Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 48
________________ १७२ जैनहितैषी - ( ६ ) निरर्थक, उपयोगरहित, भ्रमण भी जितना बन सके उतना कम करो । ( दिग्नत ) (७) उपभोग और परिभोगकी लालसाको मर्यादित करो । अपनी आदतोंको सादी, आत्मसंयमी, नियमित और मिताहारी बनाओ । तुम्हारी आवश्यकतायें जितनी कम होंगी उतनी ही तुम्हारी चिन्तायें, उपाधियाँ और लालच भी कम होंगे और अधिक महत्त्वकी बातोंकी ओर जी लगाने के लिए भी विशेष समय मिलेगा । देखादेखी से, झूठे खानदानी ख्यालसे, हम बड़े और अच्छे दिखेंगे इस तरह की मूर्खतायुक्त लोलुपतासे, मिथ्या आडम्बरकी इच्छासे और गुणदोष समझनेकी बुद्धिके अभावसे गैरजरूरी आवश्यकतायें उत्पन्न होती हैं, और वे शारीरिक निर्बलता, मानसिक अधमता और बुद्धिहीनताको जन्म देती हैं । अतः उपभोग परिभोगके पदार्थ आवश्यकतानुसार वे ही जो उपयोगके सिद्धान्तको उत्तर दे सकें- रक्खो । ( भोगोपभोगपरिमाण ) ( ८ ) व्यर्थ कार्योंमें अपने मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति न करो । लड़ाई झगड़ा, निंदा, दुर्ध्यान, चिन्ता, कुतर्क, खेद और भयमें शरीरसंपत्ति, धनसम्पत्ति, समयसम्पत्ति तथा संकल्पसम्पत्तिको नष्ट मत करो । आर्त्तध्यान अथवा चिंता करना और रौद्रध्यान अथवा किसी पर क्रोधमय विचार करना, ये दोनों बुरे और निन्दनीय कर्म हैं; आनन्दमय और वीरत्वमय आत्मप्रभुका द्रोह करनेवाले हैं । इससे मनुष्यत्व क्षीण होता है । ( अनर्थदण्डविरति ) ( ९ ) प्रतिदिन नियमित समय पर ही बने उतने समय तक, , Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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