Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 68
________________ १९२ जैनहितैषी जगह, दूसरी जगह अड़ जाय तो तीसरी जगह और तीसरी जगह भी अड़ जाय तो चौथी जगह, मतलब यह कि कहीं न कहीं उनका चन्द्र रोहिणीकांसा योग तो मिल ही जाता है। पर कष्ट है तो बेचारे गरीबोंको । क्योंकि एक तो वे बड़ी ही कठिनतासे थोड़ा बहुत पैसा इकट्ठा कर पाते हैं और इससे भी अधिक कठिनतासे या बड़ी दौड़ धूप करके वे कहीं अपना योग मिलाते हैं और वैसी हालतमें कहीं गोत्रोंका पचड़ा आकर अटक गया तो बस फिर रहे वे निरंजनके निरंजन ही । वे धनवान् तो हैं ही नहीं जो उन्हें भी मेघ समझकर हजारों चातक उनकी ओर भी टकटकी लगाये हुए हों। और फिर एक बात है, कहीं तो ४ लड़केकी और ४ लड़कीकी ऐसी आठ गोत्रे बचाई जाती हैं और यदि किसीके दो या तीन ब्याह हुए हों तो १०-१२ तक या इससे भी और आगे नम्बर पहुँचता है। ये सब असुविधाएँ हैं और खासकर गरीबोंके मरणकी कारण हैं। जातिका जीवन उसकी बढ़वारी पर टिका हुआ है । तब हमें गरीबोंको भी जीता रखना पड़ेगा । हम चाहते हैं उन्हें सब तरहसे सुभीता हो, इसीलिए गोत्रोंको एक अनावश्यक झंझट समझते हैं और यदि यह उठा दिया जाय तो जातिका बहुत कल्याण हो सकता है-साधारण स्थितिवालोंको भी थोड़ा बहुत सुभीता हो सकता है । यह हमारी कमजोरी और कायरता है जो ऐसी अनिष्ट रूढियोंको उठा देनेसे हम कॉपते हैं। माना जा सकता है कि यह गोत्रोंका टालना कभी किसी सुभीतेके लिए चला और उस समयके लिए जरूरी भी हो, पर इस समय तो इसकी कोई जरूरत नहीं दिखती, किन्तु और उलटा हमारी इससे अत्यन्त हानि हो रही है। इसलिए हमें उचित है कि हम इस चिरसंगिनी रूढि-राक्षसीका जातिसे काला मुँह करें। -सत्यवादी, अंक ११-१२ । AN INSIGHT INTO JAINISM. अर्थात् जैनमतादग्दशन। इस पुस्तकमें बाबू ऋषभदासजी, बी. ए. ने जैनधर्मके प्रायः समी मुख्य मुख्य विषयों पर महत्वशाली लेख लिखे हैं । यह पुस्तक अंग्रेजी जाननेवाले जैनी अजैनी सभी महाशयोंके लिए बड़ी लाभदायक है । इसकी बहुत ही थोड़ी प्रतियां रहगई हैं। मूल्य केवल चार आने । पता-दयाचन्द्र जैन, बी. ए., बैरूनी खंदक, लखनऊ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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