Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/९८ करने तथा वीतरागी शान्तरस को अंगीकार करने हेतु वन में जाने को खड़े हो गये और उत्तम वैराग्यभावनाओं के चिन्तनपूर्वक चन्द्रप्रभा' नाम की शिविका में
आरूढ़ हुए। __(यहाँ देवगति की अपेक्षा मनुष्यगति का तथा चारित्रदशा का महत्व बतलाने के लिये कोई कथाकार अलंकार से कहता है कि दीक्षा के अवसर पर प्रभु की पालकी उठाने हेतु देवों और मनुष्यों के बीच विवाद खड़ा हुआ कि पालकी पहले कौन उठाये ?)
देव बोले - हम स्वर्ग से प्रभु का दीक्षाकल्याणक मनाने आये हैं, इसलिये पालकी पहले हम उठायेंगे। जिसप्रकार जन्म कल्याणक के लिये हम प्रभु को मेरुपर्वत पर ले गये थे, उसी प्रकार दीक्षा के लिये वन में भी हम ले जायेंगे।
तब मनुष्यों की ओर से राजाओं ने कहा- अरे देवो! हम मेरुपर्वत पर नहीं आ सके थे, किन्तु इस चारित्र के प्रसंग में तो हमारा ही अधिकार बनता है; क्योंकि प्रभु हमारे मनुष्यलोक के हैं, इसलिये प्रभु की चारित्रदशा के अवसर पर तो हम ही पालकी उठायेंगे....चारित्र में देवों का अधिकार नहीं है। ____ अन्त में इन्द्र ने झिझकते हुए प्रभु की ओर देखा कि इस विवाद में वे ही कोई मार्ग निकालें, ताकि देवों को भी कुछ अधिकार प्राप्त हो।
प्रभुमहावीर बोले-चारित्र में जो मुझे साथ दे सकें, जो मेरे साथ चारित्रदशा अंगीकार कर सकें, वे पहले सात डग पालकी उठायें....और फिर दूसरे....
बस, हो गया निर्णय । यह बात सुनते ही इन्द्र निस्तेज हो गया; उसे अपना इन्द्र पद तुच्छ लगने लगा और पुकार कर कहने लगा कि अरे, कोई यह स्वर्ग का साम्राज्य लेकर मुझे बदले में एक क्षणभर का चारित्र दे दो। देखो, चारित्रदशा की महिमा ! हे सौधर्म देव ! तुम्हारे पास भले ही इन्द्र पद हो, परन्तु वह देकर भी एक क्षणभर का चारित्र तुम्हें नहीं मिल सकता । चारित्र दशा तो मनुष्यभव में ही प्राप्त होती है, इसलिए उसकी महिमा इन्द्र पद से भी अधिक है।
इस अलंकार कथन द्वारा पुराणकार ऐसा प्रगट करते हैं कि देवलोक की दिव्यता की अपेक्षा मनुष्यलोक का संयम महान है, उस संयम के समक्ष इन्द्र को भी नतमस्तक होना पड़ता है।