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________________ जैनहितैषीmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm श्यकता देखता है, वहीं यथाशक्ति सहायता करता है; . परन्तु वह केवल हृदयकी उमॅगसे ही करता है। यह सहायता उसने गुप्त रीतिसे की हो, चाहे प्रकटरूपसे ( उस समय जैसा मौका हो ); किन्तु उसका हृदय उससे उल्लसित होता है, विकसित होता है, और एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । इस तरह दानगुण यह दशलक्षण धर्मका, आत्माकी उपासनाका, ईश्वरकी भक्तिका प्रथम मंत्र है-प्रथम सोपान अथवा सीढ़ी हैमूल सिद्धान्त है । द्रव्यत्यागी योगी द्रव्य नहीं रखते, केवल इतने ही कारणसे वे इस दानगुणसे विमुख नहीं रह सकते । यह पहले ही कहा जा चुका है कि केवल द्रव्यदान ही दान नहीं हैधनी ही दान कर सकता हो, ऐसा नहीं है । हृदयकी आर्द्रता और आन्तरिक सहानुभूति ही दानकी जननी है; इसलिए दयामूर्ति संत तो गृहस्थोंकी अपेक्षा भी अनन्तगुणा दान कर सकते हैंअनन्तगुणा उपकार कर सकते हैं। जीवनको सह्य बनानेवाले, आश्वासन दिलानेवाले, मनको उत्साहित करनेवाले, शान्तिको देनेवाले उनके वचन और मुखमुद्रा लाखों करोड़ोंके दान से भी विशेष कीमती हैं। ज्ञानके साधन पूरे करनेवाली किसी न किसी प्रकारकी शक्तिके होने पर भी, जो साधु या त्यागी ब्रह्मचारी इस विषयमें उदसीनता या लापरवाही बताते हैं और अपनी कीर्ति, पूजा या ख्यातिके लिए अपने भक्तोंसे खर्च परिश्रम या ठाटवाट करवाते हैं और इसको धर्मप्रभावनाका नाम देते हैं, उनमें धर्मका पहला और मूलतत्त्व दान ( दया ) बिलकुल नहीं है । उनसे हमलोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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