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________________ - ----,AA सहयोगियोंके विचार। wwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmm गोत्रोंकी झंझट और जातिके गरीब । जब खण्डेलवाल-जातिका अस्तित्व कायम हुआ तब गोत्र थे या नहीं, इस विषयमें हम कुछ भी कह नहीं सकते । पर परम्पराकी किंवन्दती ऐसी है कि " खण्डेला एक बड़ा शहर था। उसके अधिकारमें चौरासी गाँव थे । जब जिनसेनाचार्य के उपदेशसे खण्डेला और उसके प्रान्तवर्ति गाँवोंके रहनेवाले जैनी हुए तब गाँवके नाम पर तो खण्डेलवाल-जातिका नाम संस्करण हुआ और जो चौरासी गाँव थे, उनके नाम पर गोत्रोंकी कल्पना हुई।" यदि यह किंवदन्ती सत्य है तो कहना पड़ेगा कि वास्तवमें गोत्रोंका असली स्वरूप कुछ नहीं है । जैसे दक्षिणीयोंमें बीजापुरके रहनेवाले बीजापुरकर और कोल्हापूरके रहनेवाले कोल्हापुरकर कहलाते हैं, वैसे ही बाकली गाँवके रहनेवाले बाकलीवाल, और काशली गाँवके रहनेवाले काशलीवाल कहलाने लगे और ऐसी हालतमें एक गोत्रमें भी यदि परस्पर शादी ब्याह होने लगे तो हमारी समझमें कोई हानि नहीं। क्योंकि पहले भी तो एक गाँवके रहनेवालोंमें ब्याह शादी होते थे । हम नहीं कह सकते कि खण्डेलवाल जातिमें ब्याह शादीके समय यह परस्पर गोत्रोंके मिलानेकी झंझटका कबसे सूत्रपात हुआ। पर पहले जब मामाकी लड़कीसे ब्याह होता था तब यह कहा जा सकता है कि यह पद्धति पुरानी नहीं है। इसके लिए और भी एक सुबूत यह है कि महाराष्ट्र-प्रान्तके खण्डेलवालोंमें अब भी सिर्फ दो ही गोत्र टाले जाते हैं । इस विषयको बिलकुल नया देखकर बहुतसे लोग हमसे सवाल करेंगे कि “ तुम इन गोत्रों के बचावको झंझट क्यों समझते हो और इसके उठा देनेसे लाभ क्या ?" इसका उत्तर यह है कि यदि जातिमें आज सरीखी अंधाधुन्धी नहीं होती, और पहले सरीखी उसकी शंखला बनी रहती तो शायद इस विषय पर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं भी पड़ती। क्योंकि उससे जातिके गरीबोंका काम अच्छी तरह चल सकता था । पर अब वह बात नहीं रही। धनवानोंका तो हर किसी तरह काम चल जाता है और बेचारे गरीब रोते ही रह जाते हैं। इसका कारण है, पहले चौरासी गोत्रोंका अस्तित्त्व था, तब तो गात्रोंके भी बचावमें विशेष तरत नहीं उठाना पड़ती थी, पर अब कठिनतासे २५-३० गोत्रोंका अस्तित्व मिलता है । सो होता क्या है कि जो धनवान होते हैं उनके यहाँ तो अपनी लड़के लड़कीका ब्याह करनेक लिए हज़ारों चातककी तरह नेत्र लगाये रहते हैं । ऐसी हालतमें उनकी एक जगह गोत्र अड़ भी जाय तो दूसरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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