न होंगे तबतक हम आगेको यह काम नहिं चलावंगे हमने जैनहितैषी आदि पत्रोंमें भी नये नियमोंके इस्तहार दिये हैं और यह रिपोर्ट वा अपील भी आप महाशयोंकी सेवामें भेजी जाती है। यदि चैतसुदी१५तक साधारण२०० ग्राहकोंके बननेकी वा दानीमहाशयोंसे काफी द्रव्यकी स्वीकारता न जाजायगी तबतक हम इसग्रंथमालाको सर्वथा बंद रखते हैं । अतएव अभी कोईभाई रुपया न भेजें सिर्फ प्राहक होनेकी वा प्रथछपानेकी द्रव्यस्वीकारता मात्र भेजें जब चैत्रसुदी १५ को हम देखलेंगे कि प्रथ. माला चलानेलायक प्राहक वा सहायता जागई है तब तो हम फिर नये उत्साह नये परिश्रम वा नये ढंगसे इस कामको सुरू कर देंगे। यदि ग्रंथमाला चलानेलायक ग्राहक वा पूरी सहायता न आई तो वैसाखसुदी १५ तक ४२ प्राहकोंके रुपये लोटाकर तथा कर्जदारों को पुस्तकें वगेरह देकर शेष रिपोर्ट निकालकर सनातनजैनग्रंथमाला सर्वथा बंद करदेंगे। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) चुनीलाल जैनमाला | पाठक महाशय ! इसप्रथमालाद्वारा हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगला, अंगरेजी इन सब ही भाषाओं में जैनधर्मसंबंधी नये ढंग के ट्रेक्ट पुस्तकें छपा २ कर अजैनोंमें विनामूल्य वा स्वल्पमूल्य से प्रचार करनेका उद्देश्य था परंतु विशेष सहायता न मिलने से महावीरस्वामीका ऐतिहासिक चरित्रआदि कोई भी बडा ग्रंथ प्रकाशित नहिं कर सके और न टेक्टें ही १०-२० प्रकाशित कर सके। दो वर्षमें कुल २००) रुपयोंकी ६ ट्रेक्टें करीब १६००० के वितरण कर सके । यदि अनेक महाशय एक एक ग्रंथ सां सौ दोदोसौ रुपयों की लागत के अपने पितामाता आदि के नामस्मरणार्थ छपानकी सहायता देते तो हम बहुतकुछ प्रचार कर सकते थे, जिससे तमाम अजैन बंगला मासिकपत्रों में जैनधर्मकी चर्चा छपने लगती, अनेक बंगालीविद्वान् जैनधर्मकी आलोचना में लग जाते, भाषाग्रंथ कुछ जैनियोंमें विक जानेसे आगेको या सनातन जैनग्रंथमाला को भी सहायता मिलजाना संभव था परंतु आप महाशयोंके विचार वैचित्र्यसे इस विशेष उपकारीकार्य में भी सहायता नहि मिली और हम कुछ भी न कर पाये । श्वेतांबरीभाई इस विषय में बहुतही आगे बढ़ गये हैं कई संस्थायें धाराप्रवाह ग्रंथ छाप कर विनामूल्य वा लागतके मूल्य से भी कम मूल्यपर बड़े २ ग्रंथ वितरण कर रहे हैं दो संस्थायें तौ सूरत और अहमदा बादमें लाख २ रुपयोंकी पूंजी खुली हुई हैं परंतु हमारे यहां ऐसी एक भी संस्था नहीं है । बरसोंसे इटावेकी जैनतस्त्रप्रकाशिनीसभा इस कामकेलिये खुली हुई है जिसके ट्रेक्ट प्रचारादि कार्य से समाज भर खुश है परंतु अभी तक किसी भी दानवीर ने कोई बड़ी सहायता उस संस्थाको नहीं दी और न थोडी बहुत सहायता इस संस्थाको ही दी यह कितने भारी खेद और लज्जाका स्थान है ? 1 बडे आश्चर्य की बात तो यह है कि- श्वेतांबरीभाई तौ सैकड़ों For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) रकमें एकदम दान करके एकदिनुस्तकमें अपना नाममात्र छपवा देते हैं. और हमने इस ग्रंथमालामें रकमदेनेवालोंका नाम छापनेके सिवाय. प्रत्येकपुस्तककी दोसौ तीनसौ प्रति दान देने के लिये प्रदानकरके उनकी दीहुई रकम कायम रखकर विनाटका पैसे सैकडों शास्त्रोंके दान करनेका वा नाम करनेका सरल तरीका बताया था परंतु तब भी किसीने एक दो रकम इसउपकारीकार्यकोलये नहीं दी। अस्तु अब भी समय है यदि दानवीरमहाशय थोडी २ द्रव्यसहायता दें तो सनातनजैन. ग्रंथमाला न सही । इसचुन्नीलालजैनप्रथमालामें ही सब भाषाओंके ग्रंथ छपा २ कर वितरण करानेका कार्य कराके इस संस्थाको जीवित रख सकते हैं। - सनातनजैनवाचनालय । ... जब कि इस संस्थाका नाम जैनधर्मप्रचारिणीसभा और धर्म: . प्रचारके कई उद्देश्य थे? तब सर्वसाधारणको जैनधर्मके ग्रंथ अखबार देखनेके लिये सुभीता करदने की इच्छासे सनातनजैनवाच: नालय नामकी एक पब्लिक फ्री लाइब्रेरी खालदेनेका भी प्रस्ताव हुआ था परंतु बाहरी कुछ भी सहायता न मिलने के कारण न खुल.. सकी तथापि अनेक विनामूल्य प्राप्तहुई पुस्तकोंके सिवाय संस्थासे हो आजतक ८१-)पुस्तकें हिंदी बंगला उत्तमोत्तम मासिकपत्र : संग्रहकरने आदिमें लगादिये हैं। यदि आलमारी मकानभाडा, पुस्तक अखवारोंकेलिये दो तीनसौ रुपयोंकी सहायता मिल जाय तो यह भी धर्मप्रचारका एक उत्तम साधन प्रारंभ हो सकता है। यदि चैत सुदी १ तक कोई सहायता नहिं मिली तो लाचार अगरेजी पढ़नेवाले जैनीलडकोंके जैनस्पोर्टस्क्लबकी लाइब्रेरीमें ये .सब पुस्तकें प्रदान करदी जायगी। For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमा रईस छपरा ( १३ ) - हाथचिट्ठाबीरनिर्वाणमंवत २४३९ आश्विनसुदी ! से लगाकर वीरनिर्वाण सं. २४४१ की दीवाली तक। नावें॥e) बाबू रामेश्वरलालजी २११) पुस्तक खरीद विकी खाते २००१) शेठ नेमिचंद बहालचंदजी, ११)| प्रबंधखातै वा खर्चनाते वकील उस्मानाबाद १४८11) पोष्टेजवारदानाखात २३४) शेठ नाथारंगजी गांधी ५-)| फनीचर खाते। मुंबईवाले १५०८१)|सनातन जैनग्रंथमाला १९३१०) बंगला महावीरचरित्र खाते खाते घठ नाथारंगजीसे मिले। 110) प्रो. प्रा. कृष्णप्रिंटिंप्रम ३०) चुनीलाल जैनप्रंथमाला खाते On प्रो. प्रा. जाजप्रिंटिंवर्क्स 10) सनातनजैनवाचनालय १४)। मुन्नालाल विद्यार्थी । खाते ३) लाला उम्मंदसिंह.. ___१४) मूलचंद कसनदास १२॥1) उदरतख त फुटकरजमा कापडिया सूरत २४:12) लाला गुरुदत्तामलजी ३) पं. बनवारीलाल जांजैन पनालालकसूरवाले २०७॥ नग्रंथरत्नाकर कार्यालय २० ) सुदरलाल लुहाड़ा टोंकवाला ," २९९१)॥ प्रो. प्रा. जनरलट्रेडिंकंपनी व पत्रालालजैन पेपरमचेट काशी । प्रो.प्रा. चंद्रप्रभासबनारस ... ५०) श्रीस्याद्वादमहाविद्यालय १४) लालारामजी श्रीलालजैन . काशीका 194) संपादकीपट पेशमी : २१) शांतिनाथ उपाध्याय कोल्हापुरका २) अतरसेन विदा २) बाबू जगमोहनवा काशी 1.1) बाबू बनारसीदास काशी १)भट्टार ऋविजयकीर्तिजी प्रसादजी जोहरोकापाध्यक्ष संस्था के पास जमा For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रपरीक्षा १००० को १०) प्रो. प्रा. औदुंबरप्रेसका4 ) हस्ते बा.दयाचंदजीगोयली १..) अधिष्ठाता ऋषभब्रह्मचर्या । लाला बद्रीदासजी वकील श्रम हस्तिनापुर ५०॥ शंठ स्वरूाचंद हुकुमचंदजी ५) श्रीजैनसिद्धांत विद्यालय " मारना १६॥5)। डा.सतीशचंद्र जीविद्याभूषण ८.) शेठ रावजीसखारामजी 1) नयी बहीखातै । । दोश शोलापुरवालोंके ११ ) श्रीरोकडपाते दिवाली के दिन १.०) शेठ हीराचदनेमिचंदजी . ... दोशी शालापुरवालोंके . ३२९६10 हिसाब सनातनजैनग्रंथमालाका । ६०१) आमदनी साधारणप्र हक २५५।) छपाई आप्तपरीक्षा ७७ से ६८५॥ छपाई समयप्राभूत रामेश्वरलालजी रईस छपरा बद्रीप्रसादजी वकील और प्रति १००० की पं. बनवारीलालजाननके ४९॥) छपाई तत्वार्थराजवार्तिक ५००) श्रीयुत रायबहादुर . प्रति १००० को .... शेठ कस्तूरचंदजी ४२८)॥ छपाई जैनेंद्रप्रक्रिया १०.. .इंदारवालोंका एक मुटिशन २६२-छपाई आप्तमीमांसा ५in) आमदनी फुटर व प्रमाणपरीक्षाको । अंकोंको विक्रांसे २८९॥-)। छपाई शब्दार्णवचंद्रिका १५००) प्रथम खंडकी १५०८1शेष ग्रंथो में लगते रहे हैं २३५०)। छपाई शाकटायन जिनमें आप्तपरीक्षा५.. . चिंतामाण १ खंडको जैनेंद्रप्रक्रिया ...और शेष पुस्तकें करीब सात सात ५४||) फुटकर खर्च सौ प्रति के मौजूद हैं। . . . ३०ला ३००) आमदनी दानः प्राहकसे . . . For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसाब चुनीलालजैनग्रंथमालाका। , २०) फते बंदहीराचंद ईडर १९) ट्रेक्टनं.१ सनातनजैनधर्म २०) दौलतरामबनारसीदासबाग - .. २... की छपाई १५) नेमासासोनासानागपुर २)। ट्रेक्टनं. २महावरिखामा ५) महावीर सहायपांडेखुरई काचरित्र २००० छपाई २५) गांधीकुवेर चंदकस्तूर इंडर २० ट्रेक्टनं. ३षड्व्य दिग्दर्शन ४) मक्खनलाल तेजपाल .. प्रति २००० छपाई १५॥)। साहू विमलप्रसादजी २४॥2) ट्रेक्टनं.४.५ हिंदीबंगला नजीबाबाद ., . जैनधर्म ४... छपाई ५०) रायनांदमलजी अजमेरा ५॥) ट्रेक्टनं.१का बंगानुवाद फारष्टकालेज देहरादून ६.12) फुटकर में ट्रेक्टोंकीविक्री . १) ट्रैक्टनं. १ दूसरीबार २... छपाई २१ )। 2), ट्रेक्टनं. ३ दूसरीबार २५०० छपाई ३) लगतेरहे जिसमें ट्रेक्टनं. १५) विधुशेखभट्टाचार्यको .. १ की ५०० प्रति नं ३ काशीका राहत्रच दिया को ५०० प्रति नं. ६ की. ४३) ट्रॅक्टनं. ६ महावीरचरित्र 'नया २०.. छपाया ११०० प्रति मौजूद हैं। 61) फुटकर खर्च २१८॥ २१८) हिसाब प्रबंधखाता बा खर्चखाता। 11) फीस जैनधर्मप्रचारणी ४५) मकानभाडा १ वर्ष का समाके मेंबरोंकी ८५) तनखा मैनजरकी नारिया प्रेमजीशिवजी ४९०)। तनखा सिपाहीको १)महावीरपाडे खुरई .....६४)। छपाई नियमावलीविज्ञापन १)उम्मेदसिंह मुत्सद्दीलाल मगरहकी For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १)सूरजमल, अजमेरा गया २९) दौराखर्च कोल्हापुर १)ब बू गुणेंद्रप्रसादजी मारा... इंदौरका बनारसीदासजैन कांधला . . ६A)। फुटकरखर्च तेलबत्ती मुखरामजी कलकता लिफाफेवगरहूका १रामविलासजी पाटणी गया . ३३४॥)। १)रंखचंदछाबड़ा गया १)पुरुषाचमलालजी छपरा १)भूरालाल कंछेदीलाल: 91) बंगीयसार्वधर्मपरिषदका ___ पं.मोतीलालजी का आया १३) ३२१) शेष रहे ३३४॥ में संक्षिप्त हिसाब है परंतु खाते रोजनामें व्योरेवार सब हिसाब है किसी महाशयको किसी हिसाबके देखने की इच्छा हो तो पत्र द्वारा आज्ञा करने पर तत्काल ही ब्योरेवार लिखकर भेज दिया जायगा। जैनसमाजका दासपन्नालाल बाकलीवाल... : मंत्री-मारतीय जैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था, ठि.-मदागिनबनमंदिर पोट-बनारस सिटी। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगामी सूचना | विदित हो कि सनातन जैन ग्रंथमालामे अपूर्णग्रंथ पूर्ण हो जाने के पश्चात् एक तो श्लोवार्त्तिकजी बड़े अक्षरों में छपाया जायगा (जिसमें २०००) रुपये खर्च पड़ेंगे) क्योंकि यह कलकत्तेकी न्यायतीर्थपरीक्षा में भरती है । दूसरे अद्वैन विद्वानोंमें प्रभावना करने के लिये रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणजी बड़ा छपावेंगे इसमें अनुमान १५००-१६००) रुपये खर्च पड़ेंगे सो सब भाइयों को सोसो दोदोसौ रुपयोंकी सहायता भेजना चाहिये । जो महाशय १०० रुपये भेजेंगे उनको हम दोनों ग्रंथों की पंद्रह २ प्रति या किसी भी एक ग्रंथ की ३० प्रति भेज देंगे और व्याजमें उनका नाम जिनवाणीजीर्णोद्धारक महाशयोंकी फेहरिस्त में ग्रंथके एक पृष्टमें छपा देंगे। आशा है कि जो महाशय इस जिनवाणीजीर्णोद्धार और अजनों में धर्मप्रचारार्थ सहायता दें, वे चैतसुद १५ तक हमें सूचना दें। अभी रुपया कोई न भेजैं इसके सिवाय चुन्नीलाल जैन ग्रंथमाला में नीचे लिखे ग्रंथ छपेंगे सो एक एक दानी महाशय एकएक ग्रंथ छपानेका खर्च भेजकर एक तौं ग्रंथ पर अपना या अपने पिताजी वगेरह का नाम छपाकर नाम करें। दूसरे हम २०० प्रति प्रथकी देंगे सोदान करके पुण्योपार्जन करें तीसरे - शेष पुस्तकें हम अजैनोंको प्रायः विनामूल्य वितरण करेंगे उसका पुण्य भी लूटै । १ | जैनेंद्रव्याकरणकी पंचसंधि भाषाटीका सहित छपाई १००० २ | जैनधर्मका परिचय हिंदी में ३ । द्रव्यसंग्रह बंगला अनुवाद सहित ४ । तत्त्वार्थसूत्र बंगानुवाद सहित ५ । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय बंगानुवाद सहित "1 " ," 19 120 प्रति ५० ) २०००० प्रति १०० ) १००० प्रति १०० ) १००० प्रति ४०० ) १००० प्रति ५०० ) ६ । परीक्षामुख न्याय हिंदी अनुवाद सहित २७ । परीक्षामुख न्याय वंगानुवाद सहित " " ८ । महावीर स्वामीका ऐतिहासिक जीवनचरित्र बड़ा १००० ९। महावीर स्वामीका १० | महावीरस्वामीका 1 महावीर स्वामी का पत्र भेजने का पता - पन्नालाल बाकलीवाल พ १५० ) १००० प्रति १००० प्रति १५० प्रति ३०० ) 99 जीवनचरित्र बंगला में १००० प्रति ४०० ) • जीवनचरित्र मराठी में १००० प्रति ३०० ) जीवनचरित्र अंगरेजीमें १००० प्रति ५०० ) मंत्री - भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था ठि० मैदागिन जैनमंदिर पो० बनारस सिटी क Personal & Private Use Only the train www.jaihelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यावश्यकीय प्रार्थना । दानवीरमहाशयों ! इस संस्था में नीचे लिखे संस्कृत व भाषा ग्रंथ तैयार हैं यदि आपलोग सबकी एकएक प्रतिमंदिरजीके भंडार में खरीदकर विराजमान करदेंगे तो इस संस्थाका काम जो जिनवाणीजीर्णोद्वार और प्रचारका है बराबर चलता रहैगा । यदि आप कहैं कि भाषा ग्रंथतौ स्वाध्याय में कामभी आवैंगे संस्कृतग्रंथ हमारे किसकामके ? सो ऐसा विचार नहिँ करनाचाहिये । प्रथम तौ कोई न कोई आपका लड़का संस्कृतका जानकार पैदा होजायगा नहीं तो कोई भी अजैन विद्वान् आपके यहां आवेतौ उसे दिखाना इन ग्रंथोंका देखते ही उसके दिल में जैनधर्मका बड़प्पन बैठ जायगा। तीसरे भगवानकी प्रतिमाजीकी तरह इन शास्त्रों की भी नित्यपूजन विनय और रक्षा करने से भी अवश्य पुण्यकी प्राप्ति होगी - इस पंचमकाल में देवगुरुशास्त्र में से ये देव और शास्त्र दो ही तौ रहगये हैं इनकी रक्षा, प्रचार करना आपका परमधर्म व अत्यावश्यकीय कार्य है । आप्तपरीक्षा व पत्र परीक्षा स. २) समयसारजी दो टीकासहित ५) तस्वार्थराजवार्तिकजी पूर्ण ९ ) जैनद्रप्रक्रिया - गुणनंदि कृत १ || ) शब्दार्णव चंद्रिका (जैनेंद्रव्या. ) ५) | आप्तमीमांसा व प्रमाणपरीक्षा २) शाकटायनचिंतामणि १ खंड २) ये नौ ग्रंथ सनातन जैन ग्रंथमाला के १२ अंकों में छपे हैं कुल न्योछावर २६ || ) है परंतु एकसीट ( सबके सब ) लेने से १०) रुपये में ही भेज देंगे डांकखर्च १ ) रुपया जुदा लगेगा | अगर कोई महा० ) रुपयों शय दान करना चाहें तो १००) में हर ग्रंथकी पंद्रह २ प्रति भेज देंगे १) २) भाषा ग्रंथ । जिनशतक संस्कृत भाषाटीका ।) धर्मरत्नोद्योत चौपाईबंध धर्मप्रश्नोत्तर वचनिका शाकटायन धातुपाठ श्रीमहावीरचरित्र सैकड़ा सनातन जैनधर्म सैकड़ा षद्रव्य दिग्दर्शन सैकड़ा 12) ३) १॥ ) १ ॥ ) मिलने का पता पन्नालाल बाकळीवाल, मंत्री - भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनीसंस्था-बनारस सिटी ।। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियोंके पढ़ने योग्य नई पुस्तकें। सदाचार, पातिवन, गहकर्म, शिशपालन आदिकी शिक्षा देनेवाली तरल भाषामें लिखी हुई स्त्रियोपयोगी पुस्तकोंकी जैनसमाजमें बहुत जरूरत है । यह देखकर हमने नीचे लिखी पुस्तकें मँगाकर बिक्रिके लिए रक्खी हैं। १ सरस्वती--गृहस्थजीवनका बहुत ही शिक्षाप्रद, उपन्यास । बडा ही दिलचस्प है । मूल्य १) पक्की जिल्दका १) ___२ वीरवधू-चौहानराजा पृथ्वीराज और उसकी वीर राणी संयोगिताका वीररसपूर्ण चरित्र । पाँच चित्र कई रंगके छपे हुए हैं। मू० ॥) ३ आदर्श परिवार प्रत्येक कुटुम्बमें पढ़े जाने योग्य । मू०॥) ४ शान्ता- एक आदर्शस्त्रीका चरित्र । म०॥ ५ लक्ष्मी - , ,,) ६ कन्या-सदाचार-लडकियों के कामकी । म ७ कन्यापत्रदर्पण-- म०८ बनवासिनी-बहुत ही हृदयद्रावक उपन्यास । मू) मँगानेका पतामैनेजर, जैनरत्नाकर कार्यालय, गिरगांव बम्बई ।। Printed by Nathuram Premi at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandhurst Road, Girgaon Bombay, & Published by him at Hirahag, Near C. P. Tank Girgaon Bombay. For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ते के प्रसिद्ध डाक्तर बर्मन की कठिन रोगों की सहज दवाएं। गत 30 वर्ष से सारे हिन्दुस्थानमें घर घर प्रचलित हैं। विशेष विज्ञापन की कोई आवश्यक्ता नहीं है, केवल कई एक दवाइयों का नाम नीचे देते हैं। हैजा गर्मी के दस्त में पेट दर्द,बादीके लक्षण मिटान असल अर्ककपूर अकंपूदीना सब्जा मोल डाःमः-१ से४ शीशी मोल डाःमः ।आने अन्दरके अथवा बाहरी पेचिश, मरोड़,ऐठन, शूल, आंव दर्दमिटानेमें के दस्त में पेन हीलर मोल ] डाः मः। पांच अपने मोल वर्जन ४रुपया सहज और हलका जुलाबके लि. कलेज की कमजोरी मिटाने में जुलावकी गोली और बल बढ़ाने में- 2 गोली रातको खाकर सोवे। सबेरे खुलासा दस्त होगा। १६गोलियोंकी डिवीनाडाःमः। मोल 1 ) डा। आने। 1 से 8 तक पांच आने. पूरे हाल की पुस्तक विना मूल्य मिलती है दवा सब जगह हमारे एजेन्ट और दवा फरोशोंके पास मिलेगी अथवा डा. एस.के, बोन 5, 6, ताराचंद दत सैट, कलकता। ( इस अंकके प्रकाशित होने की तारीख 7-2-15 / ) For Personal & Private Use Only