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अणुव्रत रूप जैन आचारमयी जीवन आनन्द प्राप्ति का साधन बनता है । 'जियो और जीने दो' का मांगलिक सन्देश इस जीवन शैली से स्वयं प्रसारित होता है । कषायों और विषय-वासनाओं द्वारा होने वाले जीवन विकारों का शमन संयमाचरण और इन्द्रिय - निग्रह के साथ समस्त प्राणियों पर समताभाव की प्रवृत्ति से ही सम्भव है।
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इसी प्रक्रिया में जीव-अजीव आदि तत्त्व - व्यवस्था, भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति का उपाय, इसको समझने के लिए अनेकान्त - स्यादवाद, प्रमाण, नय, निक्षेप, द्रव्य-गुण-पर्याय, जीव के भाव, उन भावों से होने वाला बन्ध - मोक्ष, बन्धप्रक्रिया में कर्म, मुक्ति प्रक्रिया में गुणस्थान आरोहण, निमित्तउपादान रूप कारण- -कार्य विवेचना आदि धर्म-दर्शन के स्वरूप का उद्घाटन होता है ।
जैनधर्म का विशिष्ट अवदान अनेकान्त- स्याद्वाद सिद्धान्त, विचारों में उदारता तथा समन्वय की प्रवृत्ति का होना है, जो कि अहिंसा का आध्यात्मिक पक्ष पुष्ट करती है। इसी सिद्धान्त से ही कार्यों व विचारों में सामंजस्य की स्थापना विश्वभर में सम्भव है ।
जैनधर्म की श्रमणपरम्परा, श्रावकपरम्परा और उसमें पूजा-विधान, व्रत, नियम आदि का स्वरूप, मोक्षमार्ग, ध्यान, दशलक्षण धर्म, बारह भावनाएँ, सोलहकारण भावनाएँ, वैराग्यभावना तथा समाधिभावना सहित सल्लेखना आदि जैनाचार को सम्पुष्ट करने वाले महत्त्वपूर्ण घटक हैं।
जैन साहित्य परम्परा अपने आप में बहुत समृद्ध रही है। इसमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, मराठी एवं हिन्दी के साथ-साथ अन्य भाषा साहित्य के ग्रन्थों से प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय साहित्य के भंडार की श्रीवृद्धि हुई है । भाषा साहित्य के अन्तर्गत व्याकरण, कोश, अलंकार आदि का उपयोग जैनाचार्यों ने खुले मन से किया है। गणित, भूगोल, ज्योतिष, तन्त्र-मन्त्र, आयुर्वेद आदि विषय भी अपने अप्रतिमरूप में मनीषियों की लेखनी से प्रसूत हुए हैं। जैनधर्म के बहुआयामीपने में कला मर्मज्ञता - मूर्तियों, चित्रों, वास्तु, प्रतीकों में दृष्टव्य है ।
6 :: जैनधर्म परिचय
आधुनिक वैज्ञानिकता का समावेश जैनधर्म के प्रत्येक उपदेश और आचरण में पूर्णतः समाहित है। शोध-खोज के क्षेत्र में लोक व्यवस्था, खान-पान, आचारविचार, मर्यादाएँ आदि जैनधर्म के उपदेशों में हमेशा से अभिव्यक्त होती आयी हैं ।
ग्रन्थ की इस सम्पूर्ण सामग्री को देखकर लगता है कि जैनधर्म का परिचय
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