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________________ १६६ जैनहितैषी - रह सकता वह यदि दूसरोंके प्रति उदारता न दिखाकर अपनी इंद्रियोंकी तृप्तिमें ही मस्त रहे तो क्या उसका यह कार्य असह्य नहीं होगा ? क्या यह कम पापन है ? मनुष्यताका सबसे प्रथम यदि कोई लक्षण हो सकता है, धर्मका सर्वोत्कृष्ट मूल सिद्धान्त यदि कोई माना जा सकता है, तो वह 'दान' या आचरणमें लाई गई 'दया' अथवा व्यवहारमें लाई गई ' सहृदयता' ही है । यह बात डंकेकी चोट कही जा सकती है कि जहाँ ऐसी सहृदयता नहीं, जहाँ ऐसी आर्द्रता नहीं, जहाँ दान नहीं, जहाँ हृदयका औदार्य नहीं, वहाँ धर्मका अंश भी नहीं, – मनुष्यत्वका नाम मात्र भी नहीं । यदि कोई व्यक्ति किसी भी धर्मकी कठिनसे कठिन क्रियाओंको चौबीसों घंटे सौ वर्ष पर्यंत करता रहा हो; परन्तु सहाय - दया दान के तत्त्वों से विमुख रहा हो तो उसकी मनुष्य या महात्मा के नामसे पहचाने जानेवाली आकृतिको हम सिवाय पशुके और कोई नाम नहीं दे सकते । क्योंकि जहाँ नींव ही नहीं है, वहाँ मकानकी क्या चर्चा ? जहाँ केवल स्वार्थहीकी संकुचित सीमा लोहेकी साँकलोंसे दृढ़ताके साथ रक्षित हो, वहाँ अमर्यादित देवका निवास किस प्रकार हो सकता है ? जहाँ निरंतर पाशव वृत्तियोंका स्मरण किया जाता है, वहाँ देवकी आकृति कैसे प्रकट हो सकती है ? गरज यह है कि जहाँ आर्द्रता–दया—सहानुभूति–सहायता करनेकी उमँग - दान देनेका उल्लास-नहीं, वहाँ धर्म या मनुष्यत्वका होना सर्वथा असम्भव है । जो दान या दया, इज्जतके लिए, बड़प्पनके लिए, बदलेके लिए या स्पर्द्धासे की जाती है, उसे आत्मिक या वास्तविक धर्ममें कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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