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________________ शेठ कस्तूरचंदजी महाशयने एक मुस्त दान करके भेजे । इनमेंसे शेठहीराचदजीके ५००) रुपये तौ वापिस भेजदेनको लिखा गया और ३००) भेज भी दियेगये क्योंकि उससमय हमें कलकत्ता यूनिवर्सिटी में भरतीहुये जैनेंद्रशाकटायन व्याकरणको परीक्षातक पूर्णकरनेकी शीघ्रता थी, राजवार्त्तिकजी परीक्षामें नहीं था इसकारण इसका काम; पहिले चलाना इष्ट नहीं था। और शेष रुपये जैनेंद्रप्रक्रिया, शब्दार्णवचंद्रिका और शाकटायनके अंक छपाने में लगाये गये । परंतु प्रेस तीसरा न मिलनसे तथा आगेको रुपये खुट जानेपर फिर दूसरी सहाताकी उम्मद न रहने के कारण वर्तमानवर्षमें शाकटायनकी चिंतामणि टीका तौ चौथाई छपाकर एकदम बंदकरदिया उसकी जगह राजवातिकजी और शब्दार्णवचांद्रका ही छपाना जारी रखा परंतु रुपया जा आया था सब कर्जचुकाने वगेरहमें पूरा होगया तब लाचार होकर पुरानेग्राहकोंको ११ वां १२ वा अंक नये नियमोंके अनुसार दशकी जगह आठ२ रुपये ही अगले शालके पेशगी लेनेकी इच्छासे सबको वी.पी.से, भेज गये जिसकी मुद्रित सूचना पहिले दे चुकेथे उसमें प्रार्थना कर दीगई थी कि अगले दोनोंअंक आठ २ रुपयोंके वी.पी. से भेजेंगे जिनका ग्राहक न रहना हो एककार्डद्वारा सूचना देदें जिससे संस्था के चार २ आने व्यर्थ नष्ट न हों परंतु दोचारके सिवाय किसीने भी सूचना नहीं दी, लाचार 'तूष्णं अर्धसम्मति' का अवलंबनकर सबको वी.पी. कियेगये परंतु खेद है कि-कुल ४२ ही महाशयोंने आगामी वर्षमें ग्राहक रहकर शेषमहाशयोंने राजवात्र्तिकादि ग्रंथपूर्ण न लेना चाहा और सबने वी.पी, लोटा दिये । जब हमारे बडे २ धनाढ्य गण व पढे लिखे वकील विद्वान् भी इसप्रकारके जिनवाणी भक्त व जैन धर्मक प्रचारक हैं तब इस ग्रंथमालाका चलना कठिन ही नहीं किंतु असं भव है। तथापि हमे फिर भी इसके ग्राहक वा सहायक बढाकर-इसके चलानेकी प्रबल इच्छा है इसकारण यह रिपोर्ट इस संस्थाकी असली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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