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जैनहितैषी
वैश्य। ( कविवर श्रीयुक्त बाबू मैथिलीशरण गुप्तकृत भारत-भारतीसे उद्धृत )
(१) जो ईशके ऊरुज अतः जिनपर स्वदेशस्थिति रही,
व्यापार, कृषि, गोरूपमें दुहते रहे जो सब मही। वे वैश्य भी अब पतित होकर नीच पद पाने लगे, बनिये कहा कर वैश्यसे 'वक्काल' कहलाने लगे ॥
वह लिपि कि जिसमें 'सेठ' को 'सठ' ही लिखेंगे सब कहीं,
सीखी उन्होंने और उनकी हो चुकी शिक्षा वहीं। हा ! वेदके अधिकारियों में आज ऐसी मूढ़ता, है शेष उनके 'गुप्त' पदमें किन गुणोंकी गूढ़ता?
(३) कौशल्य उनका अब यहाँ बस तौलनेमें रह गया,
उद्यम तथा साहस दिवाला खोलनेमें रह गया। करने लगे हैं होड़ उनके वचन कच्चे सूतसे, करते दिवाली पर परीक्षा भाग्यकी वे तसे ॥
(४) वाणिज्य या व्यवसायका होता शऊर उन्हें कहीं
तो देशका धन यों कभी जाता विदेशोंको नहीं। है अर्थ सट्टा फाटका उनके निकट व्यापारका, - कुछ पार है देखो भला उनके महा अविचार का ?
बस हाय पैसा! हाय पैसा!! कर रहे हैं वे सभी,
पर गुण विना पैसा भला क्या प्राप्त होता है कभी ? १ मुड़िया या सराफ़ी।
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