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जैनहितैषी
पता मनुष्यगणनाकी रिपोर्ट से लगता है; परन्तु मनुष्यगणनाकी रिपोर्टके भरोसे बैठे रहनेसे काम नहीं चलता; क्योंकि विशाल विश्वमें हमारी संख्या केवल १०-१२ लाख ही है । यह क्या हमारी प्रतापपूर्ण इतिहास रखनेवाली जातिके लिए कम लज्जाका विषय है ? हममें यदि शिक्षाकी अधिकता होती तो हमारे भाई दूसरे धर्मोमें नहीं जा सकते और हम दूसरोंको अपने उदार तत्त्व समझाकर जनगणनामें वृद्धि किये विना न रहते । क्या हमें अपने इतने ओछे ज्ञानसे-अल्पशिक्षासे निर्वाणकी बातें करते समय लज्जा न आनी चाहिए ? हम कहा करते हैं कि पहलेके जैन व्यापारसे अगणित धन पैदा करते थे; परन्तु इस समयके जैनोंके हाथमें बतलाइए कहाँ है वैसा व्यापार और धन ? जैनोंका प्रायः प्रत्येक खाता-प्रत्येक संस्था धनकी तंगीसे मृतप्राय हो रही है। हममें 'पब्लिक स्प्रिट '-सार्वजनिक जोशका अंश भी कहाँ है और हो भी कहाँसे ? जो मनुष्य मरनेकी तैयारीमें है वह क्या नृत्य कर सकता है ? जैनजाति जब मरणशय्या पर पड़ी दिख रही है तब सार्वजनिक जोश और स्वार्थत्यागके तत्त्वके अभावमें ( मरनेके सिवाय ) और दूसरे किस परिणामकी आशा की जा सकती है ? लापरवाही (अनवधानता), अश्रद्धा
और अन्धश्रद्धा ये तीन शत्रु हमारी जातिको घोंट घोंटकर मार रहे हैं । हमारे बड़े बूढे तो केवल दूसरोंको मिथ्याती और भ्रष्ट कहनेमें ही धर्मपालनकी समाप्ति समझते हैं और नौजवान भाई जड़वाद और नास्तिकताकी बढ़तीहुई दुनिया
और जड़वादमूलक सुधारोंके उपदेशकी ओर आकर्षित होकर जैनबन्धनसे छूट जानेमें ही आनन्द मानने लगे हैं।
जो लोग निष्पक्ष होकर शान्तिके साथ विचार कर सकते हैं उन्हें यह विश्वास हुए बिना न रहेगा कि मैंने अपनी जातिकी दशाका जो स्वरूप बतलाया है उससे जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। हमारे सामाजिक बन्धन शिथिल हो गये हैं, अविद्याने हमारे यहाँ अड्डा जमा रक्खा है। न हमारे यहाँ कोई उत्तम प्रकारकी सामाजिक संस्था रही है और न राष्ट्रीय । हमारी संख्या दिनपर दिन कम होती जाती है. हमारी लक्ष्मी उड़ती जाती है और हम विनाश तथा मत्युके मार्ग पर जा पहुंचे हैं।
परन्तु क्या अब इस भयंकर पतनको हम रोक नहीं सकते हैं ? क्या ।
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