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________________ वैश्य । सब से गये बीते नहीं क्या आज वे हैं दीखते, वे देख सुनकर भी सभी कुछ क्या कभी कुछ सीखते ? ( ६ ) बस अब विदेशों से मँगाकर बेचते हैं माल वे, मानों विदेशी वाणिजों के हैं यहाँ दल्लाल वे । वेतन सदृश कुछ लाभ पर वे देशका धन खो रहे, निर्द्रव्य कारीगर यहाँके हैं उन्हींको रो रहे ॥ ( ७ ) उनका द्विजत्व विनष्ट है, है किन्तु उनको खेद क्या ? संस्कारहीन जघन्यजोंमें और उनमें भेद क्या ? उपवीत पहनें देख उनको धर्मभाग्य सराहिए. पर तालियों के बाँधनेको रुज्जु भी तो चाहिए ! ( 6 ) चन्दा किसी शुभकार्य में दो चारसौ जो है दिया तो यज्ञ मानों विश्वजित ही है उन्होंने कर लिया ! बनवा चुके मन्दिर कुआँ या धर्मशाला जो कहीं, हा स्वार्थ! तो उनके सदृश सुर भी सुयशभागी नहीं ! ( ९ ) औदार्य उनका दीखता है एकमात्र विवाह में, बजाय चाहे वित्त सारा नाचरंग - प्रबाह में ! वे वृद्ध होकर भी पता रखते विषय की थाहका, शायद मेरे भी जी उठें वे नाम सुनकर व्याहका ! ( १० ) उद्योग बलसे देशका भंडार जो भरते रहे, फिर यज्ञ आदि सुकर्ममें जो व्यय उसे करते रहे । वे आज अपने आप ही अपघात अपना कर रहे, निज द्रव्य खोकर घोर अघके घट निरन्तर भर रहे || Jain Education International १७५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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