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________________ कि जब यह धार्मिक संस्था है, इसका लाभ नुक्सान इसी का है और हमलोग इसकी निःस्वार्थ सेवा करेंगे तो हमारे दानवीर धनाढ्य गण इस कार्यको समस्त धर्मकार्योकी एकमात्र जड़ अत्यंत उपयोगी समझ कर क्यों न सहायता करेंगे ? अवश्य ही करेंगे । परंतुः जब धनाढय महाशयोंकी पूर्वकालकी स्थितिपर विचार किया गया तौ धनाढय महाशयोंसे धनाशा रखनेवाली महाविद्यालय, बंबई जैन विद्यालय, स्याद्वादशपाठशाला, मोरेनाविद्यालय परीक्षालय आदि धर्मसंस्थायें अबतक धनाभावके अंधकूपमें दुर्दशागस्त पड़ीहुई पाई गई ! ऐसी दशामें वे इस संस्थापर क्यों विचार करने लगे? इसके सिवाय छापेके विरोधीकंटक भी रास्तमें जहांतहां विघ्नविनायक बन नेकेलिये तत्पर खडे हुये हैं ? तब धनाढयमहाशयोंसे सहायता मिले गी ऐसी आशापर तो कार्यप्रारंभ करना सर्वथा खामखयाली है। तब 'दूसरा विचार हुवा कि धनपात्रोंसे भारी आशा न रखकर थोड़ी २. आशा करके सबसे सौसौ रुपयोंकी सहायता लेना और उन रुपयोंक बदलेमें उनको शास्त्रदान करनेकेलिये प्रत्येक अंककी पंद्रह २ प्रति ( १८०) रुपयोंके शास्त्र ) भेजदेनेसे सायद वे लोग सौसौ रुपयोंके दानीग्राहक खुशीके साथ हो जायगे, तब संभव है कि इतनी बड़ी, भारी धनिक जनसमाजमेंसे ऐसे? कमसे कम२५ महाशय तो अवश्य ही मिल जायगे। इसप्रकारका विचार निश्चय होनेपर हमने एकप्रार्थना, पत्र छपाकर जितने ठिकाने नाम धनाढय महाशयोंके मिले सबके पास भेज दिये । एकबार सायद खयालमें न आवे, दूसरीबार भेजेगये फिर अनेक महाशयोंके पास तीसरी बार भी भेजेगये परंतु सिवाय ४ महाशयोंके अन्य किसीका भी एककार्डद्वारा हां नां का जबाबतक न मिला उन चारमें सबसे प्रथम तौ-छपरानिवासी श्रीमान् बाबू-रामेश्वरलाल जीजैनी रईस हैं जिनोंने पहिलापत्र पहुंचने ही सहष १००) रुपये देकर : दानीग्राहक बनना स्वीकार किया। दूसरे महाशय श्रीमान् लाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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