Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 87
________________ नाथारंगजी गांधीवालोंक साथ भी ऐसा विरोव हो गया कि उन से सहायता मिलना तो दूर रहा पत्रव्यवहारतक बंद हा गया और उनके द्रव्यसे उनके नामले जैनेंद्रव्याकरणादिका पूरा पूरा उद्धार होनेका कार्य चलते चलते ही बंध हो गया तथा इस धर्म कार्यके परमसहायक श्रीयुत पंडित लालाराम जी थे, उनकोभी आदिपुराणजीके बडे भारी कार्यसहित बनारस छोडकर कोल्हापुर चले जाना पड़ा और २० वर्षस गणेशप्रसाद न्यायाचार्य के साथ अत्यंतप्रीतिमय गुरुशिष्यभाव था वह भी नष्ट होगया । इत्यादि अनेक कारणोंसे सभाके समस्त उद्देश्योंकी पूर्ति करनमें असमर्थ होनेस लाचार होकर गतवर्ष स्याद्वादमहाविद्यालयके उत्सवके समय अनेक महाशयोंकी संमतिसे ग्रंथप्रकाशनमात्रका एक ही उद्देश्य रखकर संस्थाका नाम बदलकर 'भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनी. • संस्था' रखना पडा । इसके शिवाय इस धार्मिक संस्थाकी उत्पत्तिके दो प्रधान कारण और भी हैं. एक तौ स्याद्वादमहाविद्यालयमें पढाई का उचित प्रबंध न होने आदिके ५३ कारणोंसे होनहार ७ विद्याथियोंका अलग होकर विद्याध्ययनका सहारा न होना, दूसर कलकत्ता संस्कृतयूनिवर्सिटीमें श्वेतांबरी जैनग्रंथोंकी तरह दिगंबरी ग्रंथ भी मुद्रण कराकर भरती करानेकी प्रबल इच्छाका होना। इन ही कारणोंसे इस संस्थाका प्रादुरभाव हुवा है और मुख्यतासे संस्कृत ग्रंथ और गौणतासे हिंदीबंगलामें जैनग्रंथ प्रकाशकर अजैन विद्वानोंमें जिनधर्म की प्रभावना करनेका ही एकमात्र उद्देश्य निश्चित किया गया। कार्यारंभका विचारविभ्रम और अंत । । । पाठक महाशय ! उक्त उद्देश्य के साधनार्थ कार्य प्रारंभ करने का बिचार तो कर लिया गया परंतु इस कार्यकी गुरुतापर विचार करनेसे हमारे सब विचार प्रायः हवा हो गये क्योंकि इसमें अत्यंत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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