________________
૨૮૪
जैनहितैषी
अंधा है कोई कोई बधिर हाथ कटाये, ' व्यसनी है कोई मस्त कोई भक्त पुजारी ॥ कब० ॥३ खेले हैं कई खेल धरे रूप घनेरे, स्थावरमें प्रसोंमें भी किये जाय बसेरे। होते ही रहे हैं यों सदा शाम सबेरे, चक्कर में घुमाता है सदा कर्म मदारी ॥ कब० ॥ ४ सबहीसे मैं रक्तूंगा सदा दिलकी सफ़ाई, हिन्दू हो मुसलमान हो हो जैन ईसाई। मिल मिलके गले बाँटेंगे हम प्रीति मिठाई, आपसमें चलेगी न कभी द्वेष कटारी ॥ कब० ॥५ सर्वस्व लगाके मैं करूँ देशकी सेवा, घर घर पर मैं जा जाके रखू ज्ञानका मेवा । दुःखोंका सभी जीवोंके हो जायगा छेवा, भारतमें देखूगा न कोई मूर्ख अनारी ॥ कब० ॥६ जीवोंको प्रमादोंसे कभी मैं न सताऊँ, करनोंके विषय हेयमें अब मैं न लुभाऊँ। ज्ञानी हूँ सदा ज्ञानकी मैं ज्योति जगाऊँ , समतामें रहूँगा मैं सदा शुद्धविचारी ॥ कब ॥७ नोट-जिस पुरुषश्रेष्ठकी ऐसी पवित्र उदार और शान्त भावनायें हो, उसकी राजद्रोह और नरहत्या जैसे नीच कर्मोसे भी सहानुभूति होगी, इस बातकी हम लोग तो कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
-सम्पादक।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org