Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 90
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८पहुँच गई। चन्दनबाला वहाँ पहुँचकर बड़ी बहिन त्रिशलादेवी के पास बैठकर वीरकुमार का गुणगान कर रही थी, इतने में प्रिय कुमार आ पहुँचे। छोटी मौसी को देखकर वीरकुमार ने प्रसन्नता व्यक्त की और वैरागी भानजे को देखकर चन्दना का हृदय भी उनके प्रति नतमस्तक हो गया। वह कहने लगी- वीरकुमार ! तुम्हारे उत्तम गुणों को देखकर मुझे बड़ा आनन्द होता है। अहा ! एक तीर्थंकर की मौसी होने के नाते मेरा हृदयं गौरव का अनुभव करता है...परन्तु प्रिय वीरकुमार ! मैं मात्र तुम्हारी मौसी होकर नहीं रहूँगी...जब तुम तीर्थंकर होओगे और जगत को मोक्षमार्ग का उपदेश दोगे, तब मैं भी तुम्हारे मार्ग का अनुसरण करके तुम्हारे शासन में धर्मसाधना कर गौरव का अनुभव करूँगी। 'हाँ मौसी!' महावीर ने कहा- 'तुम्हारी बात सच है; तुम्हारे उत्तम धर्मसंस्कारों को मैं जानता हूँ, तुम भी संसार के मोहजाल में फँसना नहीं चाहती और आत्मसाधना में ही जीवन बिताना चाहती हो, यह जानकर मुझे आनन्द होता है।' देवकुमार वर्द्धमान ! राग से अलिप्त ज्ञानचेतना की अपार महिमा तुम्हारे जीवन में दिखायी देती है, जिसे देखकर हमारी चेतना भी जागृत हो जाती है और मानों इसीसमय निर्विकल्प चेतना का आस्वादन कर लूँ, इसप्रकार अत्यन्त उत्कण्ठा होती है; किन्तु अन्तर में आत्मा का विचार करते हुए विकल्प भी साथ ही साथ दिखते रहते हैं। वे विकल्प चैतन्य का स्वाद नहीं लेने देते; तो उनसे छूटकर चैतन्य का आस्वादन कैसे किया जाये ? उसकी रीति बतलाओ न! ___ महावीर ने कहा – 'वाह मौसी !' चैतन्य के रसास्वादन की तुम्हारी ऐसी उत्कण्ठा देखकर मुझे प्रसन्नता होती है। देखो, अन्तर में विचार के समय जो विकल्प दिखाई देते हैं, उसी समय विकल्पों को जाननेवाला ज्ञान भी साथ ही है न ! वह ज्ञान कहीं विकल्पों को नहीं करता। ज्ञान विकल्पों को जानता है, किन्तु उन्हें करता नहीं है। चैतन्य के चिन्तनकाल में जो किंचित् भी शान्ति का आभास होता है, वह ज्ञान का कार्य है और जो विकल्प रह जाते हैं वह राग का कार्य है। इसप्रकार ज्ञान और राग दोनों के कार्य एक-दूसरे से विरुद्ध हैं; उन दोनों को भली-भाँति जानने से ज्ञान का रस अधिक हो जायेगा और राग का रस टूट जायेगा । ज्ञान अपने रस में वृद्धि करताकरता अन्त में अपने अनन्त चैतन्यभावों से भरपूर एक ज्ञानस्वभाव में ही

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