Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 15
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१३ देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा एवं वैभव-विलास में असंख्य वर्ष व्यतीत कर दिये....अभी उसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था। स्वर्ग में उसे अवधिज्ञान था, परन्तु आत्मज्ञान के बिना अवधिज्ञान का क्या मूल्य? अज्ञानपूर्वक पुण्यफल के उपभोग में उसने स्वर्ग में असंख्य वर्ष बिता दिये और आयु पूर्ण होने पर स्वर्ग से चयकर मनुष्य लोक में अवतरित हुआ। पूर्वभव : ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार ___सौधर्म स्वर्ग से चलकर भूतकाल का वह भील और भविष्य काल का भगवान – ऐसा वह जीव एक अति सुन्दर प्रसिद्ध नगरी में तीर्थंकर के कुल में अवतरित हुआ....कहाँ अवतरित हुआ ? वह पढ़िये - - तीर्थरूप अयोध्या नगरी में देवों ने ऋषभदेव भगवान के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों का आश्चर्यकारी महोत्सव मनाया था। उन ऋषभराजा के दो रानियाँ तथा भरत, बाहुबलि आदि सौ पुत्र थे; उनमें से ज्येष्ठ पुत्र भरत तीन ज्ञान के धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा चरमशरीरी और भरतक्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती थे। अपने चरित्र नायक का जीव सौधर्म स्वर्ग से चयकर इन्हीं भरत चक्रवती का पुत्र हुआ। उसका नाम मरीचिकुमार था। अहा ! भरतक्षेत्र के भावी चौबीसवें तीर्थंकर का जीव वर्तमान में प्रथम तीर्थंकर का पौत्र हुआ। तीर्थंकर का पौत्र और चक्रवर्ती का पुत्र.... उसके गौरव का क्या कहना ? पुरुरवा भील का जीव भगवान पुरुदेव का पौत्र हुआ। (ऋषभदेव का एक नाम पुरुदेव भी है) .. दादा को पौत्र पर और पौत्र को दादाजी पर अत्यन्त प्रेम था- दोनों आत्मा तीर्थंकर होने वाले थे। दादा ऋषभदेव अपने पौत्र को गोद में लेकर खिलाते और बोलना सिखाते कि बोलो बेटा – ‘अप्पा सो परमप्पा' और बालक मरीचि तोतली भाषा में ‘अप्पा-पप्पा' बोलकर दादाजी का अनुसरण करता। वाह ! आदि तीर्थंकर अन्तिम तीर्थंकर को खिलाते होंगे ?.... वह दृश्य कितना आनन्ददायी होगा ? – बहुत ही....देखने योग्य। एकबार चैत्र कृष्णा नौवीं को महाराजा ऋषभदेव के जन्म दिवस पर हजारों राजाओं के बीच इन्द्र अनेक देव-देवियों सहित जन्मोत्सव मना रहा था; नीलांजना नाम की देवी नृत्य कर रही थी कि अचानक ही उसकी आयु पूर्ण हो जाने से वह देवी अदृश्य हो गई। संसार की ऐसी क्षणभंगुरता देखकर महाराजा ऋषभदेव ने

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