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________________ १७० जैनहितैषी- . (३) जिस चीज़ पर, जिस मनुष्य पर, जिस हक़ पर या जिस कीर्ति पर तुम्हारा वास्तविक अधिकार न हो, उस पर अधिकार करनेकी कोशिश कभी मत करो-दूसरेके हकमें दखल मत दो। ( अचौर्य) (४) तुम्हें जिस वीर्य या पराक्रमकी प्राप्ति हुई है, वह तुम्हारी और दूसरोंकी उन्नति करनेके लिए सबसे प्रधान और उत्तम साधन है । उसको पाशविक प्रवृत्तियोंके संतुष्ट करनेमें मत खोओ। उच्च आनन्दकी पहचान करना सीखो । यदि बन सके तो अखण्ड ब्रह्मचारी रहो, नहीं तो ऐसी स्त्री खोजकर अपनी सहचारिणी बनाओ जो तुम्हारे विचारोंमें वाधक न हो और उसहीसे संतुष्ट रहो। अगर सहचारिणी बननेके योग्य कोई न मिले, या मिलने पर वह तुमको प्राप्त न हो सके, तो अविवाहित रहनेका ही प्रयास करो । विवाहित स्थिति चारों तरफ़ उड़ती हुई मनोवृत्तियोंको रोकनेके लिएसंकुचित या मर्यादित करनेके लिए है । वह यदि दोनोंके या एकके असंतोषका कारण हो जाय तो उलटी हानिकारक होगी। अतः अपनी शक्ति, अपने विचार, अपनी स्थिति, अपने साधन और पात्रीकी योग्यता इन सबका विचार करके ही ब्याह करो; नहीं तो कुँवारे रहो । यह माना जाता है कि ब्याह करना ही मनुष्यका मुख्य नियम है और कुँवारा रहना अपवाद है; परन्तु. तुम्हें इसके बदले कुँवारा रहकर ब्रह्मचर्य पालना या सारी अथवा . मुख्य मुख्य बातोंकी अनुकूलता होने पर ब्याह करना, इसे ही मुख्य नियम बना लेना चाहिए । विवाहित जीवनको विषयवासनाके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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