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________________ दान और शीलका रहस्य । १६९ हानिके सिवा किसी प्रकारके लाभकी ज़रा भी आशा नहीं कर सकते । शील । जहाँ दान नहीं वहाँ शील या चारित्र कदापि नहीं ठहर सकता । हृदयकी विशालता के बिना क्षमाबुद्धि, सहनशीलता, इन्द्रियनिग्रह और वृत्तिसंक्षेपका होना सर्वथा असंभव है । वीर भगवान्ने दानके पश्चात् शीलका उपदेश दिया है; परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि केवल ब्रह्मचर्यपालनको ही शील नहीं कहते हैं; यह चारित्र ( Character ) के अर्थमें भी आता है । इस गुणका स्पष्ट ज्ञान होनेके लिए, बारह व्रतोंकी योजना की गई है । मैंने इन व्रतोंका 'स्वरूप इस तरह समझा है: ( १ ) ऐसी सावधानी से - यत्नाचारसे ( Guardedy-thougbtfully ) कार्य करो, वचन कहो और विचार करो कि जिससे किसी जीवको कष्ट न पहुँचे। ऐसी कोशिश करो, जिससे कम से कम जीवोंको कमसे कम कष्ट पहुँचे । ( अहिंसा ) ( २ ) जिस बात को तुम जिस उसको उस ही रूपमें प्रकट करो। प्रकारकी तबदीली न करो। लोकेषणाको कुएमें फेंक दो। निन्दा करना, रूपमें जानते हो - मानते हो, लाभ या डरसे उसमें किसी लोकभय, नैतिक निर्बलता और इसी तरह हँसी दिल्लगी करना, पर फिजूल गप्पें हाँकना आदि हानिकारक या लाभहीन–निरर्थक प्रवृत्तिमें वचनबलका भी दुरुयोग मत करो । ( सत्य ) Jain Education International ducation For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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