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________________ ग्राहक बना पाये। उक्त दो हजार रुपये तो आठ ही अंकोंतक खतम हो गये परंतु ग्राहकोंकी आमदनीसे काम धीरें २ चलता रहा जिससे एकवर्षका कामदो वर्षों कर पाये। इसदेरीका दूसरा कारण यह भी है कि एक तो यहांका कोई भी प्रेस इसग्रंथमालाके १० फारम एक महीनेमें नहिं दे सकता क्योंकि प्रूफ चार २ बार देखना पडता है वारीक टाइप में होनेसे प्रेसवाले रोजकी रोज प्रूफ संशोधन कर वापिस नहिं भेज सकते थे। दूसरे इसके संपादकगण बनारस कलकत्ता बंबईकी तीन तीन परीक्षावोंके ग्रंथ पढते तथा और २ विद्यार्थियोंको पढाने वगेरह में अहोरात्र लगे रहते हैं तथा ये सब ग्रंथ गुरुमुखसे अपठित व कर्णाट की लिपीमें होनेसे इनका संशोधन संपादन करना बहुत ही मनोनिवेशपूर्वक उत्कटपरिश्रमसाध्य कार्य हैं सो ठीक समयपर प्रफ नहिं दे सकते थे तथा मेरे पावोंमें झंझनीबातका उत्कट रोग होजानके कारण मैं तीनबार मोरादाबाद नाना बिजनौर इलाज करानेको गया, तीन महीने कोल्हापुर और एक महीना नागौरको चलागया था जिससे मेरे पीछे जैसा चाहिये वैसा शीघ्रतासे काम नहिं चला। इसके सिवाय कागज बढिया बाजारमें न मिलनेसे मेरे पीछे कागजके अभावसे भी बहुतकुछ समय व्यर्थ चला गया इत्यादि अनेक विघ्न इसकार्यके संपादन करनेमें विलंबके कारण हो गये । - इसप्रकार बड़े कष्टसे काम चलाया गया, इतनेहीमें सब रुपये लग गये। कागजदेनेवाली कंपनीका कर्ज होगया तब लाचार होकर काम बंदकर देनेकी सूचना छपाई गई और कई शेठोस पत्रव्यव. हार भी किया गया तौ-जनेंद्रप्रक्रिया पूर्ण करानेक लिये तो १००) रुपये शोलापुर निवासी शंठ रावजी सखारामजी दोशीने भेजे और ५००) रुपये राजवार्तिकजी पूर्णकरानेकेलिये शोलापूर निवासी श्रेष्ठि वर्य हीराचंद नेमिचंदजी ढोशी आनरेरी मजिष्ट्रेट महाशयने बदलेमें पुस्तके लेलेनक वायदपर भेज और ५००) इंदौर निवासी दानवीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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