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________________ दान और शीलका रहस्य। १७३ समतालवृत्ति-साम्यभाव रखनेका अभ्यास करो-मुहाविरा डालो। ( सामायिक ) (१०) अपने देशके बाहरसे आई हुई चीजोंको यथासम्भव काममें न लाओ । स्वदेशप्रेम और स्वदेशाभिमान रक्खो, स्वदेशको बुभुक्षित बनानेमें साधनभूत मत बनो । ( देशव्रत ) ( ११ ) प्रतिमास एक वार जब कभी फुरसत मिले, अनुकूलता हा और शारीरिक व मानसिक स्थिति ठीक हो तब भूखे रहो कि जिससे शरीर नीरोग व महनशील बने और इस स्थितिमें २४ या १२ चण्टे आत्मानुभव या आत्मविचारों में व्यतीत करो। (प्रोषधोपवास ) (१२ ) जब कभी उपकारी पुरुषोंकी भक्ति-सेवा करनेका अवसर आजाय तब बड़े उत्साहके साथ उनकी सेवा करो । जो मंमारक उपकारमें ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और जिनको अपने शरीरकी मार सँभाल करनेकी भी फुरसत नहीं रहती है, उनके अस्तित्वकी. आरोग्यताकी और प्रवृत्तिकी जगतको बहुत आवश्यकता रहती है । इस लिए उनकी आवश्यकताओंको जानकर उन्हें पूरी करना उपकृत वर्गका कर्तव्य है। उनके प्रचार कार्योंका निर्वाह करनेके लिए, अपने शरीरबल, द्रव्यबल, समय और बुद्धि आदिका उत्सर्ग करना चाहिए, उनकी मुश्किलों और दुःखोंमें महानुभूति दिखाकर. उनको दूर करनेके लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए और उनके जयमें अपना जय-समाजका जय-मानना चाहिए । ( अतिथिसविभाग ) * __ कृष्णलाल वर्मा । * जनाहतेच्छुसे अनुवादित । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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