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सम्पादकीय
भारतवर्ष में धर्म कोई बाहर से ओढ़ी जाने वाली ओढ़नी की तरह कभी भी नहीं रहा है, वहाँ तो वह रहने वाले मनुष्यों के जीवन में व उनकी हर क्रिया में भीतर तक अनुस्यूत होकर रहा है, रचा-पचा रहा है। यही कारण है कि उसने मनुष्य के जीवन के हर पहलू पर व उसकी हर क्रिया पर अपनी छाप छोड़ी है व उसे प्रभावित किया है, और इसका परिणाम यह भी रहा है कि कई बार धर्मानुयायी को अपने धर्म से प्रभावित होने वाली क्रिया को करते हुए भी पता ही नहीं चलता कि वह अपने जीवन की अमुक क्रिया अपने धर्म के विचार से प्रभावित होकर कर रहा है, पर वह वैसी क्रिया कर रहा होता है, और यह क्रिया उसके द्वारा अचानक हुई नहीं होती है, बल्कि उस क्रिया के पीछे कहीं न कहीं उसके धार्मिक विचारों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी होती है और पूरी की पूरी क्रिया उसके धर्म के साँचे के अनुसार हुई होती है; कई बार ऐसा भी होता है कि सम्यक् विचार की जानकारी न होने के कारण उसकी क्रिया का कुछ अंश उसकी आस्था के धर्म के अनुसार हुआ होता है और कुछ अंश आस्था के धर्म से विमुख होकर भी और कई बार पूरी की पूरी क्रिया धर्म से विमुख होकर भी हुई होती है ।
यद्यपि जैनधर्म का परिचय कराने वाली अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं और उनमें से अधिकांश केवल जैनधर्म व दर्शन सम्बन्धी कुछ विचारों को सामने रखती हैं, फिर भी अभी तक कोई भी ऐसी पुस्तक प्रकाश में नहीं आयी है, जो जैनों के सर्वविध विचारों और क्रियाओं को सामने रखती हो। ऐसी पुस्तक के अब तक प्रकाशित न होने से क्षति यह हुई है कि आम जैनधर्म अनुयायी भी यह नहीं जानता कि मनुष्य के जीवन से जुड़ी विचारों और क्रियाओं की विविधताओं की इतनी समृद्ध परम्पराओं और उपपरम्पराओं का वह उत्तराधिकारी है। इस प्रकार की रचना के अब तक प्रकाशित न हो पाने के पीछे एक कारण यह भी रहा है कि एक तो इसप्रकार की सामग्री कहीं एक जगह उपलब्ध नहीं है, दूसरे इतने विषयों की विशेषज्ञता की सम्भावना भी किसी एक व्यक्ति से नहीं की जा सकती। तीसरे यह ज्ञानराशि प्राकृत- संस्कृत- अपभ्रंश के मूल ग्रन्थों में है, और चौथे जैनधर्मानुयायियों के दैनन्दिन जीवन की विभिन्न क्रियाओं की, जिनके जानकार भी अब बड़ी मुश्किल से मिलते हैं अर्थात् विरल हैं, कोई सूची हमने कभी 8 :: जैनधर्म परिचय
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