Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१२३ उठाकर वे पानी की ओर देखते तक नहीं हैं....वे तो आँखें झुकाए अन्तर में कुछ
और ही देख रहे हैं। उनकी मुद्रा देखकर लगता है कि उन्हें बाह्य में कुछ भी खोजने की इच्छा नहीं है....उनके मुख पर क्षुधा-तृषा की आकुलता के भाव भी दिखायी नहीं देते, उस पर तो परमशान्ति एवं प्रसन्नता झलक रही है। भक्ति तरंगों से कलकल करती हुई ऋजुका नदी मानों अपनी उस ध्वनि से उनकी स्तुति कर रही है कि अहा ! मैं शीतल स्वभावी होने पर भी मुझ से अधिक शीतलता-शान्ति सम्पन्न इन योगिराज को तो मैंने आज ही देखा है, अन्तर में वे न जाने कैसी अद्भुत शीतलता का वेदन कर रहे हैं कि उन्हें पानी की बाह्य शीतलता की इच्छा नहीं है। ऐसे योगिराज मेरे तट पर पधारे, जिससे मैं धन्य हो गई हूँ। अहा ! इन योगिराज . की चरण-रज से मैं भी पावन हो गई हूँ।
इधर मोह से युद्ध करने के लिये वीर योद्धा तैयार खड़े हैं....वीर राजा का महावीरपना आज सचमुच जागृत हो उठा है; क्षायिक सम्यक्त्व उनकी सेना का सेनापति है और अनन्तगुणों की विशुद्धिरूप सेना शुक्लध्यान के श्रेणीरूप बाणों की वर्षा कर रही है; अनन्त आत्मवीर्य उल्लसित हो रहा है और अनन्त सिद्ध भगवन्त उनके पक्ष में आ मिले हैं। केवलज्ञानलक्ष्मी विजय माला लेकर तैयार खड़ी है और मोह की समस्त सेना प्रतिक्षण घट रही है। अरे, देखो....देखो! . प्रभु तो शुद्धोपयोगरूप चक्र की धार से मोह का नाश करने लगे हैं, क्षपक श्रेणी में आगे बढ़ते-बढ़ते आठवें....नौवें....दशवें गुणस्थान में तो क्षणमात्र में पहुँच गये हैं। प्रभु अब सर्वथा वीतरागी हो गये....और सूर्यास्त से पूर्व तो वीरप्रभु के अन्तर में जो कभी अस्त न हो ऐसा केवलज्ञान सूर्य जगमगा उठा....अहा ! प्रभु महावीर सर्वज्ञ हुए....अरिहन्त हुए....परमात्मा हुए.... णमो अरिहंताणं।'
सर्वज्ञ प्रभु महावीर राग और इन्द्रियों के बिना ही परिपूर्ण सुख और ज्ञानरूप परिणमित हुए। अभूतपूर्व थी वह दशा ! इन्द्रियाँ विद्यमान होने पर भी मानों अविद्यमान हों – इसप्रकार प्रभु ने उनका सम्बन्ध सर्वथा छोड़ दिया। भगवान भले अतीन्द्रिय हुए और हमारा साथ छोड़ दिया, फिर भी हमें प्रभु के साथ रहने में ही लाभ है ऐसा मानकर वे जड़ इन्द्रियाँ अभी प्रभु का साथ नहीं छोड़ती थीं। प्रभु तो इन्द्रियों से निरपेक्ष रहकर स्वयमेव सुखी थे। पराधीन इन्द्रियसुख से ठगे