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दान और शीलका रहस्य ।
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स्थान नहीं मिल सकता । अर्थात् न वह सच्चा दान है और न सच्ची दया है। धर्ममें-आत्मामें-मनुप्यत्वमें केवल तुम्हारे ही आशयकी तुम्हारे परिणामोंकी कीमत है; बाह्यरूप, दिखावा या कृत्योंकी नहीं । हृदयको ही मनुष्य कह सकते है, शरीरको नहीं । शरीर तो केवल हृदयकी आज्ञाओंका पालन करनेवाला यंत्र है । अतः मनुप्यके कृत्योंकी परीक्षा उसके हृदयगत भावोंके या परिणामांक आधारसे ही होती है और हृदय ही शुद्धाशयपूर्वक किये हुए शुभकाकी कसरतसे धीरे धीरे अधिकाधिक विकसित होता हुआ अन्तमें अमर्यादित बन जाता है तथा आत्माको देवगति या सिद्धगति प्राप्त करा देता है । यदि किसी सभामें एक "मनुप्यको बड़ा बनाकर उसको खूब चढाया जाय-तारीफें की जायँ और वह दशलाख रुपये किसी कार्यमें दे दे, तो इससे यह न समझना चाहिए कि उसने दया की है. दान किया है या आर्द्रता दिखाई है। इससे उसका हृदय विकसित नहीं होगा; उसका आत्मा प्रफुल्लित नहीं होगा। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका किया हुआ दान निरुपयोगी है; क्योंकि जिन लोगोंका वह किसी न किसी समयम ऋणी बना था, उनका उसने ऋण चुकाया है, और उन लोगोंने भी उससे लाभ उठाया है; परन्तु उसको सिवाय प्रतिष्ठित वननेक-प्रशंसा प्राप्त करनेके और कुछ लाभ नहीं हुआ; देवी लाभसे वह वंचित ही रहा । जिस मनुष्यका हृदय ही आर्द्र है, जिसमें दया-दान-सहायताके अंकुर मौजूद हैं, वह जहाँ कहीं अधिक शारीरिक या ज्ञानसंबंधी सहायताकी आव
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