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सहयोगियों के विचार।
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किसीके सोपे बिना ही जिसके जीमें आया है वही दबा बैठा है। इससे क्या सूचित होता है ? यही कि जैनसमाजमें घुन लग गया है। इतना ही नहीं बल्कि जैनसमाजका अन्तसमय आ पहुंचा है।
यहाँ लोग भ्रममें न पड़ जावें इसके लिए हम यह कह देना चाहते हैं कि 'जैनसमाजका अन्त आ पहुँचा है ' इसका अर्थ यह नहीं है कि 'जैनधर्मका अन्त समय आ पहुँचा है ।' क्योंकि जैनधर्मका सत्य स्वरूप अमर है । सत्य या तत्त्व कभी मरते नहीं हैं। स्वयं जैनोंकी आंधी प्रवृत्तिउलटी चाल भी इस अमर तत्त्वको नहीं मार सकती है । महावीर भगवानके समवसरणके समय जैनधर्ममें जो मिठास और शक्ति थी वही आज भी है
और आगे भी रहेगी। मेरा विश्वास है कि जैनधर्मने पश्चिममें पुनर्जन्म ग्रहण कर लिया है। जैनधर्मके दयाके सिद्धान्तने यूरोप अमेरिकामें अनेक ह्यमेनीटेरियन संस्थाओंको जन्म दिया है । जैनधर्मके गभीर तत्त्वज्ञानने कितने ही अँगरेज़ भाइयों और बहिनों के हृदयों पर विजय पाई है। जैनधर्मके प्राचीन तत्त्वग्रन्थोंने पश्चिमके विद्वानोंके मुँह से प्रशंसा और प्रेमके शब्द कहलवाये हैं । जैनधर्मकी ‘सहधर्मी' रूप 'ज्ञाति' युरोपियन वुद्धिको सन्तोपित करनेवाली सिद्ध हुई है। इस तरह, जैनधर्म कुछ मर नहीं गया है, उसने तो नया जीवन पालिया है; केवल उसका बाहरी स्वरूप बदल गया है ।
अपने सार्वजनिक भंडारोंके अप्रबन्धके सम्बन्ध में ऊपर एक जगह इशारा कर चका हूँ। हमारे सामाजिक विषय भी ऐसी ही गडबड़ों और झंझटोंमें हैं। अपने लोगों के विचारों और कार्योंकी स्वच्छन्दता पर काबू रख सकें, इस तरहके प्रबल सार्वजनिक मत ( पब्लिक ओपीनियन ) का हमारे यहाँ अभाव है । इस लिए जिसकी मर्जी में जो आता है वह करता है और कहता है: सार्वजनिक मतके रूपमें कोई अंकुश ही नहीं है । जहाँ तहाँ जैनधर्मके विरुद्ध रीति-रवाज रहन-सहन और आचरण देखे जाते हैं: उनके लिए कोई दण्ड या चेतावनी देनेकी कोई पद्धति ही नहीं है। यदि कभी किसी सच्चे या कल्पित धर्मविरुद्ध कार्यके विरुद्ध आवाज उटाई जाती है तो उसका असर मोमके खिलौनेके असरसे अधिक नहीं होता । शिक्षाके विषयमें जैन अपनी पड़ोसी जातियोंसे पीछे नहीं हैं इसका
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