Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 116
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/११४ चन्दना कुछ बोली नहीं, मात्र स्नेहपूर्ण नेत्रों से सेठ की ओर देखती रही....मानों उसके अमृत झरते नेत्र उनसे शान्त भाव रखने को कह रहे हों। सेठ ने तुरन्त कोठरी का द्वार खोला और बेड़ियाँ काटने के लिये स्वयं ही लुहार को बुलाने दौड़े। सेठजी के आने से तीन दिन की उपवासी चन्दना विचारने लगी – यदि महावीर प्रभु पधारें तो मैं उन्हें आहार देकर ही पारणा करूँगी। - ऐसी अन्तरंग भावना भा रही है। और यदि जीव की भावना सच्ची हो तो उसका फल भी मिले बिना नहीं रहता....यदि जीव को भावना का फल न मिले तो सारा जगत शून्य हो जाए। जिसे आत्मा की भावना हो उसे आत्मा की प्राप्ति होती ही है। सच्ची आत्म भावना भाने वाले को यदि आत्मसुख की प्राप्ति न हो तो आत्मतत्त्व ही शून्य हो जाए, उसका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो। यदि पापी जीव के पापभाव का फल न हो तो नरकगति ही शून्य हो जाए; जीव के पुण्यभाव का फल न हो तो जगत में देवगति ही शून्य हो जाए; जीव के रत्नत्रयभाव का फल न हो तो सिद्धगति ही शून्य हो जाए। इसप्रकार यदि जीव के शुभ-अशुभ या शुद्ध भावों का फल न हो तो संसार की चार गतियाँ अथवा सिद्धगति ही नहीं रहेगी और तब जगत को शून्य हो जाना पड़ेगा; किन्तु नहीं, सच्ची भावना का सच्चा फल आता ही है....भावना फलित हुए बिना नहीं रहती। देखो, इधर चन्दना उत्तम भावनाएँ भा रही हैं....कि वीर प्रभु पधारें....तो आहारदान दूं...ठीक उसी समय - प्रभु महावीर पधारे। पाँच मास और पच्चीस दिन के उपवासी प्रभु महावीर आहार हेतु नगर में पधारे हैं। उनका शरीर दुर्बल नहीं हुआ, उनकी मुद्रा निस्तेज नहीं हुई; उलटी तप के दिव्य तेज से चमक रही हैं; उनके चैतन्य का प्रतपन अनोखा है ! ऐसे प्रभु वीर मुनिराज वृषभदत्त सेठ के घर की ओर आ रहे हैं....चन्दना ने दूर से प्रभु को अपने घर की ओर आते देखा तो उसका रोम-रोम, प्रदेश-प्रदेश हर्षातिरेक से....भक्ति से तथा आश्चर्य से पुलकित हो उठा.... 'पधारो प्रभु पधारो !' प्रभु निकट आये और हर्षविभोर चन्दना प्रभु को सत्कारने के लिये आगे बढ़ी....आश्चर्य ! उसकी बेड़ियाँ खुल गईं, उसका रूप सौन्दर्य इतना उत्कृष्ट लगने लगा मानों सिर भी पूर्ववत् सुन्दर केशों से सुशोभित हो रहा हो -

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