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________________ १८६ जैनहितैषी - और फिर पक्का जैन बन जानेका सुभीता कर दिया जाता था । जैनधर्मका क्षेत्र आज कल के समान संकीर्ण न था; इसके विस्तृत मैदान में सारी मानव जातिको टिकने के लिए जगह मिलती थी । ( हाथी, सर्प आदि भयानक प्राणी भी इस मैदानमें खड़े हो सकते थे । ) स्वाध्याय ( अभ्यास ), प्रामाणिकता निर्भय स्वातन्त्र्य, कोमल मनोवृत्तियाँ और सुदृढ चारित्र, ये उस समय के "जैनोंको प्रसिद्धिमें लानेवाले तत्त्व थे । उस समयकी धार्मिक श्रद्धाकी जड़में बुद्धि और विचार शक्ति थी, इस लिए उनकी वह श्रद्धा उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्राण - न्योछावर कर देनेकी प्रेरणा कर सकती थी । उनमें इतनी सचाई और साख थी कि जैन जो शब्द बोलते थे वे ' दस्तावेज ' के समान पक्के समझे जाते थे । उनके शब्दरूप 'दस्तावेज' को कोई स्वार्थ, डर या विघ्न बदल नहीं सकता था । पूर्वके जैन इसी नमूनेके थे । वे जन्मसे जैन कहलवानेके लिए मगुरूर न थे; परन्तु जैनधर्मको सीखकर, जैनजीवन व्यतीत करनेका प्रारंभ करनेमें ही जैनत्व मानते थे और ऐसे जैनसमाजके एक सभ्य के रूपमें प्रकट होनेको मगरूरी समझते थे । और अब ? अब हमारे जैन न तो पूर्वके जैनोंके ही अनुयायी रहे हैं और न पश्चिमके वास्तविक अनुकरण करनेवाले बने हैं । हममेंसे कितनेक तो अपने पूर्वजों के रिवाज़ों और क्रियाओं के बाह्यरूपको पकड़कर बैठ रहे हैं और कितने ही पश्चिमकी वानरी नकल करनेमें लग पड़े हैं । हम न तो अपने पूर्वजों की बनाई हुई क्रियाओं और नियमोंका गुप्त रहस्य और सच्ची विधियाँ समझते हैं और न यह जानते है कि पश्चिमके रिवाज़ क्यों और कैसी परिस्थितियोंमें ज़ारी हुए हैं और वे हमारे लिए कितने अंशों में अनुकूल और कितनों में प्रतिकूल हैं । वीर परमात्माकी स्थापितकीहुई गद्दी के हक़दार ऐरे गैरे जिनके जीमें आया ही बनने लगे हैं । मन्दिरों, धर्मस्थानों, सार्वजनिक जैनसंस्थाओं और भंडारोंकी मालिकी भी ऐसे ही लोगोंके हाथों में जाने लगी है । क्यों ? इसलिए कि उनके हक़के विरुद्ध आन्दोलन उठानेवाले नहीं मिलते हैं । कूपर कवि कहता है कि 66 मुझे जो कुछ नज़र आता है उस सबका मैं महाराजा हूँ; मेरे हक़के विरुद्ध पुकार मचानेवाला कोई भी नहीं है ! " जैनसमाजकी भी यही दशा हो रही है । अपने शास्त्रोंकी रक्षा करनेका हक, संस्थाओं और फंडोंकी मालिकीका हक़ ये सब हक़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522802
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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