Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१४४
____एक ही जीव सिंह के भव से पूर्व सिंह के भव के पश्चात् १. नरक में निरन्तर, भूख-प्यास १. स्वर्ग में दो हजार वर्ष में की भयंकर पीड़ा तथापि अनाज आहार की इच्छा होती है और कण्ठ
का एक कण या पानी की एक बूंद में अमृत का स्वाद आता है। | भी नहीं मिलती।
२. स्वर्ग में सुन्दर देवांगनाएँ हैं, २. नरक में धधकती हुई लोह जिन्हें स्नेह से आलिंगन करते हैं। पुतलियों के साथ जबरन् लिपटाकर अग्नि में जलाते हैं।
__३. स्वर्ग में अमृत के सरोवर में नरक में धधकती वैतरणी नदी सुगन्धित जलस्नान । की अतिदुर्गन्ध।
__४. स्वर्ग में ऐसे कल्पवृक्ष हैं, जो ४. नरक में वृक्ष (सेमरवृक्ष) ऐसे हैं ।
अनेक प्रकार की वांछित दिव्य भोग कि जिनकी छाया में बैठने से उसके सामग्री देते है। तलवार जैसे पत्तोंसेशरीर विंधजाताहै। ५. स्वर्ग में जब भी इच्छा हो, तब ___५. नरक में तीर्थंकर या मुनिवरों तीर्थंकर प्रभु के समवसरण में जा के दर्शन का सदा अभाव। सकते हैं।
(दोनों का भोक्ता एक ही जीव; बीच में कुछ ही वर्षों का अन्तर) __कहाँ वे पाप के फल और नरक के दुःख, कहाँ यह पुण्यफल और स्वर्ग के सुख!
शास्त्रकार कहते हैं कि दोनों संयोगों से आत्मा भिन्न है; पुण्य-पाप दोनों कर्मोंसे आत्मा भिन्न; तथा उनके कारणरूपशुभाशुभ परभावों से भी भिन्न; ऐसे ज्ञानस्वरूपी आत्मा की अनुभूतिरूप ज्ञानचेतना से ही मोक्षसुख की प्राप्ति एवं भवदुःख से छुटकारा होता है। ___ (अपने चरित्रनायक का जीव ऐसी ज्ञानचेतना प्राप्त करके स्वर्ग में हरिकेतु da 3720) ACHARYA SHR: KALLASSOGARSO IRIGYANYANOIA •
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