Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 58
________________ १८२ जैनहितैषी क्षुल्लक, त्यागी, ब्रह्मचारी, प्रतिमाधारी जहाँ तहाँ पुज रहे हैं । उनके, भोजनवस्त्रोंकी, पूजाप्रतिष्ठाकी, जयजयकारकी जैनसमाज बराबर चिन्ता रखता है। फिर उनके लिए जुदा आश्रमोंके खोलनेकी ज़रूरत ही क्या है ? . यदि यह कहा जाय कि इन लोगोंकी शिक्षाका और चारित्रसुधारका प्रयत्न आश्रमोंमें किया जायगा तो यह असंभव मालूम। होता है। क्योंकि इनमें अशिक्षितोंकी संख्या ही अधिक है । ये जैनसमाजमें स्वच्छन्द विहार करते हैं और खूब पूजाप्रतिष्ठा पाते हैं । इसलिए इन्हें किसी शासन या शृङ्खलामें रखना बहुत ही कठिन होगा । पढ़ने लिखनेमें इनका चित्त भी नहीं लग सकता । ___ कुछ महाशयोंकी यह राय है कि जो इस समय गृहत्यागी नहीं हैं-घरगिरस्तीमें रहकर ही धर्मध्यान करते हैं और शान्तपरिणामी हैं, वे इन आश्रमोंमें रहेंगे । परन्तु जो केवल अपना आत्मकल्याण करनेकी इच्छा रखते हैं, अपने ही लिए सामायिक स्वाध्याय करते हैं, जिनका सारा दिन चूल्हा चक्की और खानपानकी शुद्धताके विचारोंमें ही बीत जाता है वे पवित्र और आदरणीय भले ही हों; पर उनसे जैनसमाजका कल्याण नहीं हो सकता है और इसीलिए हमारी समझमें उन लोगोंके लिए हमें कोई संस्था खोलनेकी ज़रूरत नहीं है; वे अपना कल्याण अपने घरोमें ही रहकर कर सकते हैं। __बात यह है कि इस समय हमें कर्मवीर चाहिए । कर्म करना छोड़कर-संसारको भुलाकर शान्ति चाहनेवालोंकी इस समय हमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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