Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 123
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१२१ करती है। वीर प्रभु राजगृही की ओर सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के आस-पास विचर रहे हैं....वहाँ से कोई भी यात्री आता तो उन्हें बुलाकर आतुरता से समाचार पूछती हैं कि तुमने प्रभु को देखा ? प्रभु को केवलज्ञान हुआ ?....वे इस समय कहाँ विराजते हैं ? क्या करते हैं ? । ___ एक यात्री ने कहा- बहिन, मैं वीरप्रभु के दर्शन करके आ रहा हूँ। जांभिक ग्राम में ऋजुवालिका नदी के तटपर प्रभु ध्यान में लीन खड़े थे....और अब तो केवलज्ञान की तैयारी लगती है; क्योंकि प्रभु अति उग्ररूप से ध्यान में एकाग्र हों - ऐसा लगता था; किन्तु बहिन ! क्या प्रभु को केवलज्ञान होने की बात कहीं छिपी रहेगी ?....अरे, केवलज्ञान होते ही तीनों लोक में उसके समाचार फैल जायेंगे और आनन्द ही आनन्द छा जायेगा....आकाश से देवों के समूह धरती पर उतरेंगे....अब तो हम शीघ्र ही वह धन्य अवसर देखेंगे....और तीर्थंकर रूप में प्रभु की दिव्यध्वनि सुनकर धन्य बनेंगे। प्रिय साधर्मी पाठको ! चलो, हम भी चन्दना जिनकी राह देख रही है....उन प्रभु महावीर के दर्शन करने तथा उनके केवलज्ञान का दिव्य-महोत्सव प्रत्यक्ष देखने चलें। ऋजुवालिका के किनारे : प्रभु को केवलज्ञान महावीर मुनिराज कौशाम्बी नगरी में चन्दना कुमारी के हाथ से पारणा करने के पश्चात् उद्यान में जाकर ध्यान मग्न हो गये। पश्चात् वे सिद्धपद साधक सन्त विहार करते हुए अनन्त सिद्धों के सिद्धिधाम सम्मेदशिखर पधारे। सिद्धिधाम में वे भावी सिद्ध ध्यान में बैठे थे – वह दृश्य वास्तव में अद्भुत था। प्रभु के चरण स्पर्श से शिखरजी की पावन भूमि पुन: पावन हुई; दो तीर्थों का मिलन हुआ - एक भावतीर्थ और दूसरा स्थापना तीर्थ; अथवा एक चेतनतीर्थ और दूसरा अचेतनतीर्थ। हमें ऐसा लगेगा कि क्या भगवान तीर्थयात्रा हेतु आये होंगे ? अरे, किन्तु प्रभु तो स्वयं ही चलते-फिरते जीवन्त-तीर्थ हैं। शिखरसम्मेद तो स्थापना तीर्थ है, जबकि प्रभु तो स्वयं रत्नत्रयरूप परिणमित जीवन्त-तीर्थ हैं। मोक्षयात्रा तो सदा कर ही रहे हैं और साक्षात् रत्नत्रय तीर्थरूप परिणमित ऐसे महात्माओं के प्रताप से ही भूमि-पर्वतों को तीर्थपना प्राप्त हुआ है।

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