Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 47
________________ दान और शीलका रहस्य । १७१ लिए, अमर्यादित, यथेच्छ, स्वतंत्र मानना सर्वथा मूल है । वासनाओंको कम करना और आत्मिक एकता करना सीखो । अश्लील शब्दोंसे, अश्लील दृश्योंसे और अश्लील कल्पनाओंसे सदैव दूर रहो। तुम किसीके सगाई व्याह मत करो। क्योंकि तुम्हें इसका किसीने अधिकार नहीं दे रक्खा है। विवाहके आशयको नहीं समझनेवाले और सहचारीपनके कर्तव्यको नहीं पहचाननेवाले पात्रोंको जो मनुष्य एक दूसरेकी बलात् प्राप्त हुई दासता या गुलामीमें पटकता है, वह चौथे व्रतका अतिक्रम करता है, दयाका खून करता है. चोरी करता है । ( ब्रह्मचर्य ) ( ५ ) परिग्रह अथवा मालिकीकी इच्छाको कम करो। मैं सबको भोग, मैं करोडपति बनूँ, मैं महलोंका मालिक बनें, इस तरहके मैं-मैं-मय, स्वार्थमय, संकीणे विचारोंको जितना बने उतना कम करो । इस आज्ञाका यह उद्देश नहीं है; कि तुम नँगे ही फिरो. घरवार रहित बाबा बन जाओ, भख मरो. कुटुंबका पालन पोषण न करो, उसे यों ही मरने दो. किन्तु यह मतलब है कि लोभप्रकृति. मोहप्रकृति, ममत्वभाव और जड़ पदार्थोंकी प्राप्तिमें ही आनन्द मानना, इन बातोंका परित्याग करो और सचाईसे, बुद्धिमानीसे, जी जानसे व्यवस्थापूर्वक किये हुए उद्यमसे जो धन तुम्हें प्राप्त हो, उसे अपनी और अपने आश्रितोंकी आवश्यकता पूरी करनेमें खर्च करो। इसके सिवाय जो द्रव्य बचे उसे उस पर ममत्व न रखते हुए औरोंकी आवश्यकतायें पूरी करनेमें बड़े आनंदसे व्यय करो । परिग्रह पर जितना कम ममत्व रक्खोगे उतनी ही तुम्हें विशेष शांति मिलेगी । ( अपरिग्रह) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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