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________________ १५० जैनहितैषी कम पचास विद्यार्थी निरन्तर निवास करते रहे और दशवीम निर्धन विद्यार्थीको छात्रवृत्तियाँ भी मिलती रहें । सबसे पहले हम श्रीयुत बाबू सुमेरचन्दनीकी धर्मपत्नीका ही ध्यान इस ओर अर्पित करते हैं। हम समझते हैं कि इन दो तीन वर्षों में उन्हें अपनी इम संस्थाके फायदे मालूम होगये होंगे. दुम्म लिए अब उभे स्थायी बना इनमें उन्हें और विलम्ब न करना चाहिए । अन्य धर्मात्मा मजनोंको भी चन्दसे. मासिकवृत्तियोंमे, 'पुस्तकाम. तथा पदन लिखनके और और साधनोंसे संस्थाकी महायता करते रहना नाहिए। ८. श्रीमती गुलावबाईकी राखी । एक राजपूतरमणीने संकटके समय एक अपरिचित राजपूत युवाक पास राखी भेजी थी और उसका फल यह हुआ था कि उस युवाने प्राणोंकी वाजी लगाकर उस रमणीकी रक्षा की थी। श्रीयुत वाव अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. की महमिणी श्रीमती गुलावबाइने भी इस बार संकटके समयमें अपने जनभाइयोंक पाम गवी भनी है और आशा की है कि वे उनकी सहायता करेंगे: उनके प्राणपतिको विपत्तिम मुक्त करनेके लिए कोई प्रयत्न वाकी न रकग्नग । गखाक माथ जो पत्र है उसे पढ़कर रुलाई आती है और हमें विश्वास नहीं कि उसे सुनकर किमी महृदयकी ऑग्वोंमें दोनार ऑम आये बिना रह जातंग । अब देखना यह है कि अपनेको राजपूतांकी सन्तान बतलानेवाली दयापरायण जैनजाति इस राखीकी पत कहाँतक रग्बती है और अपने समाज के एक सेवकके छोटे छोटे बच्चों और स्त्रीके प्रति उसकी महानुभूतिका स्रोत कुछ काम कर सकता है या नहीं । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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