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जैनहितैषी -
प्रायः सिद्ध हो चुका है और विश्वासके योग्य है । इस हिसाब से ई० सन्के चार हज़ार वर्ष पहले रामचन्द्रकी वानर सेना थी । परन्तु भूगर्भशास्त्रज्ञ विद्वानोंके मतसे उस समय हिन्दुस्तानकी और हिन्दमहासागरकी स्थिति जैसी इस समय है लगभग वैसी ही थीमहासागरके स्थानमें कोई बड़ा भारी भूखण्ड न था और न उस समय लेमूरियन जातिके बन्दरोंका अस्तित्व ही संभव है । अतएव रामायणमें जो वानरोंका वर्णन है वह बिलकुल काल्पनिक है । आगे चलकर वैद्य महाशयने उक्त वानरोंके विषयमें जो अनुमान किया है वह जैनरामायण या पद्मपुराणसे बिलकुल मिलता हुआ है । वे लिखते हैं कि " मैंने रामायणके विषय में एक अँगरेजी ग्रन्थ लिखा है । उसमें मैंने बतलाया है - कि इन हनुमानादिके निशानों पर ध्वजाओं पर - वानरादिके चिन्ह होंगे और उन्हीं चिन्हों के कारण उन्हें वानरादि नाम मिले होंगे। एक जातिकी ध्वजा पर बन्दरका चित्र होगा, दूसरीकी ध्वजापर रीछका, तीसरी पर गीधका और इस कारण उन लोगोंको वानर, रीछ, गृध्र नामसे पुकारते होंगे । निशानों पर जानवरोंके चित्र बनवाने की पद्धति आजकलके सुसभ्य राष्ट्रों में भी जारी है। अँगरेज़ोंके निशान पर सिंह, रशियनोंके निशाने पर रीछ, और जर्मनीके निशान पर गरुड़ है !.... इस तरह ध्वजचिन्होंके कारण जुदाजुदा जातिके लोगों की वानर रीछ आदि संज्ञा पड़ गई होगी और आगे रामायण के लिखनेवालोंको ये संज्ञायें वास्तविक मालूम हुई होंगी - वाल्मीकिजीने उन्हें साक्षात् वानरादि ही समझ लिया होगा । दक्षिण में अब भी
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