Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/१३४
की प्राप्ति होती है। ऐसे अहिंसा धर्म के उपदेशक प्रभु महावीर ने विपुलाचल से विहार करके भारतभूमि को पावन किया। जहाँ वे पधारते वहाँ अहिंसामय शान्त वातावरण हो जाता था। सर्प और नेवले जैसे विरोधी जीव भी एक दूसरे के मित्र बन जाते थे। सिंह और गाय, शेर और खरगोश.... सब भयरहित होकर एक साथ बैठते थे....और वीरवाणी का अमृत पान करते थे ।
प्रभु ने अनेकान्त तत्त्व का स्वरूप समझाया - जीव अतीन्द्रिय चेतनतत्त्व है, वह जड़ से भिन्न है। चेतन और जड़ प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वधर्म में स्थित हैं। । एक ही वस्तु का एक साथ अपने अनेक धर्मों में तन्मयरूप से रहना सो 'अनेकान्त' है। एक ही आत्मा ज्ञान में है, वही दर्शन में है, वही सुख में है, वही गुण-द्रव्य में है, वही पर्यायों में है; वही आत्मा अस्तित्वधर्म में है, वही नास्तित्वधर्म में है; - इसप्रकार अनन्त स्वधर्मों में व्यापक आत्मा अनेकान्त स्वरूप है । उसे जानने
आत्मा का अनन्त निजवैभव जानने में आता है । इसप्रकार अनेकान्तमय आत्मवैभव बतलाकर भगवान ने प्रत्येक जीव को भगवानपना ही बताया.... अनन्त निजवैभव बताया....मोक्षमार्ग बताया.... धर्म बताया।
प्रभु महावीर जब तीर्थंकर रूप में विचर रहे थे, उन दिनों राजगृही मगध देश की राजधानी थी और वहाँ राजा श्रेणिक राज्य करते थे । यद्यपि प्रभु वर्धमान । (वड्ढमाण) सौराष्ट्र आदि अनेक देशों में विचरे थे, परन्तु मगध देश के निकटस्थ प्रदेशों में उनका 'विहार' इतना अधिक हुआ कि वह प्रदेश ही विहार ( बिहार ) के नाम से प्रसिद्ध हो गया। पहले तो वैशाली और मगध दोनों राज्य एक-दूसरे के शत्रु थे और परस्पर युद्ध भी करते थे; परन्तु वीतराग महावीर को क्या ? उनका कौन शत्रु और कौन मित्र ? उन्होंने तो अपने धर्मचक्र का प्रवर्तन मगध की राजधानी से प्रारम्भ किया । क्रोध द्वारा जिन्हें नहीं जीता जा सकता था उन्हें उन्होंने वीतरागता द्वारा जीत लिया।
एकबार प्रभु महावीर राजगृही के वैभारगिरि पर पधारे। परमात्मा महावीर को और साथ में अपनी लाड़ली बहिन चन्दना को देखकर महारानी चेलना के आनन्द का पार नहीं रहा । महाराजा श्रेणिक भी साथ थे । सर्वज्ञ महावीर को देखकर वे भी स्तब्ध रह गये | वाह ! मेरे इष्ट देव ! धन्य आपकी वीतरागता ! धन्य आपका अचिन्त्य धर्मवैभव !