Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१३६ तीर्थंकर होऊँगा । परस्पर विरुद्ध दोनों बातें सुनकर उन धर्मात्मा को कैसी अनुभूति हुई होगी? क्या नरकगति के शोक से वे खेद-खिन्न हुए होंगे ? अथवा तीर्थंकर होने के उल्लास में हर्ष से नाच उठे होंगे?....नहीं, उन धर्मात्मा की चेतना तो हर्ष या खेद दोनों से परे अलिप्त ही रहकर मोक्ष की ही साधना में लगी रही।वाह, बलिहारी है ज्ञानी की ज्ञानचेतना की!
हर्ष-शोक से पार, ज्ञानी जीव रहें सदा ।
जो चाहो सुख-शान्ति, साधो ज्ञानस्वभाव को॥ अहो ! वीरनाथ के समीप चैतन्य की विशुद्धता के बल से नरक के पाप भी मानों धुल गये हों - इसप्रकार श्रेणिक राजा तो चेतनरस के वेदन में ही तत्पर थे। वीर प्रभु के प्रति परम उपकार के सूचक हर्षाश्रु उनकी आँखों से झर रहे थे। . ____ अरे, देखो तो सही, जीव के परिणाम का परिवर्तन ! कहाँ एक समय मुनि
की विराधना के क्रूर परिणाम ! और कहाँ इस समय तीर्थंकर प्रकृति के योग्य विशुद्धपरिणाम ! कहाँ उससमय का मिथ्यात्व और कहाँ आज का क्षायिक सम्यक्त्व
एक ही जीव के जीवन में कैसे-कैसे परिवर्तन आते हैं ! वाह, जिनशासन! सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप बतलाने वाला तेरा उपदेश हमें वीतरागता ही कराता है। नरकगामी भी वही....और किंचित् दीर्घदृष्टि से देखें तो मोक्षगामी भी वही। अहा ! जीव के परिणामों की शक्ति तो देखो, चाहे जैसा पापी या विराधक जीव भी सीधा चले तो क्षण में धर्मी होकर मोक्ष का साधक बन जाता है। इसका उदाहरण एक इन्द्रभूति-गौतम गणधर और दूसरे श्रेणिक राजा-भविष्य में होनेवाले तीर्थंकर।
क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त श्रेणिक राजा ने अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द के तार झंकृत करके वीरनाथ प्रभु की भक्ति की। उससमय एक ओर उनके पुराने कर्म शीघ्रता से खिर रहे थे तो दूसरी ओर तीर्थंकर प्रकृति बँध रही थी; यद्यपि उससमय 'मैं कर्म से बंधू - ऐसी इच्छा उनको नहीं थी; परन्तु राग के अपराधवश बन्धन हो रहा था। महावीर तो पूर्व में बाँधे हुए तीर्थंकर नामकर्म को छोड़ रहे हैं और श्रेणिक तीर्थंकर नामकर्म को बाँध रहे हैं....मानों एक तीर्थंकर के पास से तीर्थंकर प्रकृति के परमाणु दूसरे तीर्थंकर के पास जा रहे हों ! यह वीर प्रभु तो अब हमें छोड़कर निष्कर्म होकर मोक्ष में जाएँगे' - ऐसा समझकर उन कर्मों ने अपने रहने