Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७४ फुफकारा....परन्तु वीर तो अडिग रहे; वे निर्भयता से सर्प के साथ खेलने के लिये उसकी ओर जाने लगे।
दूर खड़े राजकुमार यह देखकर घबराने लगे कि अब क्या होगा?...सर्प को भगाने के लिये क्या किया जाये, उसके सोच-विचार में पड़ गये....इतने में लोग क्या देखते हैं कि यह भयंकर सर्प अपने आप अदृश्य हो गया।...उसके स्थान पर एक तेजस्वी देव खड़ा है....और हाथ जोड़कर वर्द्धमानकुमार की स्तुति करते हुए कह रहा है कि - हे देव ! आप सचमुच महावीर' हैं। आपके अतुल बल की प्रशंसा स्वर्ग के इन्द्र भी करते हैं। मैं स्वर्ग का देव हूँ; मैंने अज्ञानभाव से आपके बल और धैर्य में शंका की; मैं नाग का रूप धारण करके आपकी परीक्षा ले रहा था; मुझे क्षमा कर दें ! तीर्थंकरों की दिव्यता वास्तव में अद्भुत है ! प्रभो! आप वीर नहीं; किन्तु ‘महावीर' हैं। ___महावीर कुमार तो देव की बात गम्भीरता से सुन रहे हैं; परन्तु हम उस देव को उत्तर देंगे कि अरे देव ! तू तो परीक्षा करने के लिये सर्प का रूप धारण करके आया था; परन्तु कदाचित् सच्चा सर्प भी आया होता तो क्या था ? वह सर्प भी महावीर के सान्निध्य में निर्विष हो जाता। जिनकी शान्त दृष्टि के समक्ष मिथ्यात्व का विष भी टिक नहीं सकता, उन भगवान की दृष्टि पड़ने से सर्प भी निर्विष हो जाएँ – इसमें क्या आश्चर्य है, सम्पूर्ण कषायों को जीतने वाले वीर क्या एक सर्प से डर जायेंगे ? कदापि नहीं। महावीर की वीरता वह किन्हीं बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिये नहीं है; किन्तु वह तो अन्तरंग कषाय-शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाली वीतरागी वीरता है। उन वीर की वीतरागता के सान्निध्य में विषैले सर्प भी अहिंसक बन जायेंगे और मिथ्यात्व-विष को छोड़कर सम्यक्त्व-अमृत का पान करेंगे।
अन्तर एवं बाह्य में वृद्धिंगत होते-होते राजकुँवर महावीर जब आठ वर्ष के हुए, तब एक बार अत्यन्त विशुद्धि से अन्तर में चैतन्य धाम में एकाग्रता की धुन लगने से निर्विकल्प ध्यान का महाआनन्द प्रगट हुआ और प्रभु चतुर्थ गुणस्थान से पंचम गुणस्थान में पधारे। आठ वर्ष की आयु में शुद्धि की वृद्धिपूर्वक प्रभु ने पंच अणुव्रत धारण किये। प्रभु श्रावक हो गये। यद्यपि उनका जीवन तो पहले से