Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 24
________________ १४८ जैनहितैषी फिरसे लिया गया है; परन्तु इससे उन्हें दूसरे भद्रबाहु न समझना चाहिए-वे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही थे । शिलालेख दूसरे भद्रबाहुसे भी ५०० वर्ष बादका है, इस लिए उसमें आचार्य परम्परा बतलानेके लिए भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पीछेके आचार्योंका नाम आना आश्चर्यजनक नहीं है । दूसरे भद्रबाहुके समयमें चन्द्रगुप्त मौर्यका होना असंभव है; पर पहले भद्रबाहु ( अन्तिम श्रुतकेवली ) से उनके समयका मिलान खा सकता है । यद्यपि लेग्वमें प्रभाचन्द्र नाम है, चन्द्रगुप्त नहीं है। परन्तु जिस पर्वत पर यह लेग्न है उमका नाम चन्द्रगिरि है और 'चन्द्रगुप्त-वस्ती' नामका एक प्राचीन मन्दिर और मठ भी है । इसके सिवा मिरंगापट्टममें मातवीं और नवी शताब्दिके कई लेख हैं जिनमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्रक उल्लेख है। इन सब बातोंसे मिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त और प्रभाचन्द्र एक ही थे। अच्छा होता यदि लमहाशय इम विवादग्रस्त प्रश्नको हल करनेके लिए अपनी आग्मे भी कुछ और प्रबल प्रमाण देते और चन्द्रगुप्त मौर्यका जैन होना अच्छी तरह सिद्ध कर देते । इसके आगे व्याख्याताने जैनधर्मके तत्त्वोंकी चर्चा की है; परन्तु उसमें कोई विशेषता नहीं जान पड़ती ! उनका इस विषयका अध्ययन बहुत ही ऊपराऊपरी जान पड़ता है । व्याख्यानके प्रारंभमें इस बातको उन्होंने स्वीकार भी किया है। पर वे आशा दिलाते हैं कि आगे मैं इस विषयकी ओर :विशेष ध्यान दूँगा और इस लिए जैनसमाजकी ओरमे वे धन्यवादके पात्र हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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