Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 128
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१२६ हैं कि यह रत्नसिंहासन वह कोई निजपद नहीं है; निजचैतन्य का पद तो अन्तर में अतीन्द्रिय ज्ञान-आनन्द द्वारा निर्मित है....उस पर प्रभु आरूढ़ हैं। ज्ञानानन्द पद में विराजमान सर्वज्ञ महावीर को देखकर भव्यजीव भी ज्ञानानन्द में लीन हो जाते थे....और प्रभु की दिव्यवाणी का श्रवण करने के लिये अत्यन्त आतुर थे। प्रभु कैसा अद्भुत बोलेंगे ? कैसा अचिन्त्य आत्मस्वरूप बतलायेंगे....प्रभु अभी बोलेंगे.... प्रात:काल बोलेंगे.... मध्याह्न में बोलेंगे....सांयकाल बोलेंगे... कल तो अवश्य बोलेंगे.... इसी आशा में दिवसों पर दिवस बीत रहे हैं जीवों के झुण्ड के झुण्ड समवसरण में आ रहे हैं और साक्षात् परमात्मा के दर्शनों से हर्षित होते हैं....परन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरती। यद्यपि वीरप्रभु अभी बोलते नहीं हैं; परन्तु मौन रहकर, अनिच्छा से गगनविहार करते हैं। विहार करते-करते वे राजगृही में विपुलाचल पर पधारे। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन प्रभु को केवलज्ञान हुआ था; वह शेष वैशाख मास पूरा बीत गया, ज्येष्ठ मास भी बीत गया और अब आषाढ़ भी पूरा होने लगा है....ग्रीष्म ऋतु समाप्त हुई....६६ दिन बीत चुके हैं, किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरती; तथापि भव्यजीव थके नहीं हैं, वे तो प्रभु की वाणी सुनने के लिये समवसरण में ही बैठे हैं; वहाँ उन्हें भूख नहीं लगती और न प्यास; थकान भी नहीं लगती और निद्रा भी नहीं आती। मानों क्षुधा-तृषा रहित भगवान के सान्निध्य में उनकी भी क्षुधा-तृषा एवं निद्रा शान्त हो गई हो। (समवसरण में किसी को क्षुधातृषा-रोगादि नहीं होते।) ___अब तो आषाढ़ भी पूर्ण होकर श्रावण मास प्रारम्भ हो चुका है... इसप्रकार श्रावण कृष्णा प्रतिपदा आयी; वर्षाऋतु प्रारम्भ हो गई। अब तो प्रभु के मुख से भी दिव्यध्वनि की वर्षा अवश्य होगी -ऐसे विश्वासपूर्वक सभाजन भगवान की ओर दृष्टि लगाये बैठे थे...। ___ इतने में अचानक एक ऋषि-महात्मा ने समवसरण में प्रवेश किया; उनका नाम था इन्द्रभूति-गौतम ! मानस्तम्भ के निकट आते ही उनका मान विगलित हो गया और प्रभु की दिव्यता देखते ही विनीत हो गये। अहा, ऐसी अद्भुत वीतरागता! यह आत्मा अवश्य ही सर्वज्ञ परमात्मा हैं - ऐसा विश्वास आ गया

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