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________________ सहयोगियोंके विचार । १८९ रोग बिलकुल ही असाध्य हो चुका है ? नहीं, प्रबल प्रयत्न किया जाय तो संसारमें कोई भी काम अशक्य नही है। यदि हम अब भी चेत जावें. सुव्यवस्थित नियमोंकी रचना करें, अपने समाजमें विद्याका प्रचार करें, पूर्व और पश्चिमकी गार्हस्थ्य रचनाका अध्ययन-अभ्यास करके जो बातें अपने लिए अनुकूल और कल्याणकारी हों उन सबको संचय करके उस पर अपने गृहसंसारकी नीव जमा, जैनधर्मरूपी सुन्दर महलका द्वार सबके लिए खुला रक्खें, अपने हृदयको उदार बनावें, व्यापार और बैंकिंगके लिए एकता करें, आरोग्यविद्याके ज्ञानका और शुद्ध अध्यात्मविद्याका अपने समाजमें प्रेम उत्पन्न करें-ये सब बातें यदि हम कर सकें तो अब भी बचे रहनेका समय है-बारहवें घण्टेका ६० वाँ मिनिट अब भी हमारे हाथमें है । इतनेमें यदि हम कुछ तदबीर कर गुज़रेंगे तो मृत्युसे बच सकते हैं। -जे. एल. जैनी एम. ए. बार एट् ला। . (अँगरेज़ी जैनगज़टसे ) स्त्रियोंका आदर। हमारे देशमें जब उन्नति हो रही थी तब स्त्रियोंका खूब आदर था और वे शिक्षिता थीं। किन्तु जबसे उनका आदर कम होकर शिक्षा भी कम होगई है तभीसे अवनतिने यहाँ प्रवेश किया है। इसलिए यह कहना ही ठीक जंचता है कि अशिक्षणके रिवाज़ पर लात मारकर स्त्रियोंको खूब शिक्षित करना हमारे लिए पथ्य है । दूसरा कोई भी मार्ग हमारे कल्याणका नहीं है। बहुत पुराने जमानेको जाने दीजिए, महावीरके जन्मको केवल ढाई हज़ार वर्ष ही बीते हैं। उनके पिता अपनी पत्नीका कैसा आदर करते थे ? देखिए: आगच्छन्तीं नृपो वीक्ष्य प्रियां संभाष्य स्नेहतः। मधुरैर्वचनस्तस्यै ददौ स्वार्धासनं मुदा ॥ अर्थः-राजा सिद्धार्थने अपनी प्रियाको कचहरीमें आते देखकर मधुर वाक्योंसे प्रेमपूर्वक आलाप किया और प्रसन्न होते हुए अपना अर्ध सिंहासन बैठनेको दिया, जिस पर कि वे जाकर बैठी। इससे यह ज्ञात होगा कि थोड़े ही पहले बड़े बड़े राजा लोग भी अपनी त्रियोंका कितना सत्कार करते थे। अथवा यह कल्पना करनी चाहिए कि जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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