Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 61
________________ सहयोगियों के विचार. सहयोगियों के विचार | 66 S Jain Education International प्रार्थना । टनों के अन्तर में छुपे हुए परमेश्वर, तू अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर ! ( सर्व शक्तिमान् होकर भी आज तू भीरु, खुशामदी, संकीर्ण, बहमी, और अज्ञानही आनन्द मनानेवाला बन गया है। इसके कारण अब तो कुछ लज्जित हो और अपनी ईश्वरतामें बट्टा लगानेके अपराधसे मुक्त होने के लिए जनसेवारूप प्रायश्चित लेकर पवित्र बन तथा अपना ज्ञानमय चारित्रमय वीर्यमय प्रकाशित स्वरूप फिर धारण कर ! जब तू स्वयं परमेश्वर है तब तुझे प्रकाशित करने के लिए और दूसरे किस परमेश्वरकी प्रार्थना करने की आवश्यकता हो सकती है ? तू स्वयं ही अपनी सहायता कर, तुझे चारों ओरसे जिन मर्यादाकी संकलने जकड़ रक्खा है उन्हें स्वयं ही एक महावीर के समान तोड़ताड़कर अलग कर और अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर ! १८५ — जैनहितेच्छुके खास अंकका मुखपृष्ट | जनजातिको जीना है या मरना ? • जब भारतकी जैनंतर जातियाँ इस प्रश्नके विचार में लीन हो रहीं हैं कि ' आगे कैसे बढ़े ? तब जैनजातिके आगे यह प्रश्न खड़ा हुआ है कि ' जीते रहना या मर जाना ? ' जो मनुष्य जीना चाहता है वह बाहर के पदार्थों को खुराक के रूपमें ग्रहण करता है, उन्हें पचाता है और शरीर के रक्तके रूपमें उनका रूपान्तर करता है, अर्थात् उन्हें अपने शरीरका ही एक भाग बना लेता है । परन्तु जैनसमाजरूपी मनुष्य ऐसा नहीं करना चाहता। बाहरी मनुष्यों को अपने शरीरका भाग बना लेनेकी चिन्ता तो दूर रही, वह अपने शरीर के अवयवोंको भी शरीरसे जुदा करनेमें बहादुरी दिखला रहा है । तब बतलाइए कि यह जैनसमाज जीता कैसे रह सकता है ? जैनधर्म जब महावीर भगवान् के हाथ से पुनरुज्जीवित हुआ तब वह एक जीवित समाजका धर्म था । उस समय जैनेतरोंको जैनसमाजमें आने दिया जाता था, उन्हें तत्त्वज्ञान सिखलाया जाता था For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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