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जैनहितैषी
करेंगे । हमारी संस्थाओंमें अब तक अनेक अजैन विद्वानोंके व्याख्यान हो चुके हैं और इसमें सन्देह नहीं कि उनमेंसे कई एक बहुत ही महत्त्वके हुए हैं। परन्तु अभी तक उनमेंसे किसीमें भी हमें ऐसे वाक्य सुननेको नहीं मिले जिनसे. हम अपनी त्रुटियोंसे सावधान हो जायँ । कई व्याख्यानोंमें तो हमको अपनी निरर्थक और अयथार्थ प्रशंसा सुननी पड़ी है जो दूसरों पर हमारा झूठा प्रभाव भले ही डाले, पर हमारे लिए हानिहार ही होगी । हमे अभीसे अपनी प्रशंसा सुननेका व्यसन न डाल लेना चाहिए । गतवर्ष डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण महाशयके व्याख्यानके शेषांशमें जो जैनसंस्थाओंकी
और उनके संचालकोंकी प्रशंसा की गई थी, उसे पाठकोंने पढ़ा ही होगा। लद महाशयने भी अपनी व्याख्यानमें यद्यपि उतनी प्रशंसा नहीं की है तो भी की अवश्य है और इसी लिए इस सम्बन्धमें हमें ये पंक्तियाँ लिखनी पड़ी हैं। . प्रो० लदू महाशयके दोनों व्याख्यानोंका अभिप्राय लगभग एक ही है, तो भी संस्कृतकी अपेक्षा अँगरेजी व्याख्यानमें उन्होंने बहुत सी जानने योग्य बातें कही हैं । जैनधर्म बौद्धधर्मसे प्राचीन है इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि “ ई० सन्से कई शताब्दि पहलेके बौद्धग्रन्थोंमें जैनसम्प्रदायका उल्लेख मिलता है; परन्तु उनमें ऐसा कोई कथन कहीं पर नहीं है कि जिससे जैनमतको नवीन मत या हालका मत कहा जाय । यह भी कहीं स्पष्टरूपसे नहीं लिखा कि जैनमत कबसे है । जैनसूत्रोंसे भी जो कि जैकोबीके विचारानुसार उत्तरीय बौद्धोंके प्राचीनसे भी प्राचीन
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